Saturday, February 12, 2022

अश्वत्थामा को दण्ड द्रौपदी की क्षमाशीलता( प्रसंग 38 ) श्री मदभागवत पुराण प्रथम स्कन्धः सप्तमोऽध्यायः उत्तरांश:


 
अश्वत्थामा को दण्ड द्रौपदी की क्षमाशीलता( प्रसंग 38 )
श्री मदभागवत पुराण प्रथम स्कन्धः सप्तमोऽध्यायः उत्तरांश:
डा. राधे श्याम द्विवेदी
द्रौपदीकी अद्भुत क्षमाशीलता:-
इस पोस्ट मे अश्वत्थामा का मान मर्दन प्रस्तुत किया जा रहा है। 
सूतजी बोले-शौनकजी! अब मैं राजर्षि परीक्षितके जन्म, कर्म और मोक्ष तथा पांडवोंके स्वर्गारोहणकी कथा कहता हूँ; क्योंकि इन्हींसे भगवान श्रीकृष्णकी अनेक कथाओं का उदय होता है |
महाभारत-युद्ध में कौरव-पाण्डव दोनों पक्षोंके बहुत से वीर वीरगति को प्राप्त हो चुके थे | तब अश्वत्थामाने द्रोपदी के सोते हुए पुत्रों के सिर काटकर दुर्योधन को भेंट किये | यह देखकर द्रोपदी अत्यंत दु:खी हो गयी और फूट-फूट कर विलाप लगी | अर्जुनने सांत्वना देते हुए कहा- कल्याणी! मैं उस आततायीका सिर काटकर तुम्हें भेंट करूँगा और यह कहकर वे भगवान श्रीकृष्ण के साथ रथ पर सवार होकर गाण्डीव ले अश्वत्थामा के पीछे दौड़े | जब उसने दूर से अर्जुन को देखा तो जहाँ तक भाग सकता था भागा, फिर उसने प्राण रक्षा के लिए ब्रम्हास्त्रका सन्धान किया | अर्जुन ने देखा की एक भयंकर तेज उस और आरहा है उसने भगवान के बताने पर ब्रह्मास्त्रसे ही ब्रह्मास्त्रका तेज़ शांत कर दिया | अर्जुन ने अश्वत्थामा को पकड़ कर रस्सी से बांध लिया और शिविर की ओर लेजाने लगे, तब भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि इसने जघन्य अपराध किया है, अतः इसे मार ही डालो | परन्तु अर्जुन का ह्रदय महान था, उसके मन में गुरु-पुत्र को मारने की इच्छा नहीं हुई | अर्जुन ने रस्सी से बंधे अश्वत्थामाको लेजाकर द्रोपदी के सामने खड़ा कर दिया | उसे देखकर द्रोपदी को आचार्य द्रोण और विधवा गुरुपत्नीकी याद आ गयी और द्रोपदी ने इतना बड़ा अपराध कर भरी दुख पहुँचाने बाले अश्वत्थामा को क्षमा कर दिया | कितनी महान थी द्रोपदी ! क्या आज कोई भी नारी ऐसी स्थिति में इतनी दया दिखा पायेगी ? भगवान कृष्ण के संकेत को समझकर अर्जुन ने तलवारसे अश्वत्त्थामाके सिर की मणि बालोंसहित उतर ली | बालकों की हत्या करने से वह श्रीहीन तो पहले ही होगया था, अब मणि और ब्रह्म तेज़ से भी रहित हो गया | इसके बाद अर्जुन ने रस्सी का बंधन खोलकर उसे बाहर निकाल दिया | सिर का मुंडन कर देना, धन छीन लेना और बहार निकाल देना- यही ब्राह्मणअधमों का वध है ।
