Tuesday, June 11, 2019

ग्रामदेवता की शास्त्र सम्मत पूजा डा. राधेश्याम द्विवेदी

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 सनातनी हिन्दू जन ब्रह्मा, विष्णु, महेश और ऋषि मुनियोंकी संतानें हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश के पुत्रों और पुत्रियों से ही देव (सुर), दैत्य (असुर), दानव, राक्षस, गंधर्व, यक्ष, किन्नर, वानर, नाग, चारण, निषाद, मातंग, रीछ, भल्ल, किरात, अप्सरा, विद्याधर, सिद्ध, निशाचर, वीर, गुह्यक, कुलदेव, स्थानदेव, ग्राम देवता, पितर, भूत, प्रेत, पिशाच, कूष्मांडा, ब्रह्मराक्षस, वैताल, भैरव, क्षेत्रपाल तथा मानव आदि की उत्पत्ति हुई। हिन्दू लेखों के अनुसार, धर्म में तैंतीस प्रकार देवी-देवता बताये गये हैं। संपूर्ण हिन्दू वंश वर्तमान में गोत्र, प्रवर, शाखा, वेद, शर्म, गण, शिखा, पाद, तिलक, छत्र, माला, विभिन्न देवता शिव, विनायक, कुलदेवी, कुलदेवता, इष्टदेवता, राष्ट्रदेवता, गोष्ठ देवता, भूमि देवता, ग्राम देवता, भैरव और यक्ष आदि में विभक्त हो गया है। देवताओं की कुल संख्या 33 कोटि बताई जाती है। इनमें आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, इंद्र और प्रजापति शामिल हैं। वहीं 12 आदित्य - अंशुमान, आर्यमन, इंद्र, त्वष्टा, धातु, पर्जन्य, पूषा, भग, मित्र, वरुण, वैवस्त और विष्णु हैं। 8 वसुओं में - आप, धुव्र, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभाष शामिल हैं। इसके अलावा 11 रुद्र हैं जिनमें मनु, मन्यु, शिव, महत, ऋतुध्वज, महिनस, उम्रतेरस, काल, वामदेव, भव और धृत ध्वज शामिल हैं। 2 अश्विनी - अश्विनी तथा कुमार। इस प्रकार 12 आदित्य और 8 वसु और 11 रुद्र और 2 अश्विनी कुमारों को मिलाकर 33 केटि देवी-देवता कहे जाते हैं।                                          
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लोकदेवता के रूप में अष्ट लोकपाल
लोकदेवता के रूप में अष्ट लोकपालों की विशेष मान्यता है। इनमें अधिकांश वैदिक देवता है जो पौराणिक युग में अपना पूर्व महत्व खोकर अष्टदिक्पालों की कोटि में आ गए। फिर भी इनका महत्व निरंतर बना रहा। ये बौद्ध तथा जैन देवपरिवार में भी मान्यताप्राप्त हुए। पुराणानुसार दसों दिशाओं का पालन करनेवाला देवता दिक्पाल होता है। यथा-पूर्व के इन्द्र, अग्निकोण के वह्रि, दक्षिण के यम, नैऋत्यकोण के नैऋत, पश्चिम के वरूण, वायु कोण के मरूत्, उत्तर के कुबेर, ईशान कोण के ईश, ऊर्ध्व दिशा के ब्रह्मा और अधो दिशा के अनंत। दिक्पाल की संख्या 10 मानी गई है। वाराह पुराण के अनुसार इनकी उत्पत्ति की कथा इस प्रकार है। जिस समय ब्रह्मा सृष्टि करने के विचार में चिंतनरत थे उस समय उनके कान से दस कन्याएँ उत्पन्न हुईं जिनमें मुख्य 6 और 4 गौण थीं (1) पूर्वा, (2) आग्नेयी, (3) दक्षिणा, (4) नैऋती, (5) पश्चिमा (6) वायवी, (7) उत्तरा, (8) ऐशानी, (9) ऊद्ध्व और (10) अध। ब्रह्मा की उन दस कन्याओं ने ब्रह्मा का नमन कर उनसे रहने का स्थान और उपयुक्त पतियों की याचना की। ब्रह्मा ने कहा तुम लोगों का जिस ओर जाने की इच्छा हो जा सकती हो। शीघ्र ही तुम लोगों को अनुरूप पति भी दूँगा।
