Tuesday, December 22, 2020

ब्रज में सखी बनने की प्रक्रिया डा. राधेश्याम द्विवेदी

      स्नातन धर्म के वेष्णव सम्प्रदाय में सखी उप सम्प्रदाय निम्बार्क-मतकी एक अवान्तर शाखा है। इस सम्प्रदाय के संस्थापक स्वामी हरिदास थे। हरिदास जी पहले निम्बार्क-मत के अनुयायी थे। इसे हरिदासी सम्प्रदाय भी कहते हैं। इसमें भक्त अपने आपको श्रीकृष्ण की सखी मानकर उसकी उपासना तथा सेवा करते हैं और प्रायः स्त्रियों के भेष में रहकर उन्हीं के आचारों, व्यवहारों आदि का पालन करते हैं। सखी संप्रदाय के साधु विषेश रूप से भारत वर्ष में उत्तर प्रदेश के ब्रजक्षेत्र वृन्दावन, मथुरा, गोवर्धन में निवास करते हैं। कालान्तर में भगवद्धक्ति के गोपीभाव को उन्नत और उपयुक्त साधन मानकर उन्होंने इस स्वतन्त्र सम्प्रदाय की स्थापना की। हरिदास का जन्म समय भाद्रपद अष्टमी, सं0 1441 है। ये स्वभावत विरक्त और भावुक थें। सखी-सम्प्रदाय के अन्तर्गत वेदान्त के किसी विशेष वाद या विचार धारा का प्रतिपादन नहीं हुआ, वरन् सगुण कृष्ण की सखी-भावना से उपासना करना ही उनकी साधना का एक मात्र ध्येय और लक्ष्य है। इसे भक्ति-सम्प्रदाय का एक साधन मार्ग कहना अधिक उपयुक्त होगा।

स्वामी हरिदास जी के द्वारा निकुंजोपासना के रूप में श्यामा-कुंजबिहारी की उपासना-सेवा की पद्धति विकसित हुई, यह बड़ी विलक्षण है। निकुंजोपासना में जो सखी-भाव है, वह गोपी-भाव नहीं है। निकुंज-उपासक प्रभु से अपने लिए कुछ भी नहीं चाहता, बल्कि उसके समस्त कार्य अपने आराध्य को सुख प्रदान करने हेतु होते हैं। श्री निकुंजविहारी की प्रसन्नता और संतुष्टि उसके लिए सर्वोपरि होती है। यह संप्रदाय जिन भेषा मोरे ठाकुर रीझे सो ही भेष धरूंगी  के आधार पर अपना समस्त जीवन राधा-कृष्ण सरकार को निछावर कर देती है। सखी संप्रदाय के साधु अपने को सोलह सिंगार नख से लेकर चोटी तक अलंकृत करते हैं। सखी संप्रदाय के साधुओं में तिलक लगाने का अलग ही रीति है। सखी संप्रदाय के साधु अपने को सखी के रूप में मानते हैं।

नाभादास जी ने अपने भक्तमाल में कहा है कि- सखी सम्प्रदाय में राधा-कृष्ण की उपासना और आराधना की लीलाओं का अवलोकन साधक सखीभाव से कहता है। सखी सम्प्रदाय में प्रेम की गम्भीरता और निर्मलता दर्शनीय है। स्वामी हरिदास के मत से ज्ञान में भवसागर उतारने की क्षमता नहीं है। प्रेमपूर्वक श्रीकृष्ण की भक्ति से ही मुक्ति मिल सकती है। सखी संप्रदाय किसी वेद-वेदांत के विशेष विचार का या परंपरा का प्रचार नहीं करता बल्कि यह सगुण कृष्ण की उपासना उनकी सखी रूप में करने की विचारधारा को प्रतिपादित करता है। केवल कृष्ण या राम की उपासना ही इस संप्रदाय का उद्देश्य है। इस संप्रदाय के कवियों की रचनाएं ज्ञान की व्यर्थता और प्रेम की महत्ता का प्रतिपादन करती है।

