नारद-व्यास संवाद(प्रसंग 36)
डा. राधे श्याम द्विवेदी
श्रीमद्भागवत कथा : प्रथम स्कन्ध, (छ्ठा अध्याय)
प्रियमित्रों जय श्री कृष्ण! यह अध्याय बहुत ही श्रेष्ठ है । इस अध्याय में व्यास देव जी तथा नारद जी के मध्य अत्यन्त गूढ और रहस्यमयी संवाद हो रहा है। आपसे निवेदन है कि बहुत ध्यान पूर्वक इस अध्याय का रसास्वादन करें।
नारद जी से उनके पूर्व जन्म की कथा आदि सुनकर व्यास जी प्रसन्न हुए और उन्होने नारद जी से पुनः प्रश्न किया, “हे नारद जी, आपने अब तक के वृत्तान्त में बताय कि आप श्रेष्ठ और भगवत प्रेमी भक्त ब्राम्हणों की सेवा सत्कार किया करते थे। उन्होने आपको दीक्षा प्रदान की थी तथा रहस्यमयी उपदेशादि प्रदान किये थे। अब हमे आगे के वृत्तान्त के बारे में बताएं कि उन श्रेष्ठ ब्राम्हणों के चले जाने के बाद आपके जीवन में क्या हुआ? हे देवर्षि यह भी बताने की कृपा करें कि आखिर वह कौन सा कारण है कि आपको आपके पूर्व जन्म का सम्पूर्ण वृत्तान्त याद है। जब कि कहा जाता है कि समय हर वस्तु का संहार करता है।
नारद जी ने कहा : हे व्यास जी उन ब्राम्हणों के चले जाने के उपरान्त मैं उनके मार्गदर्शन पर परमात्मा की भक्ति में लगा रहता था। परन्तु चूंकि मेरी माता भोली भाली थी। दासी थी और मैं उसकी अकेली सन्तान था जिससे उसकी रक्षा का उसकी देखभाल का मेरे सिवा कोई दूसरा साधन नहीं था। अतः मुझे उसकी सेवा सत्कार में रहना पड़ता था।जब कि मेरा मन परमात्मा की भक्ति में लीन रहता था I
नारद जी कहते हैं कि व्यास जी एक दिन मेरी मां गाय दुहने जा रही थी । मेरी मां को सर्प ने दस लिया । जिससे मेरी मां की मृत्यु हो गई। जब मां की मृत्यु हो गई तो मैंने उसे परमात्मा की कृपा और इच्छा जानकर शोक नहीं किया ।बल्कि माता का अन्तिम संस्कार करने के बाद मैं स्वयं परमात्मा की साधना आदि के लिये उत्तर दिशा की ओर चल पड़ा । अनेकों गांवो, नगरों, जंगलों आदि से गुजरता हुआ मैं एक वीरान भयानक जंगल में पहुंच गया तथा वहां एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर मैं आनन्दित भाव से प्रेम पूर्वक परमात्मा श्रीकृष्ण का ध्यान करने लगा। मेरा मन परमात्मा में लीन हो गया। हृदय में परमात्मा प्रकट हुए और मेरी आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी। मुझे अपार आनन्द की अनुभूति हो रही थी। मेरे शरीर का रोम रोम पुलकित होने लगा । आनन्द के सागर में मैं इतना अधिक लीन हो गया कि ना तो मैं परमात्मा के दर्शन कर सका और ना ही मुझे अपना कुछ आभास रहा I
हे व्यास जी, मैंने परमात्मा की जो अनुभूति और दर्शन उस दिन किये उसे पुनः करने के लिये मैंने बहुत बार एकाग्र होकर परमात्मा का ध्यान किया परन्तु मैं दुबारा उसे ना कर सका। परिणामतः मैं बहुत असंन्तुष्ट हो गया और बहुत व्याकुल हो गया।