अश्वत्थामा ने ब्रम्हास्त्र पाण्डवों के नाश के लिए छोड़ा था. अर्जुन के द्वारा ब्रम्हास्त्र को नष्ट करने के बाद अश्वत्थामा को रस्सी में बांधकर द्रौपदी के पास लाया गया. अश्वत्थामा को रस्सी से बंधा देख द्रौपदी का कोमल हृदय पिघल गया और उसने अर्जुन को उन्हें बंधन मुक्त करने को कहा. अश्वत्थामा  के कृत के लिए भगवान कृष्ण ने उसे श्राप दिया कि तू पापी लोगों का पाप ढोता हुआ तीन हजार वर्ष तक निर्जन स्थानों में भटकेगा. तेरे शरीर से सदैव रक्त की दुर्गंध निश्रत होती रहेगी. तू अनेक रोगों से पीड़ित रहेगा और मानव और समाज भी तुमसे दुरी बनाकर रहेंगे। 
            ऐसा कहा जाता है कि भगवान श्री कृष्ण के श्राप के बाद अश्वत्थामा आज भी अपनी मौत को भटकता रहा, लेकिन उसे मौत नसीब नहीं हुई. ऐसा केवल भविष्य पुराण में ही नहीं बल्कि अलग-अलग पुराणों में भी इसका वर्णन किया गया है, जिसमें ये भी कहा गया है कि जो लोग हजारों वर्षो से जीवित हैं  और यहां-वहां भटक रहे हैं, ये सब कल्कि भगवान की सेना में शामिल होकर अधर्म के विरुद्ध लड़ेंगे। 
          इसी मुख्य कथा को व्यास जी ने इस प्रकार व्यक्त किया है। 
परीक्षितोऽथ राजर्षेर्जन्मकर्मविलापनम्
संस्थां च पाण्डुपुत्राणां वक्ष्ये कृष्णकथोदयम्।।12।। 
शौनकजी ! अब मैं राजर्षि परीक्षित के जन्म, कर्म और मोक्ष की तथा पाण्डवों के स्वर्गारोहण की कथा कहता हूँ; क्योंकि इन्हीं से भगवान् श्रीकृष्ण की अनेकों कथाओं का उदय होता है ।।12।।
यदा मृधे कौरवसृञ्जयानां वीरेष्वथो वीरगतिं गतेषु
वृकोदराविद्धगदाभिमर्श भग्नोरुदण्डे धृतराष्ट्रपुत्रे।।13।। 
भर्तुः प्रियं द्रौणिरिति स्म पश्यन्कृष्णासुतानां स्वपतां शिरांसि
उपाहरद्विप्रियमेव तस्य जुगुप्सितं कर्म विगर्हयन्ति। ।।14।। 
जिस समय महाभारतयुद्ध में कौरव और पाण्डव दोनों पक्षों के बहुत-से वीर वीरगति को प्राप्त हो चुके थे और भीमसेन की गदा दे प्रहार से दुर्योधन की जाँघ टूट चुकी थी, तब अश्वत्थामा ने अपने स्वामी दुर्योधन का प्रिय कार्य समझकर द्रौपदी के सोते हुए पुत्रों के सिर काटकर उसे भेंट किये, यह घटना दुर्योधन को भी अप्रिय ही लगी; क्योंकि ऐसे नीच कर्म की सभी निन्दा करते हैं। ।।13-14।।
माता शिशूनां निधनं सुतानां निशम्य घोरं परितप्यमाना
तदारुदद्वाष्पकलाकुलाक्षी तां सान्त्वयन्नाह किरीटमाली ।।15।। 
उन बालकों की माता द्रौपदी अपने पुत्रों का निधन सुनकर अत्यन्त दुःखी हो गयी। उसकी आँखों में आँसू छलछला आये --- वह रोने लगी। अर्जुन ने उसे सान्त्वना देते हुए कहा ।।15।।
तदा शुचस्ते प्रमृजामि भद्रे यद्ब्रह्मबन्धोः शिर आततायिनः
गाण्डीवमुक्तैर्विशिखैरुपाहरे त्वाक्रम्य यत्स्नास्यसि दग्धपुत्रा । ।।16।। 
