देवी सीता मिथिला के राजा जनक की ज्येष्ठ पुत्री थीं। इसलिए इन्हें ‘जानकी, जनकात्मजा, जनकसुता, वैदेही भी कहा जाता है। राजा जनक को खेत में हल जोतते समय माता सीता मिली थी। माता सुनयना ने मातृत्व को स्वीकार कर पालन किया। भूमी से उत्पन्न होने के कारण ही ‘भूमिपुत्री’ या ‘भूसुता’ कहा जाता है। मिथिला की राजकुमारी होने से ‘मैथिली’ नाम से प्रसिद्ध है।
मार्गशीर्ष (अगहन) मास की शुक्लपक्ष की पंचमी तिथि में भगवान श्रीरामचन्द्र तथा जनकपुत्री माता जानकी (सीता) का विवाह हुआ था, तभी से इस पंचमी को ‘विवाह पंचमी पर्व’ के रूप में भी मनाया जाता है। कहा जाता है कि विवाह के समय ब्रह्मर्षि वशिष्ठ एवं राजर्षि विश्वामित्र उपस्थित थे। कहा जाता है कि उनका विवाह देखने को स्वयं ब्रह्मा, विष्णु एवं रूद्र ब्राह्मणों के वेश में आए थे। दूसरी ओर सभी देवी और देवता भी विभिन्न वेश में उपस्थित थे। विवाह का मंत्रोच्चार चल रहा था और उसी बीच कन्या के भाई द्वारा की जाने वाली रस्म की बारी आई। इस रस्म में कन्या का भाई कन्या के आगे-आगे चलते हुए लावे का छिड़काव करता है। विवाह करवाने वाले पुरोहित ने जब इस प्रथा के लिए कन्या के भाई को बुलाने के लिए कहा तो वहां समस्या खड़ी हो गई, क्योंकि उस समय तक जनक का कोई पुत्र नहीं था। ऐसे में सभी एक दूसरे से विचार करने लगे। इसके चलते विवाह में विलंब होने लगा।
वाल्मीकी रामायण, श्रीरामचरितमानस आदि प्रसिद्ध ग्रंथों में सीताजी के किसी भी भाई का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता, किंतु कई ग्रंथों में सीताजी के भाई का परिचय प्राप्त होता है।
श्रीरामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास ने 'जानकी मंगल' में मंगल और देवी सीता के बीच भाई-बहन के स्नेह के एक दुर्लभ दृश्य के संकेत दिए गए हैं। जानकी मंगल के अनुसार, देवी सीता की शादी के वक्त जब लावा परसाई रस्म का समय आया तो शादी करा रहे ऋृषिवर ने दुल्हन के भाई को बुलाया।
अपनी पुत्री के विवाह में इस प्रकार विलम्ब होता देखकर पृथ्वी माता भी दुखी हो गयी। तभी अकस्मात एक रक्तवर्ण का युवक उठा और इस रस्म को पूरा करने के लिए आकर खड़ा हो गया और कहने लगा कि मैं हूँ इनका भाई। दरअसल, वह और कोई नहीं बल्कि स्वयं मंगलदेव थे जो वेश बदलकर नवग्रहों सहित श्रीरामचन्द्र और सीता का विवाह देखने हेतु वहां उपस्थित हुए थे। चूंकि माता सीता का जन्म पृथ्वी से हुआ और मंगल भी पृथ्वी के पुत्र थे। इसी सम्बन्ध से मंगलदेव माता सीता के भाई भी लगते थे। इसी कारण पृथ्वी माता के संकेत से वे इस विधि को पूर्ण करने के लिए आगे आए।
अनजान व्यक्ति को इस रस्म को निभाने को आता देख कर राजा जनक दुविधा में पड़ गए। जिस व्यक्ति के कुल, गोत्र एवं परिवार का कुछ आता पता ना हो उसे वे कैसे अपनी पुत्री के भाई के रूप में स्वीकार कर सकते थे। उन्होंने मंगल से उनका परिचय, कुल एवं गोत्र पूछा।
राजा जनक के आपत्ति लिए जाने के बाद मंगलदेव ने कहा, ‘हे राजन! मैं अकारण ही आपकी पुत्री के भाई का कर्तव्य पूर्ण करने को नहीं उठा हूं। मैं इस कार्य के सर्वथा योग्य हूं। अगर आपको कोई शंका हो तो आप महर्षि वशिष्ठ एवं विश्वामित्र से इस विषय में पूछ सकते हैं।’
एसी वाणी सुनकर राजा जनक ने महर्षि वशिष्ठ एवं विश्वामित्र से इस बारे में पूछा। दोनों ही ऋषि इस रहस्य को जानते थे अतः उन्होंने इसकी आज्ञा दे दी।
मंगल देव अपनी बहन सिया के हाथों में लाजा भर रहे हैं, सीताजी के कर कमलों से ही श्रीराम के भी कर कमल लगे हैं। ऋषिवर के मुख से उच्चारित इस मंत्र के उद्घोष के मध्य सीताजी अपने भाई मंगल द्वारा तीन बार प्रदत्त लाजा का पति श्रीरामचन्द्र संग अग्नि में होम कर रही हैं।
ॐ अर्यमणं देवं। ॐ इयं नायुर्पब्रूते लाजा।
ॐ इमांल्लाजानावपाम्यग्न।
(पार०गृ०सू० १ /६ /२)
इस प्रकार सभी की आज्ञा पाकर मंगलदेव ने माता सीता के भाई के रूप में सारी रस्में निभाई। जिसका वर्णन गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने ग्रन्थ जानकी मंगल में इस प्रकार किया है।
सिय भ्राता के समय भोम तहं आयउ।
दुरीदुरा करि नेगु सुनात जनायउ॥
(जानकी मंगल १४८)
जानकी मंगल में बताया गया है कि इस रस्म को मंगल द्वारा पूरा किया गया था। बताया जाता है कि मंगल यहां मां पृथ्वी के आदेश पर वेष बदलकर पहुंचे थे। गौरतलब है कि आज तक शादी में होने वाली लावा परसाई रस्म को दुल्हन का भाई ही पूरी करता है। अगर किसी को अपना भाई नहीं होता है तो दूर के भाई इस रस्म को पूरा करता है। इस तरह मंगल हमारे मामा हुए।
सीताजी यह भाई हैं: इसके अतिरिक्त जैन रामायण में सती सीता महाराज जनक की पुत्री थी | माता का नाम पृथ्वी और भाई का नाम भामंडल था |
भगवान रामचन्द्र और माता सीताजी का विधिवत विवाह संस्कार हुआ एवं साथ में देवी उर्मिला- श्रीलक्ष्मणजी, देवी मांडवी- श्रीभरतजी एवं देवी श्रुतकीर्ति का विवाह श्रीशत्रुघ्नजी से विवाह संस्कार सम्पन्न हुआ।
No comments:
Post a Comment