मेरे प्रयासों से परमात्मा प्रसन्न हुए और मेरे शोक को दूर करने के लिये उन्होने मुझे सुखद वाणी से कहा, “हे नारद जो मनुष्य इस भौतिक जगत के प्रपंच से पूर्णतः मुक्त नहीं हैं उन्हें मेरी प्राप्ति संभव नहीं है।परन्तु मेरे प्रति मनुष्य जितना अधिक लालयित होकर मेरा चिन्तन करता है । उतना ही भौतिक जगत के प्रपंचों से मुक्त हो जाता है। निरन्तर कुछ काल जब मनुष्य दृढता से मेरी भक्ति करता है। तो उसकी बुद्धि मुझमें स्थिर हो जाती है। वह मेरा अनन्य भक्त हो जाता है । उसका जीवन आनन्द और उत्सव हो जाता है । अन्ततः वह भक्त जब इस भौतिक जगत का त्याग करता है तो वह मेरे धाम अर्थात वैकुण्ठ में वास प्राप्त करता है और मेरा पार्षद बनता है। ”
नारद जी ने व्यास जी के बताया कि परमात्मा का निरन्तर अनन्य भाव से चिन्तन करने वाले भक्त कभी परमात्मा से विलग नहीं होते हैं। फ़िर चाहे जन्म बदले अथवा युग भक्त के चित्त में परमात्मा की सुधि नहीं समाप्त होती है। उनके चित्त में सारी स्मृतियां बनी ही रहती हैं I
नारद जी कहते हैं, “व्यास जी, परमात्मा की वाणी सुनने के बाद मैं निरन्तर परमात्मा पवित्र नाम जापने लगा। उनका यशगान करने लगा। उनकी दिव्य लीलाओं का स्मरण और कीर्तन कल्याणप्रद होता है ।अतः उसके प्रभाव से मैं पूर्णतः सन्तुष्ट विनमॄ और ईर्ष्या द्वेष से रहित होकर इस धरती पर विचरण करने लगा। इस प्रकार श्रीकृष्ण के चिन्तन में निमग्न रहने से मैं भौतिक आसक्तियां से पूर्णतः मुक्त हो गया और अन्ततः भगवान के पार्षद के जैसा दिव्य शरीर मुझे प्राप्त हुआ और मैं पंचभौतिक शरीर से मुक्त हो गया। ”
नारद जी कहते हैं कि, “जब कल्प समाप्त हुआ तो भगवान स्वयं जल में समाधिस्थ होने लगे । उस समय ब्रम्हा जी समस्त सृष्टिकारी तत्वों के साथ भगवान के अन्दर प्रवेश करने लगे तो मैं भी उनके साथ परमात्मा के शरीर में उनकी सांस के माध्यम से चला गया। उसके बाद जब पुनः सृष्टि रचने के लिये परमात्मा की इच्छा हुई तो उन्होने अर्थात परमात्मा ने ब्रम्हा जी को उत्पन्न किया तो मैं भी ऋषि गणों के साथ प्रकट हुआ। तभी से मुझ पर परमात्मा की अत्यन्त कृपा है और मैं किसी भी लोक में बिना किसी रोक-टोंक के भृमण करता रहता हूं । वीणा का वादन करता हुआ निरन्तर परमात्मा की दिव्य लीलाओं का कीर्तन किया करता हूं। "
नारद जी ने अपनी आप बीती व्यास जी को सुनाई । जिसका तत्वतः रहस्य यह कहता है कि परमात्मा की कृपा के बिना परमात्मा की भक्ति और मुक्ति संभव नहीं है। परमात्मा की कृपा प्राप्त करने के लिये सर्वप्रथम परमात्मा के प्रेमी भक्तों की सेवा अर्थात कृपा की आवश्यकता है। और उनके बताए मार्ग पर चलकर परमात्मा की लीलाओ का कीर्तन आदि करने से परमात्मा के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है। जिसके परिणामतः मनुष्य भक्ति के मार्ग पर चल पड़ता है। हां इस मार्ग में ज्ञान सबसे बड़ी बाधा है क्यों कि पूर्ण समर्पण घटने के लिये भक्ति और श्रद्धा की आवश्यकता है ना कि ज्ञान की। क्यों कि ज्ञान मनुष्य को समर्पित नहीं होने देता वह सिर्फ़ तर्क उत्पन्न करता है, जब कि भक्त निरन्तर परमात्मा के सच्चिदानन्द स्वरूप में स्थित रहता है I
