डा. मुनिलाल उपाध्याय सरस जी कृत “बस्ती के छन्दकार”दो खण्डों में प्रकाशित हुआ है। इसके प्रकाशित अंशों के आधार पर बस्ती के साहित्याकाश में अनेक नक्षत्र दिखलाई पड़ते हैं। डा. मुनिलाल उपाध्याय सरसजी लगभग 250 वर्षों का साहित्यिक इतिहास अपने 5 प्रमुख अध्यायों में समेटने का प्रयास किया है। इसमें लगभग एक शतक कवियों का विवरण एकत्रकर प्रस्तुत किया गया है। प्रथम आदिचरण में 14 द्वितीय मध्य चरण में 11 सुकवियों का सपरिचय काव्यात्मक इतिवृत्त प्रस्तुत किया गया है। इसे पीताम्बर लछिराम चरण कहा गया है। केवल आचार्य लछिराम भट्ट का विवरण पूर्व प्रकाशित शोधगंगा नामक एक प्रबन्ध में कुछ शब्दों में व्यक्त मिलता है। एसे में सरस जी ने इन 14 कवियों के बारे में बहुत ही आधार भूत सूचनायें एकत्र कर अपने शोध प्रवंध में तथा उसके अंश स्वरुप दो लघु आकार के पुस्तकों में प्रकाशित कराकर एक प्रकार की अद्भुत मशाल प्रस्तुत किया है। कापियों और डायिरियों के धूल फांकते इन साहित्यकारों के इतिवृत्त को सरस जी ने अमर बना दिया है।
इसी श्रृंखला में लाल
त्रिलोकीनाथ सिंह
भुवनेश का नाम बड़े अदब के साथ लिया जाता है। इनका जन्म बस्ती जिले के हर्रैया तहसील के विक्रमजोत के पास शंकरपुर के निकटस्थ धेनुगंवा गांव में शाक्य वंशीय प्रतिष्ठित ब्राहमण परिवार में 1917 विक्रमी में हुआ था। भारत के आजाद होने के बाद से रजवाड़े और जमींदार खत्म हो गए लेकिन उनकी शान शौकत के गवाह उनके महाल आज भी मौजूद है । अयोध्या में राजा दशरथ के महल के साथ साथ अलग अलग काल के अन्य राजाओं के महल आज भी अयोध्या में अच्छी हालत में मौजूद हैं। जिनमे से एक है राजा दर्शन सिंह का आलिशान वर्तमान राज सदन । महाराजा मान सिंह द्विजदेव के कुल परम्परा में महाराज श्री प्रताप नारायण सिंह राजा ददुआ का नाम आदर के साथ लिया जाता है। उनके महल को राजा ददुआ का महल कहा जाता है जिसका दूसरा नाम राज सदन भी है। इस महल का निर्माण अयोध्या के महाराज श्री प्रताप नारायण सिंह राजा ददुआ ने 1856 में करवाया था । यह महल अयोध्या के श्री हाते इलाके में आज भी अच्छी हालत में स्थित है जिसमे राजा ददुआ के परिवार वाले रहा करते थे।
राज सदनअयोध्या
लाल त्रिलोकीनाथ सिंह भुवनेश जी का सम्बंध अयोध्या के महाराज श्री प्रताप नारायण सिंह ददुवा साहब से बड़ा घनिष्ठ था। वह महाराज के पास ही रहा करते थे। महाराज श्री प्रताप नारायण सिंह ददुवा साहब भी उच्च कोटि के कवि थे। भुवनेशजी का ठाट बाट भी रईसी था। उनके पुत्र लाल रुद्रनाथ सिंह पन्नगेश का जन्म 1947 विक्रमी के भाद्रपद कृष्ण द्वादशी को हुआ था। उस समय महाराज श्री प्रताप नारायण सिंह ददुवा साहब का अपनी पत्नी महारानी श्रीमती जगदम्बा देवी के साथ धेनुगंवा में आगमन हुआ था। इसके चार साल बाद 1951 विक्रमी में इनका निधन हो गया था।
लाल त्रिलोकीनाथ सिंह भुवनेशजी ब्रज भाषा के सिद्धहस्त कवि थे। इनके छन्दों में रीतिकालीन श्रृंगारिकता का समावेश बहुत था। राज दरबार में विद्वान कवियों के साथ रहने के कारण इनकी कवित्व शक्ति बहुत ही उत्कृष्टतम थी। उनकी कोई कृति उपलब्ध नहीं है। कुछ फुटकर छन्द उद्धृत हुए यत्र तत्र देखने को मिल जाते हैं। भुवनेशजी के पुत्र पन्नगेशजी के सौमित्र विजय महाकाव्य में भुवनेशजी की एक अभिसारिका उद््धृत मिल जाती है।
ऐड़ति अड़ति दौड़ि मध्यमत्त मैगल सी
खायकर हृवै लसी लची न लचाल लंक।
उमड़योे सुरति नाह फरकत कलित बांह
उरजि उमाह मढ़ि नेकु न अमात अंक
सुनि सुनि आहट प्रगट पग पालन की
झटपट कंटकित होतिउर धरि शंक।
ब्रजति ब्रजेश के निवेश भुवनेश वेस
चक्षुकृत चक्रित विवकृत भृकुटिवंक।
डा. मुनिलाल उपाध्याय सरस
बस्ती के छन्दकार नामक शोध प्रवंध में डा. मुनिलाल उपाध्याय सरसजी ने लिखा है कि भुवनेशजी के छन्दों पर अयोध्या नरेश राजा मानसिंह द्विजदेव आदि के छन्दों का अधिक प्रभाव पड़ा है। वर्णन विधा भी प्रायः वैसा ही है। भाषा में प्रवाह और लालित्य भी श्रृंगार के प्रधानता के कारण दर्शनीय है। छन्द परम्परा के विकास में भुवनेश जी का योगदान अपना तो है ही इनके पुत्र लाल रुद्रनाथ सिंह पन्नगेश जिसके पिता के रुप में यह अधिक समादृत हुए का योगदान जनपदीय छन्द परम्परा का विकास में सर्वाधिक रहा है। भुवनेशजी ने पन्नगेश जी को जन्म देकर बस्ती के छन्दकारों में महत्वपूर्ण सथान प्राप्त कर लिया है।
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