डा. राधेश्याम
द्विवेदी
हिंदू
काल में इतिहास में दंडधारी शब्द का उल्लेख आता है। भारतवर्ष में पुलिस शासन के विकासक्रम
में उस काल के दंडधारी को वर्तमान काल के पुलिस जन के समकक्ष माना जा सकता है। प्राचीन
भारत का स्थानीय शासन मुख्यत: ग्रामीण पंचायतों पर आधारित था। गाँव के न्याय एवं शासन
संबंधी कार्य ग्रामिक नामी एक अधिकारी द्वारा संचलित किए जाते थ। इसकी सहायता और निर्देशन
ग्राम के वयोवृद्ध करते थे। यह ग्रामिक राज्य के वेतनभोगी अधिकारी नहीं होते थे वरन्
इन्हें ग्राम के व्यक्ति अपने में से चुन लेते थे। ग्रामिकों के ऊपर 5-10 गाँवों की
व्यवस्था के लिए "गोप" एवं लगभग एक चौथाई जनपद की व्यवस्था करने के लिए
"गोप" एवं लगभग एक चौथाई जनपद की व्यवस्था करने के लिए "स्थानिक"
नामक अधिकारी होते थे। प्राचीन यूनानी इतिहासवेतताओं ने लिखा है कि इन निर्वाचित ग्रामीण
अधिकारियों द्वारा अपराधों की रोकथाम का कार्य सुचारु रूप से होता था और उनके संरक्षण
में जनता अपने व्यापार उद्योग-निर्भय होकर करती थी।
सल्तनत और मुगल काल में भी ग्राम पंचायतों और ग्राम के स्थानीय अधिकारियों की परंपरा अक्षुण्ण रही। मुगल काल में ग्राम के मुखिया मालगुजारी एकत्र करने, झगड़ों का निपटारा आदि करने का महत्वपूर्ण कार्य करते थे और निर्माण चौकीदारों की सहायता से ग्राम में शांति की व्यवस्था स्थापित रखे थे। चौकीदार दो श्रेणी में विभक्त थे- (1) उच्च, (2) साधारण। उच्च श्रेणी के चौकीदार अपराध और अपराधियों के संबंध में सूचनाएँ प्राप्त करते थे और ग्राम में व्यवस्था रखने में सहायता देते थे। उनका यह भी कर्तव्य था कि एक ग्राम से दूसरे ग्राम तक यात्रियों को सुरक्षापूर्वक पहुँचा दें। साधारण कोटि के चौकीदारों द्वारा फसल की रक्षा और उनकी नापजोख का कार्य करता जाता था। गाँव का मुखिया न केवल अपने गाँव में अपराध शासन का कार्य करता था वरन् समीपस्थ ग्रामों के मुखियों को उनके क्षेत्र में भी अपराधों के विरोध में सहायता प्रदान करता था। शासन की ओर से ग्रामीण क्षेत्रों की देखभाल फौजदार और नागरिक क्षेत्रों की देखभाल कोतवाल के द्वारा की जाती थी।
मुगलों के पतन के उपरांत भी ग्रामीण शासन की परंपरा चलती रही। यह अवश्य हुआ कि शासन की ओर से नियुक्त अधिकारियों की शक्ति क्रमश: लुप्तप्राय होती गई। सन् 1765 में जब अंग्रेजों ने बंगाल की दीवानी हथिया ली तब जनता का दायित्व उनपर आया। वारेन हेस्टिंग्ज़ ने सन् 1781 तक फौजदारों और ग्रामीण पुलिस की सहायता से पुलिस शासन की रूपरेखा बनाने के प्रयोग किए और अंत में उन्हें सफल पाया। लार्ड कार्नवालिस का यह विश्वास था कि अपराधियों की रोकथाम के निमित्त एक वेतन भोगी एवं स्थायी पुलिस दल की स्थापना आवश्यक है। इसके निमित्त जनपदीय मजिस्ट्रेटों को आदेश दिया गया कि प्रत्येक जनपद को अनेक पुलिसक्षेत्रों में विभक्त किया जाए और प्रत्येक पुलिसक्षेत्र दारोगा नामक अधिकारी के निरीक्षण में सौंपा जाय। इस प्रकार दारोगा का उद्भव हुआ। बाद में ग्रामीण चौकीदारों को भी दारोगा के अधिकार में दे दिया गया।
