Wednesday, June 27, 2018

28 जून : कबीर जयंती डा. राधेश्याम द्विवेदी

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महात्मा कबीर का जन्म-काल:- कबीर जयंती प्रत्येक वर्ष ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष पूर्णिमा को मनाई जाती है। इस बार 28 जून 2018 को कबीर जयंती है।महात्मा कबीर का जन्म ऐसे समय में हुआ, जब भारतीय समाज और धर्म का स्वरुप अधंकारमय हो रहा था। भारत की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक अवस्थाएँ सोचनीय हो गयी थी। एक तरफ मुसलमान शासकों की धमार्ंधता से जनता त्राहि- त्राहि कर रही थी और दूसरी तरफ हिंदूओं के कर्मकांडों, विधानों एवं पाखंडों से धर्म- बल का ह्रास हो रहा था। जनता के भीतर भक्ति- भावनाओं का सम्यक प्रचार नहीं हो रहा था। सिद्धों के पाखंडपूर्ण वचन, समाज में वासना को प्रश्रय दे रहे थे। नाथपंथियों के अलखनिरंजन में लोगों का ऋदय रम नहीं रहा था। ज्ञान और भक्ति दोनों तत्व केवल ऊपर के कुछ धनी- मनी, पढ़े- लिखे की बपौती के रुप में दिखाई दे रहा था। ऐसे नाजुक समय में एक बड़े एवं भारी समन्वयकारी महात्मा की आवश्यकता समाज को थी, जो राम और रहीम के नाम पर आज्ञानतावश लड़ने वाले लोगों को सच्चा रास्ता दिखा सके। ऐसे ही संघर्ष के समय में, मस्तमौला कबीर का प्रार्दुभाव हुआ। कबीर हिंदी साहित्य के महिमामण्डित व्यक्तित्व हैं। कबीर के जन्म के संबंध में अनेक किंवदन्तियाँ हैं। कुछ लोगों के अनुसार वे रामानन्द स्वामी के आशीर्वाद से काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से पैदा हुए थे, जिसको भूल से रामानंद जी ने पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया था। ब्राह्मणी उस नवजात शिशु को लहरतारा ताल के पास फेंक आयी।  महात्मा कबीर के जन्म के विषय में भिन्न- भिन्न मत हैं। "कबीर कसौटी' में इनका जन्म संवत् १४५५ दिया गया है। ""भक्ति- सुधा- बिंदु- स्वाद'' में इनका जन्मकाल संवत् १४५१ से संवत् १५५२ के बीच माना गया है। ""कबीर- चरित्र- बाँध'' में इसकी चर्चा कुछ इस तरह की गई है, संवत् चौदह सौ पचपन (१४५५) विक्रमी ज्येष्ठ सुदी पूर्णिमा सोमवार के दिन, एक प्रकाश रुप में सत्य पुरुष काशी के "लहर तारा'' (लहर तालाब) में उतरे। उस समय पृथ्वी और आकाश प्रकाशित हो गया। समस्त तालाब प्रकाश से जगमगा गया। हर तरफ प्रकाश- ही- प्रकाश दिखने लगा, फिर वह प्रकाश तालाब में ठहर गया। उस समय तालाब पर बैठे अष्टानंद वैष्णव आश्चर्यमय प्रकाश को देखकर आश्चर्य- चकित हो गये। लहर तालाब में महा- ज्योति फैल चुकी थी। अष्टानंद जी ने यह सारी बातें स्वामी रामानंद जी को बतलायी, तो स्वामी जी ने कहा की वह प्रकाश एक ऐसा प्रकाश है, जिसका फल शीघ्र ही तुमको देखने और सुनने को मिलेगा तथा देखना, उसकी धूम मच जाएगी। एक दिन वह प्रकाश एक बालक के रुप में जल के ऊपर कमल- पुष्पों पर बच्चे के रुप में पाँव फेंकने लगा। इस प्रकार यह पुस्तक कबीर के जन्म की चर्चा इस प्रकार करता है :-
"चौदह सौ पचपन गये, चंद्रवार, एक ठाट ठये। जेठ सुदी बरसायत को पूनरमासी प्रकट भये।।''
