डा. राधे श्याम द्विवेदी
जब मनुष्य के जन्म-जन्मांतर के पुण्य उदय होतें हैं, तभी उसे इस पवित्र भगवतशास्त्र की प्राप्ति होती है। श्रीमद्भागवत महापुराण में 12 स्कन्ध व अठारह हजार श्लोक तथा श्रीशुकदेव और राजा परीक्षित मुख्यतः तथा कई अन्य ऋषियों मुनियों के संवाद है। आइये इस ज्ञान यज्ञ में शामिल होते है और शुरू करते हैं श्रीमद भागवत की प्रथम स्कंध की कथा का सारांश जो 14 अध्यायों से संकलित की गई है।
1- श्री सूतजी से शौनकादि ऋषियों का प्रश्न
एक बार भगवान विष्णु एवं देवताओं के परम पुण्य क्षेत्र नैमिषारण्य में ,शौनिक आदि ऋषियों ने,श्री सूत जी से कलयुगी जीवो के परम कल्याण का सहज साधन पूछा। श्री सूतजी ने कहा- यह श्रीमद् भागवत अत्यंत गोपनीय रहस्यात्मक पुराण है ।
2-भगवतकथा व भगवद्भक्ति का महत्व
सृष्टि के आदि में भगवान ने लोको के निर्माण की इच्छा की और उन्होंने पुरुष रूप ग्रहण किया।उसमें दस इंद्रियां, एक मन और पांच भूत तथा 16 कलाएं थी। उन्होंने कारण-जल में योगनिद्रा का विस्तार किया। तब उनके नाभि सरोवर में से एक कमल प्रकट हुआ ।उस कमल से प्रजापतियों के अधिपति ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए। भगवान के विराट रूप के अंग प्रत्यंग में ही समस्त लोकों की कल्पना की गई है।भगवान का यह रूप हजारों पैर, जांघे, भुजाएं और मुख, सिर, हाथ के कारण अत्यंत विलक्षण है ।
3-भगवान के अवतारों का वर्णन
भगवान का यही पुरुष रूप है जिसे नारायण कहते हैं।इसी से सारे अवतार प्रकट होते हैं। यहाँ बाईस अवतारों की गणना की गई है। भगवान के चौबीस अवतार प्रसिद्ध है।(दो और हैं- हंस और हयग्रीव।)
पहला व दूसरा अवतार-
उन्हीं प्रभु ने सबसे पहले कुमार सर्ग में-सनक, सनंदन, सनातन और सनत कुमार ,इन चार ब्राह्मणों के रूप में अवतार ग्रहण करके अत्यंत कठिन,अखंड ब्रह्मचर्य का पालन किया है।
दूसरा अवतार रसातल में गई हुई पृथ्वी को निकालने हेतु शूकर रूप में ग्रहण किया है।
तीसरा अवतार देवर्षि नारद के रूप में लिया। व चौथा धर्मपत्नी मूर्ति के गर्भ से नर नारायण के रूप में लिया।
पांचवा अवतार सिद्ध स्वामी कपिल के रूप में लेकर सांख्य शास्त्र का उपदेश आसुरी नामक ब्राह्मण को दिया।
छठवां अवतार अनुसुइया-अत्रि की संतान दत्तात्रेय के रूप में लेकर अनार्क, प्रहलाद को ब्रह्म ज्ञान का उपदेश दिया ।
रुचि प्रजापति-आकूति से यज्ञरूप में 7वां अवतार लेकर अपने पुत्र याम आदि देवताओं के साथ स्वयंभू मन्वंतर की रक्षा की।
आठवां अवतार राजा नाभि की पत्नी मेरू देवी के गर्भ से ऋषभदेव के रूप में लिया। तथा परमहंसो का आश्रमियों के लिए वंदनीय मार्ग दिखलाया।
नवा अवतार राजा पृथु के रूप में लेकर समस्त औषधियों का दोहन किया ।
दसवें अवतार में मत्स्य रूप लेकर चार मन्वंतर के अंत में समुद्र में डूब रही सारी त्रिलोकी को पृथ्वी रूपी नौका में बिठाकर अगले मन्वंतर के अधिपति वैवस्वत मनु की रक्षा की।
समुद्र मंथन के समय ग्यारवाँ कच्छप(कछुआ) अवतार लेकर मंदराचल को अपनी पीठ पर धारण किया था ।
12वीं बार धनवंतरी के रूप में अमृत कलश लेकर समुद्र से प्रकट हुए थे।
तेरहवीं बार मोहिनी का रूप धारण कर देवताओं को अमृत पिलाया।
चौदहवीं बार नरसिंह रूप लेकर तथा हिरण्यकश्यप का वध किया।
15वीं बार वामन रूप धारण किया तथा दैत्यराज बली के यज्ञ में पहुंचकर केवल तीन पग पृथ्वी मांगी।