इसके अनुसार उन कन्याओं ने एक एक दिशा की ओर प्रस्थान किया। इसके पश्चात् ब्रह्मा ने आठ दिग्पालों की सृष्टि की और अपनी कन्याओं को बुलाकर प्रत्येक लोकपाल को एक एक कन्या प्रदान कर दी। इसके बाद वे सभी लोकपाल उन कन्याओं में दिशाओं के साथ अपनी दिशाओं में चले गए। इन दिग्पालों के नाम पुराणों में दिशाओं के क्रम से निम्नांकित है:-(1) पूर्व के इंद्र, (2) दक्षिणपूर्व के अग्नि, (3) दक्षिण के यम, (4) दक्षिण पश्चिम के सूर्य, (5) पश्चिम के वरुण, (6) पश्चिमोत्तर के वायु, (7) उत्तर के कुबेर और (8) उत्तरपूर्व के सोम। शेष दो दिशाओं अर्थात् ऊर्ध्व या आकाश की ओर वे स्वयम् चले गए और नीचे की ओर उन्होंने शेष या अनंत को प्रतिष्ठित किया।
निकटस्थ देवी देवता सुगमः-
ध्यान देने वाली बात यह है कि कई लोक हैं जिनके देवी-देवता अलग-अलग लोक में रहते हैं तथा जिनकी दूरी अलग-अलग है। नजदीकी लोक में रहने वाले देवी-देवता शीघ्र प्रसन्न होते हैं, क्योंकि लगातार ठीक दिशा, समय, साधन का प्रयोग करने से मंत्रों की साइकल्स उस लोक में तथा ईष्टदेव तक पहुंचती है जिससे वे शीघ्र प्रसन्न होते हैं तथा साधक की मनोकामना पूर्ण करते हैं। भूत, प्रेम व ब्रह्म राक्षस इत्यादि हमारे आसपास ही रहते हैं तथा अल्प प्रयास से सिद्ध होते हैं। क्षेत्रपाल तथा भैरव भी हमारे नजदीकी वातावरण में रहते हैं। पितरों का भी एक लोक है तथा सबसे नजदीकी लोक यक्ष व यक्षिणियों का है। थोड़े प्रयास ही इन्हें प्रसन्न किया जा सकता है।
खेत का स्वामी खेतपाल
हिंदू धर्म और हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, खेतपाल, जो कि खेत का स्वामी है, एक देवता है जो मूल रूप से दक्षिण भारत में विशेष रूप से खेत का देवता था। कुछ समय के लिए, क्षत्रपाल एक सामान्य नाम बन गया, जो भूमि के टुकड़े या पार्सल या किसी विशेष क्षेत्र ( संस्कृत में क्षेत्र) से जुड़े देवताओं पर लागू होता है। उनके मंदिरों का निर्माण आम तौर पर शिव को समर्पित मंदिरों के पूर्वोत्तर कोने पर किया जाता है , और उस विशेष अनुष्ठान की प्रभावकारिता सुनिश्चित करने के लिए प्रत्येक अनुष्ठान से पहले उनकी पूजा की जाती है।
भैरव की पूजा
भैरव का अर्थ होता है - भय + रव = भैरव अर्थात् भय से रक्षा करनेवाला। हिन्दुओं के एक देवता हैं जो शिव के रूप हैं। इनकी पूजा भारत और नेपाल में होती है। हिन्दू और जैन दोनों भैरव की पूजा करते हैं। भैरवों की संख्या 64 है।