       कबीर पन्थियों की मान्यता है कि कबीर की उत्पत्ति काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुई। ऐसा भी कहा जाता है कि कबीर जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानन्द के प्रभाव से उन्हें हिंदू धर्म का ज्ञान हुआ।  एक दिन कबीर पञ्चगंगा घाट की सीढ़ियों पर गिर पड़े थे, रामानन्द ज उसी समय गंगास्नान करने के लिये सीढ़ियाँ उतर रहे थे कि उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया। उनके मुख से तत्काल `राम-राम' शब्द निकल पड़ा। उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मन्त्र मान लिया और रामानन्द जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। कबीर के ही शब्दों में- `हम कासी में प्रकट भये हैं, रामानन्द चेताये'। अन्य जनश्रुतियों से ज्ञात होता है कि कबीर ने हिंदु-मुसलमान का भेद मिटा कर हिंदू-भक्तों तथा मुसलमान फक़ीरों का सत्संग किया और दोनों की अच्छी बातों को आत्मसात कर लिया।
जन्म स्थान:- कबीर ने अपने को काशी का जुलाहा कहा है। कबीर पंथी के अनुसार उनका निवास स्थान काशी था। बाद में, कबीर एक समय काशी छोड़कर मगहर चले गए थे। ऐसा वह स्वयं कहते हैं :-
"सकल जनम शिवपुरी गंवाया। मरती बार मगहर उठि आया।।''
       कहा जाता है कि कबीर का पूरा जीवन काशी में ही गुजरा, लेकिन वह मरने के समय मगहर चले गए थे। कबीर वहाँ जाकर दु:खी थे। वह न चाहकर भी, मगहर गए थे।
"अबकहु राम कवन गति मोरी। तजीले बनारस मति भई मोरी।।''
         कहा जाता है कि कबीर के शत्रुओं ने उनको मगहर जाने के लिए मजबूर किया था। वह चाहते थे कि आपकी मुक्ति न हो पाए, परंतु कबीर तो काशी मरन से नहीं, राम की भक्ति से मुक्ति पाना चाहते थे :-
"जौ काशी तन तजै कबीरा तो रामै कौन निहोटा।''
कबीर के माता- पिता:- कबीर के माता- पिता के विषय में भी एक राय निश्चित नहीं है। "नीमा' और "नीरु' की कोख से यह अनुपम ज्योति पैदा हुई थी, या लहर तालाब के समीप विधवा ब्राह्मणी की पाप- संतान के रुप में आकर यह पतितपावन हुए थे, ठीक तरह से कहा नहीं जा सकता है। कई मत यह है कि नीमा और नीरु ने केवल इनका पालन- पोषण ही किया था। एक किवदंती के अनुसार कबीर को एक विधवा ब्राह्मणी का पुत्र बताया जाता है, जिसको भूल से रामानंद जी ने पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया था। एक जगह कबीर ने कहा है :-
"जाति जुलाहा नाम कबीरा ,बनि बनि फिरो उदासी।

      कबीर के एक पद से प्रतीत होता है कि वे अपनी माता की मृत्यु से बहुत दु:खी हुए थे। उनके पिता ने उनको बहुत सुख दिया था। वह एक जगह कहते हैं कि उसके पिता बहुत "गुसाई' थे। ग्रंथ साहब के एक पद से विदित होता है कि कबीर अपने वयनकार्य की उपेक्षा करके हरिनाम के रस में ही लीन रहते थे। उनकी माता को नित्य कोश घड़ा लेकर लीपना पड़ता था। जबसे कबीर ने माला ली थी, उसकी माता को कभी सुख नहीं मिला। इस कारण वह बहुत खीज गई थी। इससे यह बात सामने आती है कि उनकी भक्ति एवं संत- संस्कार के कारण उनकी माता को कष्ट था।
स्री और संतान:-कबीर का विवाह वनखेड़ी बैरागी की पालिता कन्या "लोई' के साथ हुआ था। कबीर को कमाल और कमाली नाम की दो संतान भी थी। ग्रंथ साहब के एक श्लोक से विदित होता है कि कबीर का पुत्र कमाल उनके मत का विरोधी था।
       बूड़ा बंस कबीर का, उपजा पूत कमाल। हरि का सिमरन छोडि के, घर ले आया माल।
