मानव
के मन में ना
जाने कितनी तरह की इच्छाएं जन्म
लेती रहती हैं और हर व्यक्ति
इसे पूर्ण करने के प्रयास में
जुटा रहता है। जिन इच्छाओं में अपना महत्व या रुतबा दिखाने-बढ़ाने की चाह हो,
वह महत्वाकांक्षा है। अध्यात्म महत्वाकांक्षा को अच्छा नहीं
मानता। आकांक्षा स्थैतिक ऊर्जा के समान है,
जिसमें व्यक्ति अपनी सामान्य-सी इच्छा को
पूर्ण करना चाहता है। वहीं महत्वाकांक्षा गतिज ऊर्जा के समान है,
जो गतिमान होती है। व्यक्ति इसे पूरा करने के लिए कुछ
भी कर सकता है।
उसे सकारात्मकता या नकारात्मकता की
परवाह नहीं होती है। ज्ञान के साथ ही
अज्ञान का अस्तित्व है।
जहां प्रेम है, वहीं घृणा भी होगी। इसी
प्रकार आकांक्षा और महत्वाकांक्षा की
विरोधाभासी स्थितियां भी अस्तित्व में
रहेंगी। वेदों के काल में
आकांक्षा का प्रभाव अधिक
था, लेकिन समय के साथ आकांक्षा
का अस्तित्व घटता गया और महत्वाकांक्षा प्रबल
होती गई।
शाव्दिक
रुप में महत्व दिखाने की महत्वाकांक्षा कहते
हैं। महत्वाकांक्षा का उदय मन
में होता है, तो आकांक्षा का
उद्गम स्थल आत्मा है। यही वजह है कि महत्वाकांक्षा
में स्वहित प्रधान होता है, तो आकांक्षा में
परहित मुख्य होता है। आचार्य विनोबा भावे एक बार जब
आंध्र प्रदेश के गांवों में
भ्रमण कर रहे थे,
तो उन्होंने भूमिहीन लोगों के एक समूह
के लिए जमीन मुहैया कराने की अपील की।
इसके जवाब में एक जमींदार ने
उन्हें एक एकड़ जमीन
देने का प्रस्ताव दिया।
इससे प्रभावित होकर वह गांव-गांव
घूमकर भूमिहीनों के लिए भूमि
का दान करने की अपील करने
लगे और भूदान आंदोलन
की नींव रखी। उन्होंने अपने इस कार्य को
आकांक्षा की संज्ञा दी।
वे महत्वाकांक्षा और आकांक्षा के
बीच स्पष्ट लकीर खींचते हुए कहते हैं कि आकांक्षा का
उद्गम स्थल आत्मा है। आत्मा कभी भी बुरे विचार
का साथ नहीं देती है, इसलिए परोपकार का भाव प्रभावी
होता है। वहीं महत्वाकांक्षा का उदय मन
में होता है। मन में सकारात्मक
के साथ-साथ नकारात्मक विचार भी प्रतिपल जन्म
लेते रहते हैं, इसलिए इसमें स्वहित प्रधान होता है। आकांक्षा और महत्वाकांक्षा दोनों
ही शब्द समान अर्थ का आभास देते
हैं, पर हैं वे
एक दूसरे के विरोधाभासी।
चंद्रगुप्त
के गुरु और महामंत्री चाणक्य
भारत को एक सूत्र
में पिरोने के पुरोधा थे,
उन्होंने स्वयं इसे महत्वाकांक्षा की श्रेणी में
रखा। एक ऐसी महत्वाकांक्षा,
जिसमें व्यक्ति स्वयं के कल्याण के
साथ-साथ दूसरों का कल्याण करता
हुआ प्रतीत होता हो। यह सकारात्मक महत्वाकांक्षा
जरूर है, लेकिन इसे पूरा करने में दूसरों के विचारों का
या दूसरों का भी दमन
हुआ होगा, जो नकारात्मक महत्वाकांक्षा
है। दोनों ही प्रकार की
महत्वाकांक्षा में स्वयं की इच्छापूर्ति की