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ग्रामदेवता
ग्रामीण जनजीवन में प्रकृति की पूजा का प्रचलन था। प्रकृति पुजा में नदी पहीड़ वृक्ष तालाब सरोवर आदि का पूरा का पूरा ध्यान दिया जाता था। इसी क्रम में ग्राम देवी अथवा ग्राम देवताओं की पूजा पद्धति का प्रचलन भी हुआ है। मनुष्य और देवता में अन्योन्याश्रय संबंध रहा है। पहले देवताओं ने मनुष्य को बनाया ,फिर मनुष्य ने देवताओं को मान मनोवल किया। दूसरे शब्दों मे अगर यूं कहे कि मनुष्य देवता के बिना जी नही सकता और देवता का अस्तित्व मनुष्य के बिना शून्य जैसा है। हड़प्पा और मोहन जोदाड़ों की खुदाई इस विश्वास को काफी बल देती है कि प्राचीन काल से उपासना की परंपरा चली आ रही है।
जिस जिस चीज से लोग डरते थे उसको प्रसन्न करने के लिए उसकी पूजा अर्चना शुरू कर देते थे। पहले लोग प्रकृति की पूजा करते थे फिर अपने घरो मे पूजा करने लगे जो कालांतर मे एक गोत्र या कुल की पूजा कहलाती रही । इसी प्रकार  अपने वास स्थान या गांव की सुरक्षा के लिए ,दैविक या भौतिक या प्राकृतिक आपदा जैसे आग ,बाढ़ ,महामारी ,बाहरी आक्रमण आदि से दूर रखने के लिए गांव की सीमा पर ग्राम देवता या कुल देवता की स्थापना की गई। एसा पाया गया है कि  भारत के अधिकांश हिस्सों  में ग्राम देवता स्त्रियाँ होती हैं, जैसे सत्ती माई ,काली माई ,दुरगा माई ,चंडीमाई ,शीतला माई व समय माई आदि। मगर कहीं कहीं पुरुष देवता भी होते हैं ,जैसे भैरो बाबा , बजरंग बली ,ब्रम्हा  शंकर ,नंदी ए जोगीबीर बाबा डीवहारे बाबा आदि ।
किसी समय मे स्थापित होने वाले ये पवित्र स्थान गाव से बाहर या सीमा पर ऐसे निर्जन ,सुनसान खेतों , झाड़ियों या गाछों के बीच हुआ करते जहां कम आबादी के कारण शाम ढलते ही भयानक और रोमहर्षक वातावरण  विभिन्न प्रकार के भूत ,प्रेत ,चुड़ैल ,आदि की दंतकथाओ के विकास और प्रचलन से उत्पन्न भय से  मनुष्यों को निजात दिलाया करते थे। दीपावली के दिन यहां पर दीपक रखे जाने की परम्परा है तो कहीं कहीं लोग वार्षिक पूजा भजन तथा भंडारा तक भी करते है।
पीपल या बरगद की विशाल वृक्षों की शाखाओ से बंधे नए लाल लंगोट ,लाल पीले ,कपड़े या झंडे या त्रिशूल ,सिंदूर पुते पत्थर के आकृति आदि उन्हें आसुरी या पैचासिक प्रवृत्तियों से , प्राकृतिक आपदाओ से ,मनोवैज्ञानिक सुरक्षा प्रदान करता था। उनकी दृढ़ आस्था और विश्वास के प्रतीक ये न्याय के देवता उनके  आपसी और सामाजिक झगड़ों के निबटारे के लिए वास्तव मे न्यायाधीश का कार्य करते । उन्हें अगाध विश्वास था कि अगर कोई बलशाली उसकी संपत्ति हड़पेगा ,उसे बिना कसूर के सताएगा तो ये देवता आततायी को अवश्य दंडित करेंगे ।