इस प्रकार मूलत: वर्तमान पुलिस शासन की रूपरेखा का जन्मदाता लार्ड कार्नवालिस था। वर्तमान काल में हमारे देश में अपराधनिरोध संबंधी कार्य की इकाई, जिसका दायित्व पुलिस पर है, थाना अथवा पुलिस स्टेशन है। थाने में नियुक्त अधिकारी एवं कर्मचारियों द्वारा इन दायित्वों का पालन होता है। सन् 1861 के पुलिस ऐक्ट के आधार पर पुलिस शासन प्रत्येक प्रदेश में स्थापित है। इसके अंतर्गत प्रदेश में महानिरीक्षक की अध्यक्षता में और उपमहानिरीक्षकों के निरीक्षण में जनपदीय पुलिस शासन स्थापित है। प्रत्येक जनपद में सुपरिटेंडेंट पुलिस के संचालन में पुलिस कार्य करती है। सन् 1861 के ऐक्ट के अनुसार जिलाधीश को जनपद के अपराध संबंधी शासन का प्रमुख और उस रूप में जनपदीय पुलिस के कार्यों का निर्देशक माना गया है।
सल्तनत और मुगल काल में भी ग्राम पंचायतों और ग्राम के स्थानीय अधिकारियों की परंपरा अक्षुण्ण रही। मुगल काल में ग्राम के मुखिया मालगुजारी एकत्र करने, झगड़ों का निपटारा आदि करने का महत्वपूर्ण कार्य करते थे और निर्माण चौकीदारों की सहायता से ग्राम में शांति की व्यवस्था स्थापित रखे थे। चौकीदार दो श्रेणी में विभक्त थे- (1) उच्च, (2) साधारण। उच्च श्रेणी के चौकीदार अपराध और अपराधियों के संबंध में सूचनाएँ प्राप्त करते थे और ग्राम में व्यवस्था रखने में सहायता देते थे। उनका यह भी कर्तव्य था कि एक ग्राम से दूसरे ग्राम तक यात्रियों को सुरक्षापूर्वक पहुँचा दें। साधारण कोटि के चौकीदारों द्वारा फसल की रक्षा और उनकी नापजोख का कार्य करता जाता था। गाँव का मुखिया न केवल अपने गाँव में अपराध शासन का कार्य करता था वरन् समीपस्थ ग्रामों के मुखियों को उनके क्षेत्र में भी अपराधों के विरोध में सहायता प्रदान करता था। शासन की ओर से ग्रामीण क्षेत्रों की देखभाल फौजदार और नागरिक क्षेत्रों की देखभाल कोतवाल के द्वारा की जाती थी।
मुगलों के पतन के उपरांत भी ग्रामीण शासन की परंपरा चलती रही। यह अवश्य हुआ कि शासन की ओर से नियुक्त अधिकारियों की शक्ति क्रमश: लुप्तप्राय होती गई। सन् 1765 में जब अंग्रेजों ने बंगाल की दीवानी हथिया ली तब जनता का दायित्व उनपर आया। वारेन हेस्टिंग्ज़ ने सन् 1781 तक फौजदारों और ग्रामीण पुलिस की सहायता से पुलिस शासन की रूपरेखा बनाने के प्रयोग किए और अंत में उन्हें सफल पाया। लार्ड कार्नवालिस का यह विश्वास था कि अपराधियों की रोकथाम के निमित्त एक वेतन भोगी एवं स्थायी पुलिस दल की स्थापना आवश्यक है। इसके निमित्त जनपदीय मजिस्ट्रेटों को आदेश दिया गया कि प्रत्येक जनपद को अनेक पुलिसक्षेत्रों में विभक्त किया जाए और प्रत्येक पुलिसक्षेत्र दारोगा नामक अधिकारी के निरीक्षण में सौंपा जाय। इस प्रकार दारोगा का उद्भव हुआ। बाद में ग्रामीण चौकीदारों को भी दारोगा के अधिकार में दे दिया गया।
इस प्रकार मूलत: वर्तमान पुलिस शासन की रूपरेखा का जन्मदाता लार्ड कार्नवालिस था। वर्तमान काल में हमारे देश में अपराधनिरोध संबंधी कार्य की इकाई, जिसका दायित्व पुलिस पर है, थाना अथवा पुलिस स्टेशन है। थाने में नियुक्त अधिकारी एवं कर्मचारियों द्वारा इन दायित्वों का पालन होता है। सन् 1861 के पुलिस ऐक्ट के आधार पर पुलिस शासन प्रत्येक प्रदेश में स्थापित है। इसके अंतर्गत प्रदेश में महानिरीक्षक की अध्यक्षता में और उपमहानिरीक्षकों के निरीक्षण में जनपदीय पुलिस शासन स्थापित है। प्रत्येक जनपद में सुपरिटेंडेंट पुलिस के संचालन में पुलिस कार्य करती है। सन् 1861 के ऐक्ट के अनुसार जिलाधीश को जनपद के अपराध संबंधी शासन का प्रमुख और उस रूप में जनपदीय पुलिस के कार्यों का निर्देशक माना गया है।
