डा. राधे श्याम द्विवेदी
संन्यासी जो ज्ञान की परम अवस्था को प्राप्त कर चुका हो परमहंस कहलाता है। श्रीमद् भागवत कथा का वक्ता परम हंस जैसा ज्ञान की परम अवस्था को प्राप्त हुआ होना चाहिए। उसमे सद्गुरु के लक्षण और योग्यता होनी चाहिए। सद्गुरु का स्थान सर्वोपरि होता है वह अज्ञान के अंधकार से निकालकर ज्ञान के प्रकाश में लाता है। वह संसार के प्रपंच से निकालकर भगवत प्राप्ति कराता है। गुरु-शिष्य का संबंध अन्योनाश्रय होता है। शिष्य कोई अपराध करे तो गुरु को भोगना पड़ता है और गुरु कोई अपराध करे तो उसका फल शिष्यों को भोगना पड़ता है। भागवत में 24 गुरुओं का वर्णन है। भगवान दत्तात्रेय ने 24 गुरु बनाए। वे कहते थे कि जिस किसी से भी जितना सीखने को मिले, हमें अवश्य ही उन्हें सीखने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए। उनके 24 गुरुओं में कबूतर, पृथ्वी, सूर्य, पिंगला, वायु, मृग, समुद्र, पतंगा, हाथी, आकाश, जल, मधुमक्खी, मछली, बालक, कुरर पक्षी, अग्नि, चंद्रमा, कुमारी कन्या, सर्प, तीर (बाण) बनाने वाला, मकडी़, भृंगी, अजगर और भौंरा (भ्रमर) हैं। शुकदेव जी कहते हैं कि हे राजन दतात्रेय महाराज ने 24 गुरु बनाए जिनमें पृथ्वी को गुरु बनाकर उससे सीखा की एक संत को पृथ्वी की तरह क्षमावान आचरण शील होना चाहिए। जल से सीखा कि संत को हर समय विचरण करते रहना चहिए। मधुमक्खी से सीखा कभी संग्रह नहीं करना चाहिए।
ये सब बताने के बाद शुकदेवजी ने राजा परीक्षित से पूछा कि राजन क्या आप मरोगे तो राजा परीक्षित कहते हे कि प्रभु जब मैंने जन्म ही नहीं लिया तो मृत्यु कैसी। ये तो शरीर का काम है।आत्मा तो अजर अमर है। भगवान के नाम के बिना जीव की गति मुक्ति नहीं हो सकती है। इसलिए ठाकुर जी का स्मरण करते रहे।
आज का मनुष्य बाहर के शत्रुओं से कम, अपने भीतर के दुश्मनों से ज्यादा जूझ रहा है। हर मनुष्य के भीतर अनास्था का कंस और अविश्वास का दुर्योधन उठ खड़ा हुआ है। ' बिनाशाय च दुष्कृताम् के संदेश को कार्यान्वित करने के लिए 'संभवामि युगे-युगे' की प्रतीक्षा है। कृष्ण अपने पूरे अवतार में कहीं योगी दिखाई देते हैं, तो कहीं रसिक, कूटनीतिज्ञ या चमत्कारी। कहीं कृष्ण अपनी मर्यादा भूलकर भीष्म के सामने शस्त्र उठाते हैं, तो कहीं भक्त की पुकार पर द्रौपदी की चीर भी बचाते हैं। इस प्रकार मानव जीवन की हर घटना कृष्ण के जीवन से जुड़ी नजर आती है। श्रीकृष्ण ने साधुओं की रक्षा, दुष्टों के विनाश और धर्म की स्थापना की।
श्रीमद्भागवत कथा भागवत रस का सागर है इसके कर्ता, वक्ता, श्रोता आदि सभी अमलातमा परमहंस व भगवान के अवतार हैं। इसलिए इसमें कहीं भी सांसारिक वासना की कल्पना भी नहीं की जा सकती। श्रीमद भागवत महापुराण के 12 खंड, शरीर के 12 अंगो के समान हैं। दशम स्कंध उसकी आत्मा व पांच अध्याय जिसमें दिव्य प्रेम के गूढ़ रहस्यों का उद्घाटन है। वह पांच प्राण के समान हैं।
जब शुकदेव जी कथा सुन रहे थे इसी समय भगवान अमृत लेकर आ गए और कहा कि अमृत पी लीजिए। शुकदेव जी ने कहा कि हम भगवान की कथा का अमृतपान कर रहे हैं इस समय भगवान के अलावा कुछ भी नही सुनेंगे। कथा जीव को दिव्यजीवी बनाता है। भगवान ने एक तरफ पलड़े पर भागवत कथा और दूसरे पलड़े पर सारी सुविधाएं रखी लेकिन भागवत का पलड़ा भारी हो गया।श्रीमद्भागवत उत्तम ग्रंथ है क्योंकि यह भगवान का वांगमय स्वरूप है।भागवत का श्रवण मोक्ष का द्वार प्रशस्त करता है। इस ग्रंथ में वक्ता व श्रोता भी उत्तम हैं। श्रीमद्भागवत कथा के वक्ता व श्रोता के कई युग्म हैं जो भिन्न भिन्न अवसरों पर एकल या सामूहिक रूप में श्रीमद्भागवत कथा का रसपान वक्ता के रूप में अपने प्रिय श्रोता को कराये हैं।
१.