इसके अलावा बहुत सारे पवित्र पेड़ों एवं झाड़ों जैसे पीपल ,बरगद केला ,बेल ,शमी ,तुलसी ,आवला  आदि की जानवरो की ,साँपो की पूजा भी वहां होती ,समय समय पर भजन कीर्तन होता ,जिससे उनकी आध्यात्मिक शक्तियां और भी बलवती होती थी। नगर या ग्राम की बाहरी और आंतरिक सुरक्षा के लिए राजे महाराजे ग्राम या नगर देवता की मूर्ति स्थापित कराते थे। उनकी विधिवत पूजा करवाते थे। उस  इलाके के सारे लोग अपने परिवार की सुख शांति के लिए उनकी उपासना करते और बच्चों के जन्म ,मुंडन ,उपनयन ,शादी ब्याह आदि मांगलिक मौको पर सर्व प्रथम उस सर्वाधिक आदरणीय एवं  प्रतिष्ठित स्थान को न्योता जाता ,तदुपरांत वहां  जाकर अपनी अगाध भक्ति , निष्ठा और आस्था का परिचय दिया जाता था। सुहागिने देवता को प्रसन्न करने के लिए एक से एक भक्ति पूर्ण गीत बनाती और बड़ी श्रद्धा व भावुकता से उसे गाती हैं।
आज के हमारे सभ्य समाज में प्रायः बलि प्रथा समाप्त हो गयी है। इसके बाद भी अनेक स्थानो पर लोग मिट्टी के हाथी ,घोड़े या ऐसी ही कुछ प्रतिकात्मक चीजें मन्नत पूरा हो जाने पर चढ़ाते हैं।अलग अलग गावों मे अपनी समुदाय या जाति के आधार पर लोग अपने देवता की स्थापना करते हैं । जो लोगों  के रक्षक ,जनकल्याण कारक  ,और असीम शक्ति पूंज के रूप मे आज भी पूजे जाते हैं। मुंबा देवी किसी जमाने मे मुंबई की ग्राम देवी ही थी । कोलकाता की काली जी की स्थिति भी प्रायः एसी ही है। गोहाटी की कामाख्या आदि ग्राम देवी के साथ सती के रुप में भी पूजी जाती है। पहाड़ो मे भी अनेक देवी देवता है जिन्हें वहां के स्थानीय लोग अपने इलाके का रक्षक मानते हैं,और उनके रुष्ट होने पर भयंकर प्रलय की बात कहते हैं। ,इसका एक ताजा उदाहरण केदारनाथ के प्रलय से जोड़ा जाता है। बहुत से आदिवासी बहुल इलाको मे आज भी लोग अपने इस ग्राम्य देवता की उपासना साल मे एक बार ,ढ़ोल ,मजीरे ,पिपही ,के साथ नाच गाकर बड़े पैमाने पर  उत्सव मना कर करते हैं। प्रकृति मे फैली अपार सकारात्मक ऊर्जा से, प्राण वायु से नवीन चेतना प्राप्त कर अपनी मानवीय जिंदगी को बेहतरीन और सुखमय बनाने का हमारे प्रातः स्मरणीय ऋषिओ ,मुनियो ,पूर्वजों आदि द्वारा दिखाया गया यह आध्यात्म का मार्ग निस्संदेह अद्भुत एवं परम वैज्ञानिक है। सनातन धर्म के छत्तीस कोटि देवी देवताओ मे ये सभी शामिल हैं। लोगों ने अपनी जाति और व्यवसाय के अनुकूल अपने अपने देवता को चित्रित कर पूजा किये जाने का विधान बनाया है। भारत में पूरब से पश्छिम ,उत्तर से दक्छिन तक ही नहीं ,सनातन धर्म के अवशेषों को अपने सीने मे सँजोए विश्व मे जहां जहां भारत वंशी हैं,अपने अपने कुल या ग्राम देवता को अपने से जुदा कर ही नहीं सकते हैं।




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