चौकीदार पर भारतीय राजनीति में भीषण संग्राम
:- राजनीति में नारों की बड़ी अहमियत होती
है. ये जिताने में अहम भूमिका निभा सकते हैं और उल्टे पड़ जाएं तो गले का पत्थर बन
सकते हैं. 'चौकीदार चोर है' का राहुल गांधी का नारा, कांग्रेस और उसके अध्यक्ष के
गले का पत्थर बनेगा. चौकीदार पर भारतीय राजनीति में भीषण संग्राम मचा
है। राहुल गांधी प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी को चौकीदार कहते हैं और प्रधानमंत्री ने पूरे देश को ही चौकीदार बना
दिया। मतलब राहुल गांधी जिन आरोपों के वाण से प्रधानमंत्री पर निशाना साध रहे थे
उसी वाण को पीएम ने जनता की ओर मोड़ दिया है। अब कांग्रेस को समझाना पड़ रहा है कि
वो किस चौकीदार की बात कर रहे हैं। कौन सा चौकीदार उनकी नजरों में ईमानदार है और
कौन सा नहीं। कांग्रेस जब भी मोदी को घेरने निकलती है, मोदी का पलटवार इनको न
सिर्फ कमजोर कर देता है बल्कि हमला कांग्रेस के लिए सेल्फ गोल साबित हो जाता है।
जिस तरह 2014 में मणिशंकर अय्यर के चाय वाले बयान ने पासा पलट दिया था ठीक वैसा ही
अब हो रहा है। कांग्रेस ने सोचा नहीं था कि एक चौकीदार पूरे देश को चौकीदार बना
देगा। अब महाभारत मचा है। बीजेपी के चौकीदार बोल रहे हैं, राहुल गांधी समझ नहीं पा
रहे हैं कि वो किसका अपमान कर रहे हैं।
चौकीदार चोर है vs मैं
भी चौकीदार
पीएम ने अपने ऑफिशियल
ट्विटर हैंडल पर अपने नाम के आगे चौकीदार जोड़ा था। इसके बाद तो अपने नाम के आगे
चौकीदार जोड़ने वालों की कतार लग गई। कांग्रेस ने चौकीदार चोर है का नारा देकर
सोचा था कि प्रधानममंत्री को घेरा जाएगा लेकिन पीएम ने अपने नाम के आगे चौकीदार
जोड़ कर कांग्रेस की उलझने बढ़ा दी है। चौकीदार पर मचे बवाल पर कोई
कह रहा है बेरोजगार, कोई कह रहा है उलटे चोर कोतवाल को डाटे। कांग्रेस मानती भले
ना हो लेकिन जानती तो है ही कि पीएम मोदी ने नाम के आगे चौकीदार लगाकर उनके आरोपों
की धार को बहुत कमजोर कर दिया है। राहुल गांधी से चौकीदार यूनियन भी नाराज हो गया
है। मुंबई पुलिस का कहना है कि चौकीदार संघ ने राहुल गांधी के खिखिलाफ केस दर्ज
करने को कहा है। यूनियन का दावा है कि राहुल गांधी की इस टिप्पणी से सुरक्षा
गार्डों का अपमान हुआ है।
'मैं भी चौकीदार' देशव्यापी अभियान :-मोदी
के 'मैं भी
चौकीदार' के देशव्यापी अभियान से तो ऐसे ही संकेत मिल रहे
हैं. पर किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए थोड़ा और इंतज़ार करना पड़ेगा. समय-समय
पर लगे राजनीतिक नारों का अध्ययन करें तो ज़्यादातर सकारात्मक नारे ही कामयाब होते
हैं. नकारात्मक नारे तभी लोगों की ज़बान से होते हुए दिल में उतरते हैं जब जिसके
ख़िलाफ़ नकारात्मक नारा लगा है, उससे लोग बहुत नाराज़ हों.
साल 2007 के गुजरात
विधानसभा चुनाव में सोनिया गांधी ने उन्हें 'मौत का सौदागर'कहा. सोनिया गांधी और कांग्रेस को इसका आजतक अफ़सोस
होगा. अपनी तरफ़ आने वाले तीर को विपक्षी की तरफ़ मोड़ देने की प्रधानमंत्री में
अद्भुत क्षमता है.पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर की 'चायवाला' और प्रियंका वाड्रा
के 'नीच' शब्द
को उन्होंने किस तरह कांग्रेस के ख़िलाफ़ हथियार बना लिया, यह सबको पता है.