सोलहवीं बार परशुराम अवतार लिया और पृथ्वी को 21 बार क्षत्रियों से शून्य कर दिया ।
सत्रहवीं बार सत्यवती-पाराशर जी के द्वारा व्यास रूप में जन्म लेकर वेदों की कई शाखाएं बनाई।
18वीं बार देवताओं की कार्य सिद्धि हेतु राजा के रूप में राम अवतार ग्रहण किया।
19वें व 20वें अवतार में बलराम व श्री कृष्ण बनकर पृथ्वी का भार उतारा था।
कलियुग आने पर 21वीं बार अर्जन के पुत्र के रूप में बुद्ध अवतार लिया ।
कलयुग के अंत में 22वीं बार विष्णु यश नामक ब्राह्मण के घर कल्कि रूप में अवतार लेंगे।
4- महर्षि व्यास का असंतोष
सूत जी कहते हैं-कि इस वर्तमान चतुर्युग के तीसरे युग द्वापर में महर्षि पाराशर द्वारा वसु कन्या सत्यवती के गर्भ से भगवान के अवतार व्यास जी का जन्म हुआ।उन्होंने लोगों के उद्धार हेतु एक ही वेद के चार विभाग कर दिए । ताकि सभी उसे ग्रहण कर सकें। किंतु इतने पर भी उन्हें संतोष नहीं हुआ।तब नारद जी ने अपना पूर्व चरित्र बताया।
5-देवर्षि नारद का पूर्व चरित्र
नारद जी कहते हैं- कि मैं पूर्व जन्म में वेदवादी ब्राह्मणों की दासी का पुत्र था।मैं बाल्यकाल से ही शांत व सरल था तथा ब्राह्मणों की सेवा करता था । एक बार जब वे ब्राम्हण चतुर्मास्य कर रहे थे तब उनकी अनुमति से उनका जूठा खा लिया करता था । जिससे मेरे सारे पाप धुल गए व सत्संगति से श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम उत्पन्न हो गया। रजोगुण तमोगुण का नाश करने वाली भक्ति का उदय हो गया जिसे जान लेने पर परम पद की प्राप्ति हो जाती है।अतः आप भगवान की कीर्ति व प्रेममयी लीलाओं (कथा श्रीमद भागवत की) का वर्णन करें।
6- नारदजी का पश्चात चरित्र
नारद जी ने कहा – जब मुझे उपदेश देने वाले महात्मा चले गए तो मैं अपनी माता के साथ ही रहा करता था जो स्वयं एक दासी थी। एक दिन सर्प के काटने से माता की मृत्यु हो गई और मैं अकेला हो गया। मैं अकेला ही उत्तर दिशा की ओर चल पड़ा तथा एक पीपल वृक्ष के नीचे बैठकर भगवान का ध्यान करने लगा। एक दिन परमात्मा ने मुझे दर्शन दिए और विलुप्त हो गए। मैं भगवान को ढूंढता रहा। तब भगवान ने कहा इस जन्म में मुझे तुम प्राप्त नहीं कर सकोगे। संत सेवा से तुम्हारी बुद्धि मुझसे स्थिर हो गई है। अतः इस शरीर को छोड़कर तुम मेरे पार्षद होगे।
7- नारदजी का पुनर्जन्म
समस्त सृष्टि का नाश हो जाने पर भी तुम्हें मेरे स्मृति बनी रहेगी। कुछ समय बाद अपने समय पर मेरी मृत्यु हो गई। कल्प के अंत में ब्रह्मा जी के निद्रामग्न होने के समय में उनके हृदय में प्रवेश कर गया। फिर एक सहस्त्र चतुर्युगी बीत जाने पर, जब ब्रह्मा जी जागे और सृष्टि की रचना की। तब उनकी इंद्रियों से मरीचि आदि ऋषियों के साथ मैं भी प्रकट हो गया। तभी से मैं भगवान की कृपा से तीनों लोकों में भगवत भजन कर विचरण करता हूं। ऐसा कह नारदजी चले गए।
8- कथा श्रीमद भागवत की रचना
व्यासजी ने अपने आश्रम में ब्रह्मनदी सरस्वती के पश्चिमतट पर सम्प्रास स्थान में श्रीमद भागवत की कथा की रचनाकी।
जिसका अध्ययन स्वयं भगवान वेदव्यास जी के पुत्र श्री सुखदेव जी ने किया।
9- अश्वत्थामा द्वारा द्रौपदी पुत्रों का वध
इसके पश्चात श्री सूतजी ने राजा परीक्षित के जन्म, कर्म व मोक्ष तथा पांडवों के स्वर्गारोहण की कथा बताई। महाभारत युद्ध के समय दोनों पक्षों के बहुत से वीर वीरगति को पा चुके थे। अश्वत्थामा ने द्रोपदी के सोते हुए पुत्रों के सिर काट दिए थे।
