Friday, June 15, 2018

मेरा एस्मों नहीं रहा


जर्मनी में जन्‍म लेने वाले जर्मन शेफर्ड कुत्तो की एक बड़ी नसल है, जिसे की अल्सतियन के नाम से भी जाना जाता है जिसको 1899 में विकसित क्या गयायह नसल एक कामगारी कुत्तों की नसल है जिसे की भेड़ बकरियों को इकट्टा करने और उनकी रक्षा करने के काम में लिया जाता था और आज भी लिया जाता है। आज इनके चतुराई, समज, आज्ञाकारीपन और कई अन्य कारणों से इन्हें पूरे विश्व में पुलिस और सेना के काम में लिया जाता है। जर्मन शेफर्ड के आज्ञाकारीपन की वजह से ही यह सबसे ज्यादा पाले जानी वाली कुत्तो की नसल बन गयी है।
यूरोप में सन 1800 में कुत्तो की नसल को मापदंड के अनुसार विकसित करने की शूरुआत की गयी। कुत्तो की उन लक्षणों का बचाव करते हुए पैदावार करायी गयी जो की उनको भेड़ बकरी की रक्षा करने व झुंड को काबू करने में मदद करते थे। इसकी शुरात जर्मनी के कई समुदायों में हुई जहा गढेरो ने उन चुनित कुत्तो को आपस में सम्भोग करने दिया जो की उनको लगा की जानवरों के झुंड की रक्षा करने में अन्यो से अधिक समर्थ गुण रखते हैं, जैसे की समजदारी, शक्ति और सूंघने के अच्छी क्षमता. इससे यह हुआ की जो कुत्ते इस चुनित मिलान से पैदा हुए वो इन सभी कामो को करने में ज्यादा अच्छे थे पर हर समुदाय में पैदा हुए कुत्ते अलग रंग रूप के थे। फिल्क्स संस्था की सन 1891 में स्थपाना की गयी जिसका की मुख्य काम मानको पे खरे उतरने वाले कुत्तो की पैदावार बढाना था। घुड़सवारो के एक पूर्व कप्तान मेक्स वों स्टेफनइट्ज़ जो की बर्लिन पशु चिकित्सा महाविद्यालय के विद्यार्थी भी थे इस संस्था के एक पूर्व सदस्य थे। उनका इस बारे में बड़े सख्त विचार थे की कुत्तो को सिर्फ काम की क्षमता के लिए पैदा करना चाहिए।
सन 1899 में मेक्स वों स्टेफनइट्ज़ एक कुत्तो के पर्दर्शन को देखने गए जहा पर एक कुत्ता दिखाया गया जिसका की नाम हेक्टर लिंकसरहिन् था। हेक्टर ऐसे कई कुत्तो का वंशज था जिन्हें की चुनित पैदावार कर हासिल किया गया था और जिसे की वों स्टेफनइट्ज़ मानते थे की कामगारी कुत्तो को होना चाहिए। वोह इस बात से काफी खुश थे की यह जानवर कितना शक्तिशाली है और इसकी समजदारी और आज्ञाकारिपन ने भी उने इतना प्रभावित किया की उन्होंने इस तुंरत खरीद लिया। उसे खरीदने के बाद उन्होंने उसका नाम होरंड वों ग्राफ्राथ रखा और उन्होंने जर्मन शेफर्ड कुत्तो की संस्था की स्थापना की। होरंड को सबसे पहले जर्मन शेफर्ड कुत्ते के रूप में घोषणा की गयी और वोही संस्था के नसल प्रजनन पंजिका में सबसे पहले जोड़ा गया।
होरंड जल्द ही संस्था के प्रजनन कार्यकर्मो का जरूरी हिस्सा बन गया और उसका अन्य मादा कुत्तो के साथ प्रजनन कराया गया जोकि ख़ास लक्षण रखती थी। होरंड के कई पिल्लै पैदा हुए पर सब से कामयाब पिल्ला हेक्टर वों सक्वाबैन था। हेक्टर को होरंड के ही अन्य वंशजो के साथ प्रजनन कराने से उत्तपन हुआ बियोवोल्फ, जिसके की बाद में 84 पिल्लै हुए, वह जिनकी माए भी हेक्टर की ही वंशज थी।
बिओवोल्फ़ के वंशजो का भी अन्य आपसी वंशजो के साथ प्रजनन कराया गया और इन्ही से आज के जर्मन शेफर्ड कुत्ते पैदा हुए और इन्ही से यह सभी वंश गुणो में समानता रखते हैं। यह माना जाता है कि संस्था अपने सभी उदेश्यों को इसलिए पूरा कर पाई क्यों की वों एक द्रर्ड, समझोता नहीं करने वाले इंसान थे और इसी लिए उनको जर्मन शेफर्ड कुत्तो का जनक माना जाता है।
जब युके केंनल क्लब ने सन 1919 में इस नसल के कुत्तो को पंजीकृत करना चालू किया तब 54 कुत्तो को पंजीकृत कराया गया और सन 1926 तक यह आकडा 8000 तक पहुच गया। इस नसल की लोकप्रियता पूरी दुनिया में उस समय फैली जब पहले विश्व युद्घ की समाप्ति पे घर आने वाले सैनिको ने इन कुत्तो के बारे में सबको बताया। इसमें जानवरों के कलाकार रिन टिन टिन और बहादुर दिल ने भी योगदान दिया। द्वितीय विश्व युद्घ में जर्मनी के खिलाफ आक्रोश के कारण इस नसल की लोकप्रियता को काफी नुक्सान हुआ। जैसे जैसे समय बढता गया यह वापस बड़ी और सन 1993 तक बदती ही गयी जब यह संयुक्त राज्य में तीसरी सबसे अधिक लोकप्रिय कुत्ते की नसल बन गयी, जो यह आज तक है।
जर्मन शेफर्ड की उचाई में 22 से 26 इंच और वजन में 22 से 40 किलोग्राम के बीच होती है। इनकी आदर्श उचाई, केंनल क्लब के मनको के अनुरूप 25 इच है। इनका माथा गुंबददार होता है और लंबी चौड़ी थूथन होती है। इनकी नाक काली व इनका जबड़ा मजबूत होता है जो की किसी केची की तरह काटता है। इनकी आँखें मध्यम आकार व भूरे रंग की होती है जिनमे की जिन्दादली, समझदारी और स्वाभिमानी झलक दिखती है। इनके कान लम्बे और सीधे खड़े होते हैं जो की आगे से खुले हुए दीखते हैं, खेल कूद के समय यह अक्सर पीछे भी हो जाते हैं। इनकी लम्बी गर्दन होती है जो की जब यह उत्तेजित होते हैं तो उप्पर की और तन जाती है व तेज दोड़ने पर या निराश होने पर निचे हो जाती है। इनकी पूछ बालदार और मुड़ी हुई होती है जो की ओल तक जाती है। जर्मन शेफर्ड कई रंग के होते हैं, जिनमे से की सब से आम और प्रचिलित रंग टैन व काला या लाल व कला होता है। दोनों ही तरहों में बड़े काले धब्बे और काले निशान होते हैं। यह छोटे से पूरे शारीर तक को ढक सकते हैं। जर्मन शेफर्ड के बाल दो परतो में होते हैं। उप्परी जो की साल भर झडती रहती है और भीतरी जो की काफी घनी और खाल के करीब होती है। इनके बाल लम्बे और मध्य आकार, दोनों तरह के हो सकते हैं।