सखीभाव में श्रृंगार की बहुलता होती है। लोग एक पुरुष को स्त्री के वेष में सोलह श्रृंगार कर के कृष्णा की आराधना करते हुए देखते हैं ।पहले हरिदास जी निम्बार्क-मत के अनुयायी थे, किन्तु समय के साथ उनके मन में भागवत की भक्ति से गोपीभाव उत्पन्न हुआ। और वही भाव उन्हें प्रभु की भक्ति का सबसे उपयुक्त भाव लगा, इसलिए उन्होंने एक स्वतंत्र संप्रदाय की स्थापना की। उनके अनुसार, “ किसी भी प्रकार के ज्ञान में जीवन रुपी भवसागर को पार करने की क्षमता नहीं होती, केवल प्रेम ही वो शक्ति है जो इस भवसागर से मुक्ति दे सकती है। इसीलिए हमे अपने अहम(अस्तित्व) को भुला कर प्रभु के प्रेम में डूब कर उनकी स्तुति करनी चाहिए।स्वामी हरिदास के पदों में भी प्रेम को ही प्रधानता दी गयी है। ठाकुरजी को रिझाने के लिए श्रृंगार को अपनाया जाता है।

जिन भेषा मोरे ठाकुर रीझैं, सो ही भेष धरूंगी

ठाकुर जी की पूजा करते हुए यही भाव होता है इन सखियों के मन में। यह सखियाँ भी साधु ही हैं किन्तु अन्य साधुओं के विपरीत यह एक साधारण चोला न ओढ़ कर रंग बिरंगे वस्त्र धारण करतीं हैं। इनके जीवन की सुबह ठाकुर जी के ध्यान से शुरू हो उन्ही के ध्यान पर रात्रि में बदल जाती है। यह अपने पैरों के नख से शीश तक श्रृंगार करतीं हैं और उसका एकमात्र ध्येय है ठाकुर जी को रिझाना। इनके श्रृंगार में विवाहिता की निशानी भी शामिल होती है जैसे सिन्दूर, मंगलसूत्र, पायल, बिछवे और इन सब के अलावा भी लिपस्टिक, साडी- ब्लाउज, काजल, बिंदी आदि भी इनका मुख्य श्रृंगार है। कान्हा को स्वामी और स्वयं को राधा की दासी मानने वाली सखियां उन्हें रिझाने के लिए किसी सुहागिन की तरह ही सोलह श्रृंगार करती हैं। यहाँ तक कि रजस्वला के प्रतीक के रूप में स्वयं को तीन दिवस तक अशुद्ध मानती हैं।

तिलक लगाने का तरीका -

सामान्यतया सभी सम्प्रदायों की पहचान पहले उनके तिलक से होती है, उसके बाद उनके वस्त्रों से। गुरु रामानंदी संप्रदाय के साधु अपने माथे पर लाल तिलक लगाते हैं और कृष्णानन्दी संप्रदाय के साधु सफेद Aतिलक, जो कि राधा नाम की बिंदिया होती है, लगाते हैं और साथ ही तुलसी की माला भी धारण करते हैं।

दीक्षा के बाद ही बनती है सखी -

सखी बनने के लिए एक विशेष प्रक्रिया है जो की आसान नहीं। इस प्रक्रिया के अंतर्गत व्यक्ति पहले साधु ही बनता है, और साधु बनने के लिए गुरु ही माला-झोरी देकर तथा तिलक लगाकर मन्त्र देता है। इस साधु जीवन में जिसके भी मन में सखी भाव उपजा उसे ही गुरु साड़ी और श्रृंगार देकर सखी की दीक्षा देते हैं।

पुरुष साधु द्वारा स़्त्री का रुप-

इस संप्रदाय में कोई स्त्री नहीं, केवल पुरुष साधु ही स्त्री का रूप धारण करके कान्हा को रिझाती हैं। सखी संप्रदाय की भक्ति कोई मनोरंजन नहीं बल्कि इसमें प्रेम की गंभीरता झलकती है, और पुरुषों का यह निर्मल प्रेम इस संप्रदाय को दर्शनीय बनाता है। सखी संप्रदाय की सखियाँ विषेश रूप से भारत वर्ष के उत्तर प्रदेश के ब्रजक्षेत्र वृन्दावन ,मथुरा तथा गोर्बधन में निवास करतीं हैं।

 

 

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