शुकदेव जी उत्तम वक्ता हैं और राजा परीक्षित उत्तम श्रोता हैं। श्रृंगी ने परीक्षित को सातवें दिन सांप काटने से मृत्यु का शाप दे दिया था । इसके बाद राजा परीक्षित व्यासपुत्र शुकदेव मुनि के पास पहुंचे और उन्हें भागवत कथा सुनाने के लिए कहा। शुकदेवजी ने परीक्षित को सात दिन भागवत-कथा सुनाई। कहा जाता है कि तभी से भागवत सप्ताह सुनने की परंपरा प्रारंभ हुई थी।
२.
एक बार ब्रह्मा जी ने श्रीमद्भागवत कथा नारद जी को सुनाया था।
३.
बादमें सनक ऋषि ने भी नारद जी को यह कथा सुनाया था।
४.
श्रीमद्भागवत कथा शुकदेव जी ने सूत जी को कथा सुनाया था।
५.
नैमिषारण्य नामक वन में श्री सूत जी महाराज हमेशा श्री सौनकादि अट्ठासी हजार ऋषियों को पुराणों और की श्रीमद् भागवत की कथा सुनाते थे।।
६.
गोकर्ण जी ने श्रीमद्भागवत कथा का आयोजन किया था जिसे सुनने के लिए धुंधकारी की प्रेत आत्मा भी एक बांस में बैठ गया था। सात दिन में बांस की सातों गांठ फट गई और उसमें से एक दिव्य पुरुष निकला ।
श्रीमद्भागवत में श्रोता दो प्रकार के माने गये हैं—प्रवर (उत्तम) तथा अवर (अधम) । प्रवर श्रोताओं के ‘चातक’, हंस’, ‘शुक’ और ‘मीन’ आदि कई भेद हैं। अवर के भी ‘वृक’, ‘भूरुण्ड’, ‘वृष’ और ‘उष्ट्र’ आदि अनेकों भेद बतलाये गये हैं । ‘चातक’ कहते हैं पपीहे हो। वह जैसे बादल से बरसते हुए जल में ही स्पृहा रखता है, दूसरे जल को छूता ही नहीं—उसी प्रकार जो श्रोता सब कुछ छोड़कर केवल श्रीकृष्ण सम्बन्धी शास्त्रों के श्रवण का व्रत ले लेता है, वह ‘चातक’ कहा गया है । जैसे हंस दूध के साथ मिलकर एक हुए जल से निर्मल दूध ग्रहण कर लेता और पानी को छोड़ देता है, उसी प्रकार जो श्रोता अनेकों शास्त्रों का श्रवण करके भी उनमें से सार भाग अलग करके ग्रहण करता है, उसे ‘हंस’ कहते हैं । जिस प्रकार भलीभाँति पढ़ाया हुआ तोता अपनी मधुर वाणी से शिक्षक को तथा पास आने वाले दूसरे लोगों को भी प्रसन्न करता है, उसी प्रकार जो श्रोता कथा वाचक व्यास के मुँह से उपदेश सुनकर उसे सुन्दर और परिमित वाणी में पुनः सुना देता और व्यास एवं अन्याय श्रोताओं को अत्यन्त आनन्दित करता है, वह ‘शुक’ कहलाता है ।
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