'कल्याणि ! मैं तुम्हारे आँसू तब पोछूँगा, जब उस आततायी ब्रह्मणाधम का सिर गाण्डीव-धनुष के बाणों से काटकर तुम्हें भेंट करूँगा और पुत्रों की अंत्येष्टि क्रिया के बाद तुम उसपर पैर रखकर स्नान करोगी' ।।16।।
इति प्रियां वल्गुविचित्रजल्पैः स सान्त्वयित्वाच्युतमित्रसूतः
अन्वाद्रवद्दंशित उग्रधन्वा कपिध्वजो गुरुपुत्रं रथेन।।17।। 
अर्जुन ने इन मीठी और विचित्र बातों से द्रौपदी को सांत्वना दी और अपने मित्र भगवान् श्रीकृष्ण की सलाह से उन्हें सारथि बनाकर कवच धारणकर और अपने भयानक गाण्डीव धनुष को लेकर वे रथपर सवार हुए तथा गुरुपुत्र अश्वत्थामा के पीछे दौड़ पड़े। ।।17।।
तमापतन्तं स विलक्ष्य दूरात्कुमारहोद्विग्नमना रथेन
पराद्रवत्प्राणपरीप्सुरुर्व्यां यावद्गमं रुद्रभयाद्यथा कः।।।18।। 
बच्चों की हत्या से अश्वत्थामा का भी मन उद्विग्न हो गया था। जब उसने दूर से ही देखा कि अर्जुन मेरी ओर झपटे हुए आ रहे हैं, तब वह अपने प्राणों की रक्षा के लिये पृथ्वी पर जहाँ तक भाग सकता था, रूद्र से भयभीत सूर्य की भाँति भागता रहा । ।।18।।
यदाशरणमात्मानमैक्षत श्रान्तवाजिनम्
अस्त्रं ब्रह्मशिरो मेने आत्मत्राणं द्विजात्मजः। ।।19।। 
जब उसने देखा की मेरे रथ के घोड़े थक गये हैं और मैं बिलकुल अकेला हूँ, तब उसने अपने को बचाने का एकमात्र साधन ब्रह्मास्त्र ही समझा। ।।19।।
अथोपस्पृश्य सलिलं सन्दधे तत्समाहितः
अजानन्नपि संहारं प्राणकृच्छ्र उपस्थिते। ।।20।। 
यद्यपि उसे ब्रह्मास्त्र को लौटाने की विधि मालूम न थी, फिर भी प्राण संकट देखकर उसने आचमन किया और ध्यानस्थ होकर ब्रह्मास्त्र का सन्धान किया। ।।20।।
ततः प्रादुष्कृतं तेजः प्रचण्डं सर्वतो दिशम्
प्राणापदमभिप्रेक्ष्य विष्णुं जिष्णुरुवाच ह। ।।21।। 
उस अस्त्र से सब दिशाओं में एक बड़ा प्रचण्ड तेज फैल गया। अर्जुन ने देखा की अब तो मेरे प्राणों पर ही आ बनी है, तब उन्होंने श्रीकृष्ण से प्रार्थना की। ।।21।।
अर्जुन उवाच
कृष्ण कृष्ण महाबाहो भक्तानामभयङ्कर
त्वमेको दह्यमानानामपवर्गोऽसि संसृतेः। ।।22। । 
अर्जुन ने कहा----- श्रीकृष्ण ! तू सच्चिदानन्दस्वरुप परमात्मा हो। तुम्हारी शक्ति अनन्त है। तुम्हीं भक्तों को अभय देनेवाले हो। जो संसार की धधकती हुई आग में जल रहे हैं, उन जीवों को उससे उबारनेवाले एकमात्र तुम्हीं हों। ।।22।।
त्वमाद्यः पुरुषः साक्षादीश्वरः प्रकृतेः परः
मायां व्युदस्य चिच्छक्त्या कैवल्ये स्थित आत्मनि। ।।23।। 
तुम प्रकृति से परे रहनेवाले आदिपुरुष साक्षात् पमेश्वर हो। अपनी चित-शक्ति ( स्वरुप-शक्ति )- से बहिरंग एवं त्रिगुणमयी माया को दूर भगाकर अपने अद्वितीय स्वरुप में स्थित हो। ।।23।।
स एव जीवलोकस्य मायामोहितचेतसः
विधत्से स्वेन वीर्येण श्रेयो धर्मादिलक्षणम्। ।।24।। 