नारद जी ने व्यास जी से पुनः कहना आरम्भ किया, “हे व्यास जी ये मेरा निजी अनुभव है जिसे मैंने आपके सम्मुख वर्णन किया। मनुष्य भौतिकता में फ़ंसकर निरन्तर चिन्तातुर रहता है और कष्टों का भोग करता रहता है । जब कि यदि वह भगवान की भक्ति करे उनकी दिव्य लीलाओं का चिन्तन और कीर्तन करे तो उसके जीवन में आनन्द का प्रवाह हो जायेगा I व्यास जी यम - नियम आदि की जो योग पद्धति है उसके अभ्यासं द्वारा मनुष्य को भौतिक जगत के काम, क्रोध, लोभ आदि से राहत मिल जाती है। परन्तु व्यास जी इस सब से मनुष्य को आत्मसंन्तुष्टि नहीं प्राप्त हो सकती।
नारद जी कहने का तात्पर्य यह है कि योगाभ्यास, ध्यान धारणा समाधी आदि के द्वारा इन्द्रिय संयम किया जा सकता है। इन्द्रियां भौतिक जगत के मनुष्यों के दुखों का मुख्य कारण हैं। और इन्द्रियों के संयम में यह आध्यात्मिक योग पद्धति अत्यन्त प्रभावशाली तो है परन्तु यह पद्धति अंततः है हठ योग ही निरन्तर हठता पूर्बक किये अभ्यासं से इन्द्रियों का संयम संभव तो है परन्तु यह मार्ग कार्ता का भाव प्रदान करता है। इन्द्रियां मनुष्य के शरीर के संग हैं उनका स्वभाव है अपने लिये भोग की मांग करना।योगादि के द्वारा मनुष्य हठ पूर्वक इन्द्रियों को संयमित कर तो लेता है परन्तु ज्यों ही इन्द्रियों के भोग का कोई अवसर आता है । इन्द्रियां पुनः जाग्रत हो जाती हैं और भोगातुर हो जाती है । ऐसे कई वत्तांन्त हैं जैसे विश्वामित्र जैसे ऋषी का मेनका में आसक्त हो जाना। अतः योगादि की पद्धति एक शुष्क पद्धति है।
योगादि की पद्धति शुष्क पद्धति है। भगवत भक्ति के बिना यह योगादि पद्धति कभी सफ़ल नहीं हो सकती है।ना ही शुष्क चिन्तन ही सफ़ल हो सकता है। परमात्मा को पूर्ण समर्पित भाव से श्रद्धा पूर्वक उनकी लीलाओं का कीर्तन और चिन्तन उनकी शुद्ध भक्ति प्रदान करता है। तथा योगादि की जो भी पद्धतियां हैं सभी परमात्मा के ही आधीन हैं।
नारद जी ने व्यास जी को श्रीमदभागवत जी की रचना करने का संदेश परमात्मा की इच्छा से ही प्रदान किया और कहा, “हे व्यास देव आप समस्त पापों से मुक्त हैं । जैसे आपने मुझसे पूछा, मैने आपके सम्मुख सब वर्णन किया है। ”
ऐसा कहकर नारद जी वींणा बजाते हुए परमात्मा का कीर्तन करते प्रस्थान कर गये।
सूत जी महाराज जो शौनकादि को कथा श्रवन करा रहे हैं वो बोले, “देवर्षि नारद जी धन्य हैं उन पर परमात्मा की असीम कृपा है।जिसके कारण वह सम्पूर्ण बृम्हांड में परमात्मा की लीलाओं का कीर्तन करते हुए भृमण करते हैं।जिससे समस्त बृम्हांड के जीव अनान्दित होते हैं। ”
प्रिय मित्रों आप और हम, सभी परमशौभाग्यशाली हैं कि श्रीमदभागवत जी के इस महत्वपूर्ण अध्याय का रसपान कर रहे हैं।
।।वन्दे कृष्णम् जगत गुरु।।
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