Monday, February 14, 2022

द्वारकाधीश मंदिर व द्वारका नगर का निर्माण और विध्वंश

द्वारकाधीश मंदिर व द्वारका नगर का निर्माण और विध्वंश:-
डा. राधे श्याम द्विवेदी
           मेरे प्रिय भागवत प्रेमी भाईयो और बहनो, देवियों और सज्जनों, मैं अपने अध्यात्मिक और भागवत कथा ब्लॉग में श्रो मद भागवद् कथा के कुछ एक 42 कड़िया आप सब के सामने प्रस्तुत किया हूँ। चूँकि मैं इतिहास पुरातत्व और संस्कृति का छात्र रहा। इसलिए मूल कथा को कुछ समय तक विश्राम देते हुए प्रसंग बस आये द्वारका DWARKA की वर्तमान वस्तुस्थिति पर विचार करने का प्रयास करूँगा। शेष मूल कथा थोड़े अंतराल के बाद प्रस्तुत करने का प्रयास करूँगा। 
            🌷जय श्री कृष्ण जय श्री राधे। 🌷
        द्वारका जो हिंदुओं की आस्था के प्रसिद्ध केंद्र चार धामों में से एक है। वही द्वारका जिसे द्वारकापुरी कहा जाता है और सप्तपुरियों में शामिल किया जाता है। वही द्वारका जिसे मथुरा छोड़ने के बाद स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने अपने हाथों से बसाया था। वही द्वारका जो आज कृष्ण भक्तों सहित हिंदू धर्म में आस्था रखने वालों के लिये एक महान तीर्थ है।
         मथुरा-वृंदावन को छोड़ने के बाद श्री कृष्ण ने समुद्र तट पर एक नई द्वारका नगरी बसाई थी।गुजरात के अहमदाबाद से लगभग 380 किलोमीटर की दूरी पर द्वारका स्थित है। माना जाता है कि लगभग पांच हजार साल पहले जब भगवान श्री कृष्ण ने द्वारका नगरी को बसाया था । जिस स्थान पर उनका निजी महल यानि हरिगृह था वहीं पर द्वारकाधीश मंदिर का निर्माण हुआ। 
        महाभारत युद्ध के 36वें वर्ष में द्वारका नगरी में बहुत अपशकुन होने लगे थे। कान्हा ने सभी यदुवंशी पुरुषों को तीर्थ पर जाने के लिए कहा। इस पर सभी लोग द्वारका नगरी से तीर्थ के लिए निकल गए। प्रभास क्षेत्र में आने पर विश्राम के दौरान किसी बात पर ये लोग आपस में भिड़ गए। यह बहसबाजी, झगड़े में बदली और झगड़ा मारकाट में बदल गया। इस दौरान ऋषियों का शाप इस रूप में फलिभूत हुआ कि सांब ने जिस मूसल को उत्पन्न किया था, उसके प्रभाव से प्रभास क्षेत्र में खड़ी एरका घास को लड़ाई के दौरान जो भी उखाड़ता, वो एरका घास मूसल में परिवर्तित हो जाती। ऐसा मूसल, जिसका एक प्रहार ही व्यक्ति के प्राण लेने के लिए पर्याप्त था। इस लड़ाई में श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न भी मारे गए।