वही तुम अपने प्रभाव से माया-मोहित जीवों के लिए धर्मादिरूप कल्याण का विधान करते हो ।।24।।
तथायं चावतारस्ते भुवो भारजिहीर्षया
स्वानां चानन्यभावानामनुध्यानाय चासकृत्। ।।25।। 
तुम्हारा यह अवतार पृथ्वी का भार हरण करने के लिये और तुम्हारे अनन्य प्रेमी भक्तजनों के निरन्तर स्मरण-ध्यान करने के लिए है । ।।25।।
किमिदं स्वित्कुतो वेति देवदेव न वेद्म्यहम्
सर्वतो मुखमायाति तेजः परमदारुणम्। ।।26।।
स्वयम्प्रकाशस्वरुप श्रीकृष्ण ! यह भयंकर तेज सब ओर से मेरी ओर आ रहा हैं। यह क्या है, कहाँ से, क्यों आ रहा है---इसका मुझे बिलकुल पता नहीं हैं! ।।26।।
श्रीभगवानुवाच
वेत्थेदं द्रोणपुत्रस्य ब्राह्ममस्त्रं प्रदर्शितम्
नैवासौ वेद संहारं प्राणबाध उपस्थिते। ।।27।। 
भगवान् ने कहा--- अर्जुन ! यह अश्वत्थामा का चलाया हुआ ब्रह्मास्त्र है। यह बात समझ लो कि प्राण संकट उपस्थित होने से उसने इसका प्रयोग तो कर दिया है, परन्तु वह इस अस्त्र को लौटाना नहीं जानता। ।।27।।
न ह्यस्यान्यतमं किञ्चिदस्त्रं प्रत्यवकर्शनम्
जह्यस्त्रतेज उन्नद्धमस्त्रज्ञो ह्यस्त्रतेजसा। ।।28।। 
किसी भी दुसरे अस्त्र में इसको दबा देने की शक्ति नहीं है। तुम शस्त्रास्त्रविद्या को भलीभांति जानते ही हो, ब्रह्मास्त्र के तेज से ही इस ब्रह्मास्त्र की प्रचण्ड आग को बुझा दो । ।।28।।
सूत उवाच
श्रुत्वा भगवता प्रोक्तं फाल्गुनः परवीरहा
स्पृष्ट्वापस्तं परिक्रम्य ब्राह्मं ब्राह्मास्त्रं सन्दधे। ।।29।। 
सूतजी कहते हैं-----अर्जुन विपक्षी वीरों को मारने में बड़े प्रवीण थे। भगवान् की बात सुनकर उन्होंने आचमन किया और भगवान् की परिक्रमा करके ब्रह्मास्त्र के निवारण के लिए ब्रह्मास्त्र का ही सन्धान किया। ।।29।। 
संहत्यान्योन्यमुभयोस्तेजसी शरसंवृते
आवृत्य रोदसी खं च ववृधातेऽर्कवह्निवत्। ।।30।। 
बाणों से वेष्टित उन दोनों ब्रह्मास्त्रों के तेज प्रलयकालीन सूर्य एवं अग्नि के समान आपस में टकराकर सारे आकाश और दिशाओं में फैल गये और बढ़ने लगे । ।।30।।
दृष्ट्वास्त्रतेजस्तु तयोस्त्रील्लोकान्प्रदहन्महत्
दह्यमानाः प्रजाः सर्वाः सांवर्तकममंसत। ।।31।। 
तीनों लोकों को जलानेवाली उन दोनों अस्त्रों की बढ़ी हुई लपटों से प्रजा जलाने लगी और उसे देखकर सबने यही समझा कि यह प्रलयकाल की सावंर्तक अग्नि है। ।।31।।
प्रजोपद्रवमालक्ष्य लोकव्यतिकरं च तम्
मतं च वासुदेवस्य सञ्जहारार्जुनो द्वयम्। ।।32।। 
उस आग से प्रजा का और लोकों का नाश होते देखकर भगवान् की अनुमति से अर्जुन ने उन दोनों को हो लौटा लिया । ।।32।
तत आसाद्य तरसा दारुणं गौतमीसुतम्
बबन्धामर्षताम्राक्षः पशुं रशनया यथा। ।।33।। 