भावना प्राथमिक होती है। कभी-कभार महत्वाकांक्षा भी आकांक्षा में
परिवर्तित हो जाती है।
यदि हम इतिहास पर
नजर डालें, तो कलिंग युद्ध
के दौरान व्यापक नरसंहार हुआ था, जिसे देखकर सम्राट अशोक का हृदय द्रवित
हो गया था। उन्होंने तत्काल युद्ध विराम की घोषणा कर
दी और अहिंसा का
मार्ग अपना लिया। अहिंसा को प्रचारित करने
के लिए उन्होंने कई सफल प्रयास
किए, जो जन समुदाय
के हित में थे।
आकांक्षा
से आत्मविश्वास पनपता है। पुष्प की अभिलाषा कविता
के जरिये कवि माखनलाल चतुर्वेदी न सिर्फ लोगों
में देशभक्ति का भाव जगाते
हैं, बल्कि आम लोगों को
भी प्रेरित करते हुए कहते हैं-
चाह
नहीं है सुरबाला के
गहनों में गूंथा जाऊं।
चाह
नहीं प्रेमी माला बिंध मैं प्यारी को ललचाऊं।
चाह
नहीं मैं देवों के सिर चढ़
भाग्य पर इठलाऊं।
मुझे
तोड़ लेना वनमाली उस पथ पर
देना तुम फेंक।
मातृभूमि
पर शीश चढ़ाने जिस पथ जायें वीर
अनेक।।.
यदि
आप अपने कर्तव्यों का निर्वहन निस्वार्थ
भाव से करते हैं
या आपके कार्य में परोपकार का भाव छिपा
है, तो यह शुद्ध
आकांक्षा है। एक समय ऐसा
आता है, जब आपकी आकांक्षा
के सामने दूसरों की महत्वाकांक्षा गौण
हो जाती है, क्योंकि इसमें दूसरों की संप्रभुता के
हनन की कोशिश नहीं
होती है। उनकी निजता का सम्मान किया
जाता है। आकांक्षा में अहंकार की प्रवृत्ति नहीं
देखी जाती है। अहंकार का अभाव होने
से व्यक्तित्व में श्रेष्ठता का विकास होता
है।आत्मविश्वास की वृद्धि होती
है। आत्मविश्वास से भरपूर व्यक्ति
सफलता के पथ पर
चल पड़ता है।
अधिक
जिम्मेदारी का बोझ, कम
समय में ज्यादा पाने की इच्छा, समाज
में उपेक्षा, बच्चों को पढ़ाई का
टेंशन, फेल हो जाने या
कम नंबर पाने का डर। ऐसे
कई कारण हैं, जिसके कारण लोग अपनी़ जिम्मेदारियों के बोझ तले
दबकर चिड़चिड़ा और गुस्सेल हो
जाते हैं। कुछ ऐसा ही हाल बुजुर्गो
का भी है। अकेलेपन
का एहसास इस कदर महसूस
होता है कि वह
अवसाद ग्रस्त हो जाते हैं।
महत्वाकांक्षा की चाह में
युवा पीढी अपने बुजुर्गों से दूर होती
जाती है। बुजुर्ग अपनो के लिए तरस
तक जाते हैं वैसे तो वसुदेव कुटुम्बकम
कहा जाता है पर अपने
के लिए मन में आखिरी
वक्त तक इच्छा देखी
जाती है।
कुछ
लोग अवसाद ग्रस्त हो जाते हैं।
आने वाले मरीजों में से ऐसे रोगियों
की संख्या बीस फीसदी होती है। अवसाद कई गंभीर बीमारियों
को भी जन्म देता
है। इसकी वजह से रोगी मधुमेह,
ब्लड प्रेशर, ह्रदय रोग का शिकार हो
जाता है। पारिवारिक टेंशन और रोजगार की
चिंता भी इसकी प्रमुख
वजह है। मरीज को अच्छा वातावरण
दिया जाना चाहिए। उनके सामने तनाव की बात नहीं
करना चाहिए। प्रयास यह होना चाहिए
कि हर व्यक्ति ज्यादा
से ज्यादा खुश रहें।
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