         सूचना मिलते ही कान्हा प्रभास क्षेत्र पहुंचे। अपने पुत्र और प्रियजनों को मृत देखकर श्रीकृष्ण ने क्रोध में वहां खड़ी एरका घास उखाड़ ली और हाथ में आते ही उस घास ने मूसल का रूप ले लिया। लड़ाई में जो लोग बचे रह गए थे, जिन्होंने अपने परिजनों को मारा था, श्रीकृष्ण ने एक-एक वार से उन सभी का वध कर दिया। अंत में सिर्फ श्रीकृष्ण, उनके सारथी दारुक और बलराम बचे। इस पर श्रीकृष्ण ने दारुक से कहा कि हस्तिनापुर जाकर अर्जुन को यहां ले आओ। फिर बलराम को वहीं रुकने को कहा और स्वयं अपने पिता को इस संहार के बारे में सूचित करने द्वारका चले गए। कान्हा ने वासुदेवजी को इस नरसंहार के बारे में बताया और कहा कि जल्द यहां अर्जुन आएंगे। आप नगर की स्त्रियों और बच्चों को लेकर अर्जुन के साथ हस्तिनापुर चले जाइएगा।
           जब श्रीकृष्ण वापस प्रभास क्षेत्र पहुंचे तब बलरामजी ध्यानावस्था में बैठे थे। कान्हा के पहुंचते ही उनके शरीर से शेषनाग निकले और समुद्र में चले गए। अब श्रीकृष्ण इधर-उधर घूमते हुए अपने जीवन और गांधारी के शाप के बारे में विचार करने लगे और फिर एक पेड़ की छांव में बैठ गए। इसी समय जरा नामक एक शिकारी का वाण उनके पैर में आकर लगा, जिसने दूर से उनके पैर के अंगूठे को हिरण का मुख समझकर वाण चला दिया था। जब वह शिकारी शिकार उठाने पहुंचा तो श्रीकृष्ण के देखकर क्षमा मांगने लगा। कान्हा ने उसे अभय दान देकर देह त्याग दी।
         अर्जुन ने द्वारका पहुंचकर वासुदेव जी से कहा कि वह नगर में शेष बचे सभी लोगों को हस्तिनापुर चलने की तैयारी का आदेश दें। फिर अर्जुन ने प्रभास क्षेत्र जाकर सभी यदुवंशियों का अंतिम संस्कार किया। अगले दिन वासुदेवजी ने प्राण त्याग दिए। उस पर उनका अंतिम संस्कार कर अर्जुन सभी महिलाओं और बच्चों को लेकर द्वारका से निकल गए। जैसे ही उन लोगों ने नगर छोड़ा द्वारका का राजमहल और नगरी समुद्र में समा गई। उसी नगरी के पिलर और अवशेषों के बारे में समुद्र से जुड़ी अलग-अलग रिसर्च के दौरान जानकारी मिलती रहती है।
मान्यता है कि भगवान श्री कृष्ण के अपने धाम गमन करने के पश्चात उनके साथ ही उनके द्वारा बसायी गई द्वारका नगरी भी समुद्र में समा गई थी। लगभग पच्चीसौ वर्ष पूर्व उनके प्रपौत्र वज्रनाभ ने करवाया था जिसका कालांतर में विस्तार और जीर्णोद्धार किया गया। मंदिर के वर्तमान स्वरुप को 16वीं शताब्दी के आस-पास का बताया जाता है।  
         वास्तु कला के नजरिये से भी द्वारकाधीश मंदिर को बहुत ही उत्कृष्ट माना जाता है। मंदिर एक परकोटे से घिरा है। मंदिर की चारों दिशाओं में चार द्वार हैं जिनमें उत्तर और दक्षिण में स्थित मोक्ष और स्वर्ग द्वारा आकर्षक हैं। मंदिर सात मंजिला है जिसके शिख की ऊंचाई 235 मीटर है। इसके बनाने के ढंग की निर्माण विशेषज्ञ तक प्रशंसा करते हैं। मंदिर के शिखर पर लहराती धर्मध्वजा को देखकर दूर से ही श्री कृष्ण के भक्त उनके सामने अपना शीष झुका लेते हैं। यह ध्वजा लगभग 84 फुट लंबी हैं जिसमें विभिन्न प्रकार के रंग आकर्षक रंग देखने वाले को मोह लेते हैं। मंदिर के गर्भगृह में भगवान श्री कृष्ण की शयामवर्णी चतुर्भुजी प्रतिमा है जो चांदी के सिंहासन पर विराजमान है। ये अपने हाथों में शंख, चक्र, गदा औक कमल धारण किये हुए हैं। यहां इन्हें रणछोड़ जी भी कहा जाता है।  