अर्जुन को आँखे क्रोध से लाल-लाल हो रही थीं। उन्होंने झपटकर उस क्रूर अश्वत्थामा को पकड़ लिया और जैसे कोई रस्सी से पशु को बाँध ले, वैसे ही बाँध लिया। ।।33।।
शिबिराय निनीषन्तं रज्ज्वा बद्ध्वा रिपुं बलात्
प्राहार्जुनं प्रकुपितो भगवानम्बुजेक्षणः। ।।34।। 
अश्वत्थामाको बलपूर्वक बाँधकर अर्जुन ने जब शिविर की ओर ले जाना चाहा, तब उनसे कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण ने कुपित होकर कहा। ।।34।।
मैनं पार्थार्हसि त्रातुं ब्रह्मबन्धुमिमं जहि
योऽसावनागसः सुप्तानवधीन्निशि बालकान्। ।।35।। 
'अर्जुन ! इस ब्रह्मणाधम को छोड़ना ठीक नहीं है, इसको तो मार ही डालो। इसने रात में सोये हुए निरपराध बालकों की हत्या की है । ।।35।। 
मत्तं प्रमत्तमुन्मत्तं सुप्तं बालं स्त्रियं जडम्
प्रपन्नं विरथं भीतं न रिपुं हन्ति धर्मवित्। ।।36।। 
धर्मवेत्ता पुरुष असावधान, मतवाले, पागल, सोये हुए, बालक, स्त्री, विवेकज्ञानशुन्य, शरणागत,रथहीन और भयभीत शत्रु को कभी नहीं मारते। ।।36।। 
स्वप्राणान्यः परप्राणैः प्रपुष्णात्यघृणः खलः
तद्वधस्तस्य हि श्रेयो यद्दोषाद्यात्यधः पुमान्। ।।37। । 
परन्तु जो दुष्ट और क्रूर पुरुष दूसरों को मारकर अपने प्राणों का पोषण करता है, उसका तो वध ही उसके लिये कल्याणकारी है; क्योंकि वैसी आदत को लेकर यदि वह जीता है तो और भी पाप करता है और उन पापों के कारण नरकगामी होता है। ।।37।।
प्रतिश्रुतं च भवता पाञ्चाल्यै शृण्वतो मम
आहरिष्ये शिरस्तस्य यस्ते मानिनि पुत्रहा। ।।38।। 
फिर मेरे सामने ही तुमने द्रौपदी से प्रतिज्ञा की थ कि 'मानवती ! जिसने तुम्हारे पुत्रों का वध किया है, उसका सिर मैं उतार लाऊंगा।' ।।38।।
तदसौ वध्यतां पाप आतताय्यात्मबन्धुहा
भर्तुश्च विप्रियं वीर कृतवान्कुलपांसनः। ।।39।। 
इस पापी कुलांगार आततायी ने तुम्हारे पुत्रों का वध किया है और अपने स्वामी दुर्योंधन को भी दुःख पहुँचाया है। इसलिये अर्जुन ! इसे मार ही डालो । ।।39।।
सूत उवाच
एवं परीक्षता धर्मं पार्थः कृष्णेन चोदितः
नैच्छद्धन्तुं गुरुसुतं यद्यप्यात्महनं महान् । ।।40।। 
भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन के धर्म की परीक्षा लेने के लिए इस प्रकार प्रेरणा की, परन्तु अर्जुन का हृदय महान था, यद्यपि अश्वत्थामा ने उनके पुत्रों की हत्या की थी, फिर भी अर्जुन के मन में गुरुपुत्र को मारने की इच्छा नहीं हुई। ।।40।।
अथोपेत्य स्वशिबिरं गोविन्दप्रियसारथिः
न्यवेदयत्तं प्रियायै शोचन्त्या आत्मजान्हतान्। ।।41।। 
इसके बाद अपने मित्र और सारथि श्रीकृष्ण के साथ वे अपने युद्ध-शिविर में पहुँचे। वहाँ अपने मृत पुत्रों के लिए शोक करती हुई द्रौपदी को उसे सौंप दिया। ।।41।।