साल 2013 में जब
भाजपा ने उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया तो मीडिया और राजनीतिक हलक़ों
में गुजरात दंगों में उनकी कथित भूमिका एक बार फिर विमर्श के केंद्र में आ गई.
मोदी और भाजपा सफ़ाई देते रहे कि कुछ साबित नहीं हुआ. एसआईटी की जांच में कुछ
नहीं निकला. सुप्रीम कोर्ट से क्लीन चिट मिल चुकी है. पर किसी सफ़ाई का कोई असर नहीं
हो रहा था. उसके बाद मोदी के रणनीतिकारों ने इस मुद्दे पर सफ़ाई देना छोड़कर विकास
के गुजरात मॉडल का मुद्दा ज़ोरशोर से उठाया. गुजरात के मुख्यमंत्री और पिछले पांच साल
से प्रधाननमंत्री के रूप में मोदी के कार्यकाल को देखें तो एक बात स्पष्ट रूप से समझ
में आती है कि मोदी अपने ख़िलाफ़ कही गई बात पर आम तौर से तात्कालिक प्रतिक्रिया नहीं
देते. वो तोलमोल के बोलते हैं. आरोपों या नकारात्मक बातों का वे सकारात्मक बात या काम
से जवाब देते हैं.
कुछ
महीने पहले राहुल गांधी ने 'चौकीदार
चोर है' का नारा दिया. इसके लिए उन्होंने रफ़ाल लड़ाकू विमान
की ख़रीद का मुद्दा उठाया. चौकीदार (मोदी) को चोर बताने के लिए उन्हें पांच साल
में एक मुद्दा मिला. लेकिन उस मुद्दे पर वो भी मोदी या उनके किसी मंत्री पर रिश्वत
का आरोप नहीं लगा पाए.सिर्फ़ एक बात दुहराते रहते हैं कि अनिल अंबानी को 30 हज़ार
करोड़ रुपए दे दिए. यह जानते हुए भी जिस ऑफ़सेट क्लॉज़ में वे 30 हज़ार करोड़
मिलने की बात करते हैं, वो ग़लत है. इसमें 80 से ज्यादा कंपनियां हिस्सेदार हैं.
फिर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले और सीएजी की रिपोर्ट ने उनके आरोप को और कमज़ोर कर
दिया.
मोदी
इंतज़ार करते रहे. यह देखते रहे कि राहुल गांधी के इस नारे का कितना असर हो रहा
है. जब लगा कि मुद्दा ज़ोर नहीं पकड़ रहा तो शनिवार को 'मैं भी चौकीदार' का अभियान
सोशल मीडिया पर शुरू कर दिया. थोड़ी ही देर में यह ट्विटर पर पहले नम्बर पर ट्रेंड
करने लगा. उन्होंने ट्विटर हैंडल पर अपना नाम भी बदलकर 'चौकीदार नरेंद्र मोदी' कर
दिया. उन्होंने देश के लोगों से कहा कि वे
अपने आस पास गंदगी, अन्याय और दूसरी सामाजिक बुराइयों को रोकने के लिए चौकीदार
बनें. पिछले लोकसभा चुनाव में 'चायवाला' मुद्दा
बना तो इस बार 'चौकीदार' को
मुद्दा बनाने की मुहिम शुरु हो गई है.
सार्वजनिक
जीवन में कोई भी आरोप राजनीतिक फ़ायदा तब देता है, जब वह चिपके. आरोप चिपके इसके
लिए ज़रूरी है कि आम लोगों को उस पर विश्वास हो. साथ ही आरोप लगाने वाले की
विश्वसनीयता भी बहुत अहम होती है. भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेस की
विश्वसनीयता लोगों की नज़र में बहुत कम है, यह कहना ग़लत नहीं होगा.इसके अलावा
इतने लंबे सार्वजनिक जीवन में मोदी भ्रष्टाचार के मामले में लगभग बेदाग़ रहे हैं.
उनकी सरकार की तमाम कमियों के आरोप पर तो लोग भरोसा कर सकते हैं लेकिन मोदी भ्रष्ट
हैं, इस बात पर उनके विरोध में वोट देने वाले भी शायद ही भरोसा करें. शायद यही वजह
है कि दूसरे विपक्षी दल इस मुद्दे पर कांग्रेस का साथ देने की रस्म अदायगी से आगे
नहीं बढ़े.
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