अन्य आकर्षण:-
द्वारकाधीश मंदिर के साथ साथ यहां पर अनेक मंदिर हैं जिनकी अपनी कहानियां हैं। गोमती की धारा पर बने चक्रतीर्थ घाट, अरब सागर और वहां पर स्थित समुद्रनारायण मंदिर, पंचतीर्थ जहां पांच कुएं हैं जिनमें स्नान करने की परंपरा है, शंकराचार्य द्वारा स्थापित शारदा पीठ आदि अनेक ऐसे स्थान हैं जो द्वारका धाम की महिमा को कहते हैं।
समुद्र में डूब चुका है पुरातन नगर :-
कई खोजों के दौरान समुद्र में एक नगर डूबा होने की बात सामने आती है। दरअसल, समुद्र में समाई यह नगरी द्वापर युग में कान्हा द्वारा बसाई गई द्वारका ही है। जो कौरवों की माता गांधारी और ऋषियों द्वारा दिए गए शाप के कारण तहस-नहस हो गई।
महाभारत के युद्ध में पांडवों की विजयी हुई। श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को राजगद्दी पर बैठाया और राज्य से जुड़े नियम-कानून उन्हें समझाकर वे कौरवों की माता गांधारी से मिलने पहुंचे। कान्हा के आने पर गांधारी फूट-फूटकर रोने लगीं और फिर क्रोधित होकर उन्हें शाप दिया कि जिस तरह तुमने मेरे कुल का नाश किया है, तुम्हारे कुल का अंत भी इसी तरह होगा। श्रीकृष्ण साक्षात भगवान थे, चाहते तो इस शाप को निष्फल कर सकते थे। लेकिन उन्होंने मानव रूप में लिए अपने जन्म का मान रखा और गांधारी को प्रणाम करके वहां से चले गए।
          श्रीकृष्ण के पुत्र सांब अपने मित्रों के साथ हंसी-ठिठोली कर रहे थे। उस समय महर्षि विश्वामित्र और कण्व ऋषि ने द्वारका में प्रवेश किया। जब सांब के नवयुवक मित्रों की दृष्टि इन महान ऋषियों पर पड़ी तो वे इन पुण्य आत्माओं का अपमान कर बैठे। इन युवकों ने सांब को एक महिला के वेश में तैयार किया और महर्षि विश्वामित्र तथा कण्व ऋषि के सामने पहुंचकर उनसे बोले, यह स्त्री गर्भवती है। आप देखकर बताइए कि इसके गर्भ से क्या उत्पन्न होगा? दोनों ही ऋषि युवकों के इस परिहास से अत्यंत क्रोधित हुए और उन्होंने कहा कि इसके गर्भ से एक मूसल उत्पन्न होगा, जिससे तुम जैसे दुष्ट, असभ्य और क्रूर लोग अपने समस्त कुल का नाश कर लेंगे।
         इस घटना का पता श्रीकृष्ण को चला तो उन्होंने कहा यह ऋषियों की वाणी है। व्यर्थ नहीं जाएगी और अगले ही दिन सांब ने एक मूसल उत्पन्न किया। इस मूसल को राजा उग्रसेन ने समुद्र में फिकवा दिया। साथ ही श्रीकृष्ण ने नगर में घोषणा करा दी कि अब कोई भी नगरवासी अपने घर में मदिरा नहीं बनाएगा। क्योंकि कृष्ण नहीं चाहते थे कि उनके कुल के लोग और संबंधी मदिरा के नशे में कोई अनुचित व्यवहार कर परिवार सहित एक-दूसरे का नाश कर बैठें। क्योंकि ऋषियों की वाणी तो सच होनी ही थी।
             🌷 ।।जय श्री कृष्ण जय श्री राधे। ।🌹


 

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