तथाहृतं पशुवत्पाशबद्धमवाङ्मुखं कर्मजुगुप्सितेन
निरीक्ष्य कृष्णापकृतं गुरोः सुतं वामस्वभावा कृपया ननाम च। ।।42।। 
द्रौपदी ने देखा कि अश्वत्थामा पशु की तरह बाँधकर लाया गया है। निन्दित कर्म करने के कारण उसका मुख नीचे की ओर झुका हुआ है। अपना अनिष्ट करनेवाले गुरुपुत्र अश्वत्थामा को इस प्रकार अपमानित देखकर द्रौपदी का कोमल हृदय कृपा से भर आया और उसने अश्वत्थामा को नमस्कार किया । ।।42।।
उवाच चासहन्त्यस्य बन्धनानयनं सती
मुच्यतां मुच्यतामेष ब्राह्मणो नितरां गुरुः। ।।43।। 
गुरुपुत्र का इस प्रकार बाँधकर लाया जाना सती द्रौपदी को सहन नहीं हुआ। उसने कहा---'छोड़ दो इन्हें, छोड़ दो। ये ब्राह्मण हैं, हमलोगों के अत्यन्त पूजनीय हैं। ।।43।।
सरहस्यो धनुर्वेदः सविसर्गोपसंयमः
अस्त्रग्रामश्च भवता शिक्षितो यदनुग्रहात् । ।।44।। 
स एष भगवान्द्रोणः प्रजारूपेण वर्तते
तस्यात्मनोऽर्धं पत्न्यास्ते नान्वगाद्वीरसूः कृपी। ।।45।। 
जिनकी कृपा से आप ने रहस्य के साथ सारे धनुर्वेद और प्रयोग तथा उपसंहार के साथ सम्पूर्ण शस्त्रास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया है, वे आपके आचार्य द्रोण ही पुत्र के रूप में आपके सामने खड़े हैं। उनकी अर्धांगिनी कृपी अपने वीर पुत्र की ममता से ही अपने पति का अनुगमन नहीं कर सकीं, वे अभी जीवित हैं। ।।44-45।।
तद्धर्मज्ञ महाभाग भवद्भिर्गौरवं कुलम्
वृजिनं नार्हति प्राप्तुं पूज्यं वन्द्यमभीक्ष्णशः। ।।46।। 
महाभाग्यवान आर्यपुत्र ! आप तो बड़े धर्मज्ञ हैं। जिस गुरुवंश की नित्य पूजा और वन्दना करनी चाहिये उसी को व्यथा
पहुँचाना आपके योग्य कार्य नहीं है। ।।46।।
मा रोदीदस्य जननी गौतमी पतिदेवता
यथाहं मृतवत्सार्ता रोदिम्यश्रुमुखी मुहुः। ।।47।। 
जैसे अपने बच्चों के मर जाने से मैं दुःखी होकर रो रही हूँ और मेरी आँखों से बार-बार आँसू निकल रहे हैं, वैसे ही इनकी माता पतिव्रता गौतमी न रोयें। ।।47।।
यैः कोपितं ब्रह्मकुलं राजन्यैरजितात्मभिः
तत्कुलं प्रदहत्याशु सानुबन्धं शुचार्पितम् । ।।48।। 
जो उच्छंखल राजा अपने कुकृत्यों से ब्राह्मणकुल को कुपित कर देते हैं, वह कुपित ब्राह्मणकुल उन राजाओं को सपरिवार शोकाग्नी में डालकर शीघ्र ही भस्म कर देता है।' ।।48।।
सूत उवाच
धर्म्यं न्याय्यं सकरुणं निर्व्यलीकं समं महत्
राजा धर्मसुतो राज्ञ्याःप्रत्यनन्दद्वचो द्विजाः। ।।49।। 
सूतजी ने कहा-----शौनकादि ऋषियों ! द्रौपदी की बात धर्म और न्याय के अनुकूल थी। उसमें कपट नही था, करुणा और समता थी। अतएव राजा युधिष्टिर ने रानी के इन हितभरे श्रेष्ट वचनों का अभिनन्दन किया। ।।49।।
नकुलः सहदेवश्च युयुधानो धनञ्जयः