10- अर्जुन द्वारा अश्वस्थामा का मान मर्दन
द्रौपदी का विलाप सुनकर अर्जुन ने अश्वत्थामा की मृत्यु की प्रतिज्ञा ली और अश्वत्थामा के पीछे दौड़े। तब अश्वत्थामा ने मृत्यु सन्मुख देखकर ब्रह्मास्त्र चलाया। जिसके बचाव हेतु श्री कृष्ण की आज्ञा से अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र चलाया। बाद में सबका अहित रोकने हेतु श्री कृष्ण की आज्ञा से उन ब्रह्मास्त्रों को अर्जुन ने वापस लौटा दियाथा।
अश्वत्थामा ब्रह्मास्त्र को वापस लेना नहीं जानता था। फिर अश्वत्थामा को रस्सी से बांध,अर्जुन द्रौपदी के सम्मुख ले गए। तब द्रोपदी ने दयावश गुरु पुत्र को क्षमा कर दिया। श्रीकृष्ण की आज्ञासे अर्जुन द्वारा अश्वत्थामा के मस्तक से कौस्तुभ मणि निकालकर,सिर मुंडा कर उसे छोड़ दिया।
11- गर्भ में परीक्षित की रक्षा
तत्पश्चात पांडवों ने श्री कृष्ण के साथ सभी मृतकों का गंगा तट पर तर्पण किया। युधिष्ठिर को कौरवों द्वारा छीना गया राज्य वापस दिलाकर, तीन अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न करवाया।तथा उनका यश इंद्र की तरह सब ओर फैलाकर सात्यकी व उद्धव के साथ द्वारका जाने के लिए रथ पर सवार हुए। तभी उन्होंने देखा कि उत्तरा भयभीत होकर उनकी ओर दौड़ी आ रही है ।
उत्तरा ने कहा – मेरी रक्षा कीजिए! प्रभु, इस लोहे के बाण से मेरे गर्भ की रक्षा कीजिए ! श्री कृष्ण जान गए कि अश्वत्थामा ने पांडवों के वंश को निर्बीज करने हेतु ब्रह्मास्त्र चलाया है ।
उन्होंने देखा कि पांच बाण पांडवों की ओर भी आ रहे हैं।तब श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र चलाकर पांडवों की रक्षा की व अपनी माया के कवच से उत्तरा के गर्भ की ब्रह्मास्त्र से रक्षा की।
12- कुंती द्वारा भगवान की स्तुति व युधिष्ठिर का स्तुति, तत्पश्चात कुंती ने अति मधुर शब्दों में भगवान की स्तुति की और उन्हें जाने से रोका। युधिष्ठिर शोकातुर हो रोने लगे। तब श्री कृष्ण कुछ दिन हस्तिनापुर में और रुक गए। युधिष्ठिर ने धर्म का ज्ञान प्राप्त करने हेतु सभी भाइयों, ब्राम्हणों व श्रीकृष्ण के साथ कुरुक्षेत्र की यात्रा की ।
13- भीष्म पितामह का युधिष्ठिर को उपदेश व प्राणत्याग
युदिष्ठिर शरशय्या पर पड़े हुए भीष्म पितामह से मिले। जहां भीष्म पितामह ने पांडवों को विभिन्न शिक्षायें दीं। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष तथा विविध धर्म, दानधर्म, राजधर्म, मोक्षधर्म, स्त्रीधर्म, भगवतधर्म आदि का उपदेश दिया तथा उत्तरायण का समय आते ही, श्रीकृष्ण में अपना ध्यान लगाकर उनकी स्तुति करते हुए अनंतब्रह्म में लीन हो गए।भगवान श्री कृष्ण के साथ वापस आकर युधिष्ठिर अपने वंश परंपरागत साम्राज्य का धर्म पूर्वक शासन करने लगे।
14- श्रीकृष्ण का द्वारका गमन
भीष्म पितामह और भगवान श्री कृष्ण के उपदेशों से ज्ञान का उदय होकर राजा युधिष्ठिर की सारी भ्रान्ति मिट गई। वह समुद्र पर्यंत सारी पृथ्वी का इंद्र के समान शासन करने लगे। कई महीने तक भगवान अपनी बहन सुभद्रा की प्रसन्नता के लिए हस्तिनापुर में ही रहे। जब उन्होंने युधिष्ठिर से द्वारका जाने की अनुमति मांगी तो उन्होंने स्वीकृति दे दी।उस समय सुभद्रा, द्रौपदी, कुंती, उत्तरा, गांधारी व सभी पांडव मूर्छित हो गए ।भगवान ने बहुत आग्रह से उनसे विदा ली और द्वारका की ओर चल दिये।
ओउम् हरिः ओउम् तत्सत्।
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