एस्मो "कहने के लिए जर्मन शेफर्ड बराइटी का डाग था। पर मेरे परिवार का विगत 10 वर्षों से बहुत ही खासमखास सदस्य रहा है । उसका जन्म आगरा में हुआ था तथा वहीं प्रारम्भिक पालन पोषण हुआ था । मेरी पत्नी कमला जी दोनों बेटे तथा स्वयं मैं भी उसे बहुत ही शिद्दत से वहां पाले पोषे थे। जब मेरे डाक्टर बेटे को प्रथम तन्खाह मिला था तो संभवतः 15 अप्रैल के 2009 के आसपास जन्मे इस शावक को दानसिंह राना अपने गोद में बिठाकर आगरा के मेरे आवास पर लाये थे। उसे अनेक तरह के फूड सपोर्ट तथा पिडगिरी भी खिलाया जाता था।  सौरभ वा उसकी मम्मी उससे तरह तरह के करतब करवाते तथा खिलाते थे। एक शिक्षक उसे प्रशिक्षण भी देता था। मैं भी उसे साइकिल पर चलकर पैदल घुमाता था। उसे खाना खिलाने के लिए पूरा मेहनत करना पडता था। उसे तरह तरह के बदलते स्वाद वाले भोजन का इन्तजाम करना पड़ता था।एस्मो बहुत ही यायावरी था। वह आगरा से बस्ती की अनेक यात्रायें किया था। दुबौली , मरवटिया पाण्डेय , नगर बाजार , बस्ती व अयोध्या आदि जगहों का उसने अनेक देशाटन किया था। उसे कैलिसयम व प्रोटीन की कमी कभी नहीं होने पाती थी। मेजर साहब के फोन का अन्त एस्मों के हाल चाल से ही खत्म होता था। उसके लिए फूड सपोर्ट तथा दवा की किट हर वार आती थी। उसे के वह मेजर साहब को कभी भी छोड़ना नहीं चाहता था। पर उसकी सबसे ज्यादा परवरिश मैडम कमला ने किया था। आगरा के अपने आवास तथा मरवटिया बस्ती के अपने आवास में वह घर का एक नियमित मेम्बर बन चुका था । वह मैडम का सारा कमाण्ड फालो करता था।  उनका नेवासे वाले घर का वह सवसे वफादार सदस्य था। वह बीमार भी यदा कदा हो जाता था। उसके कीड़े भी पड़ जाते थे। मैडम बिना किसी हिचकिचाहट से उसका हर तरह उपचार करती तथा डाक्टर के पास भी ले जाती थी।दिनांक 7 जून 2018 को 9 साल पूरा करने के बाद अचानक वह इस दुनिया से हमेशा- हमेशा के लिए जुदा हो गया। उसके जाने से उसका छोटा भाई जैसा दोस्त ब्रूटो और हम बस असामान्य जीवन अनुभव करने लगे थे । हर पल उसके घर में रहने का आभास होता रहता है।उसके बिना मेरा घर विल्कुल सूना सा लगने लगा।मेरी मां की तबीयत खराब थी तो वह कहा करती थीं कि ” या तो मैं पहले जाउंगी या एस्मों।“ मां को स्वयं जाने का अनुमान नहीं था और वह स्वयं हम  सब से सदा सदा के लिए दूर चली गयी । अपने आगरा प्रवास में वह आगरा में मेरी अनुपस्थिति में एस्मों का पूरा का पूरा ख्याल रखती थी। दोनों प्रायः घर में एकाकी जीवन बीतते थे मां अपनी मृत्यु के साल भीतर ही अपने प्रिय व वफादार एस्मों को अपने धाम में बुला लिया । परन्तु इन दोनों के बिना मेरा घर जहां सूना हो गया है। वहीं हमें हमारे दो खास मेरे साथ रहने व जीवन बिताने से महरुम हो गये। प्रभु इन दोनों की आत्मा को सद्गति तथ चिरशान्ति प्रदान करे।



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