भगवान्देवकीपुत्रो ये चान्ये याश्च योषितः। ।।50।। 
साथ ही नकुल,सहदेव,सात्यकि,अर्जुन स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण और वहाँ पर उपस्थित सभी नर-नारियों ने द्रौपदी की बात का समर्थन किया। ।।50।
तत्राहामर्षितो भीमस्तस्य श्रेयान्वधः स्मृतः
न भर्तुर्नात्मनश्चार्थे योऽहन्सुप्तान्शिशून्वृथा। ।।51।। 
उस समय क्रोधित होकर भीमसेन ने कहा, 'जिसने सोते हुए बच्चों को न अपने लिये और न अपने स्वामी के स्वामी के लिए, बल्कि व्यर्थ ही मार डाला, उसका तो वध ही उत्तम है'। ।।51।।
निशम्य भीमगदितं द्रौपद्याश्च चतुर्भुजः
आलोक्य वदनं सख्युरिदमाह हसन्निव। ।।52।। 
भगवान् श्रीकृष्ण ने द्रौपदी और भीमसेन की बात सुनकर और अर्जुन की ओर देखकर कुछ हँसते हुए-से कहा। ।।52।।
श्रीभगवानुवाच
ब्रह्मबन्धुर्न हन्तव्य आततायी वधार्हणः
मयैवोभयमाम्नातं परिपाह्यनुशासनम्। ।।53।। 
भगवान् श्रीकृष्ण बोले----- 'पतित ब्राह्मण का भी वध नहीं करना चाहिये और आततायी को मार ही डालना चाहिये'---शास्त्रों में मैंने ही ये दोनों बातें कही हैं। इसलिये मेरी दोनों आज्ञाओं का पालन करो। ।।53।।
कुरु प्रतिश्रुतं सत्यं यत्तत्सान्त्वयता प्रियाम्
प्रियं च भीमसेनस्य पाञ्चाल्या मह्यमेव च। ।।54।। 
तुमने द्रौपदी को सान्त्वना देते समय जो प्रतिज्ञा की थी उसे भी सत्य करो; साथ ही भीमसेन,द्रौपदी और मुझे जो प्रिय हो, वह भी करो। ।।54।।
सूत उवाच
अर्जुनः सहसाज्ञाय हरेर्हार्दमथासिना
मणिं जहार मूर्धन्यं द्विजस्य सहमूर्धजम्। ।।55।। 
सूतजी कहते हैं -----अर्जुन भगवान् के हृदय की बात तुरन्त ताड़ गये और उन्होंने अपनी तलवार से आश्वत्थामा के सर की मणि उसके बालों के साथ उतार ली । ।।55।।
विमुच्य रशनाबद्धं बालहत्याहतप्रभम्
तेजसा मणिना हीनं शिबिरान्निरयापयत्। ।।56।।
बालकों की हत्या करने से वह श्रीहीन तो पहले ही हो गया था, अब मणि और ब्रह्मतेज से भी रहित हो गया। इसके बाद उन्होंने
 रस्सी का बन्धन खोलकर उसे शिविर से निकाल दिया। ।।56।
वपनं द्रविणादानं स्थानान्निर्यापणं तथा
एष हि ब्रह्मबन्धूनां वधो नान्योऽस्ति दैहिकः। ।।57।। 
मूँड देना, धन छीन लेना और स्थान से बाहर निकाल देना ---यही ब्राह्मणधमों का वध है। उनके लिए इससे भिन्न शारीरिक वध का विधान नहीं है। ।।57।।
पुत्रशोकातुराः सर्वे पाण्डवाः सह कृष्णया
स्वानां मृतानां यत्कृत्यं चक्रुर्निर्हरणादिकम्। ।।58।। 
पुत्रों की मृत्यु से द्रौपदी और पाण्डव सभी शोकातुर हो रहे थे। अब उन्होंने अपने मरे हुए भाई बन्धुओं की दाहादि अन्त्येष्टि क्रिया की । ।।58।।
               ।।वन्दे कृष्णम् जगत गुरूम्।। 

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