कबीर की पुत्री कमाली का उल्लेख उनकी बानियों में कहीं नहीं मिलता है। कहा जाता है कि कबीर के घर में रात- दिन मुडियों का जमघट रहने से बच्चों को रोटी तक मिलना कठिन हो गया था। इस कारण से कबीर की पत्नी झुंझला उठती थी। एक जगह कबीर उसको समझाते हैं :-
                सुनि अंघली लोई बंपीर।इन मुड़ियन भजि सरन कबीर।।
जबकि कबीर को कबीर पंथ में, बाल- ब्रह्मचारी और विराणी माना जाता है। इस पंथ के अनुसार कामात्य उसका शिष्य था और कमाली तथा लोई उनकी शिष्या। लोई शब्द का प्रयोग कबीर ने एक जगह कंबल के रुप में भी किया है। वस्तुतः कबीर की पत्नी और संतान दोनों थे। एक जगह लोई को पुकार कर कबीर कहते हैं :-
                             "कहत कबीर सुनहु रे लोई। हरि बिन राखन हार न कोई।।'
यह हो सकता हो कि पहले लोई पत्नी होगी, बाद में कबीर ने इसे शिष्या बना लिया हो। उन्होंने स्पष्ट कहा है -
            "नारी तो हम भी करी, पाया नहीं विचार। जब जानी तब परिहरि, नारी महा विकार।।''
कबीर के ग्रंथ:-कबीर के नाम से मिले ग्रंथों की संख्या भिन्न-भिन्न लेखों के अनुसार भिन्न-भिन्न है। एच.एच. विल्सन के अनुसार कबीर के नाम पर आठ ग्रंथ हैं। विशप जी.एच. वेस्टकॉट ने कबीर के 84 ग्रंथों की सूची प्रस्तुत की तो रामदास गौड ने `हिंदुत्व' में 71 पुस्तकें गिनायी हैं।
कबीर की वाणी का संग्रह `बीजक' के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं- रमैनी, सबद और सारवी यह पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी, पूरबी, व्रजभाषा आदि कई भाषाओं की खिचड़ी है।
कबीर परमात्मा को मित्र, माता, पिता और पति के रूप में देखते हैं। यही तो मनुष्य के सर्वाधिक निकट रहते हैं। वे कभी कहते हैं-
`         हरिमोर पिउ, मैं राम की बहुरिया' तो कभी कहते हैं, `हरि जननी मैं बालक तोरा'
        उस समय हिंदु जनता पर मुस्लिम आतंक का कहर छाया हुआ था। कबीर ने अपने पंथ को इस ढंग से सुनियोजित किया जिससे मुस्लिम मत की ओर झुकी हुई जनता सहज ही इनकी अनुयायी हो गयी। उन्होंने अपनी भाषा सरल और सुबोध रखी ताकि वह आम आदमी तक पहुँच सके। इससे दोनों सम्प्रदायों के परस्पर मिलन में सुविधा हुई। इनके पंथ मुसलमान-संस्कृति और गोभक्षण के विरोधी थे। कबीर को शांतिमय जीवन प्रिय था और वे अहिंसा, सत्य, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे। अपनी सरलता, साधु स्वभाव तथा संत प्रवृत्ति के कारण आज विदेशों में भी उनका समादर हो रहा है।
कबीर का पूरा जीवन काशी में ही गुजरा, लेकिन वह मरने के समय मगहर चले गए थे।  वह न चाहकर भी, मगहर गए थे। वृद्धावस्था में यश और कीर्त्ति की मार ने उन्हें बहुत कष्ट दिया। उसी हालत में उन्होंने बनारस छोड़ा और आत्मनिरीक्षण तथा आत्मपरीक्षण करने के लिये देश के विभिन्न भागों की यात्राएँ कीं। कबीर मगहर जाकर दु:खी थे:
                  "अबकहु राम कवन गति मोरी।तजीले बनारस मति भई मोरी।।''
कहा जाता है कि कबीर के शत्रुओं ने उनको मगहर जाने के लिए मजबूर किया था। वे चाहते थे कि कबीर की मुक्ति न हो पाए, परंतु कबीर तो काशी मरन से नहीं, राम की भक्ति से मुक्ति पाना चाहते थे: 
"जौ काशी तन तजै कबीरा तो रामै कौन निहोरा।''
       अपने यात्रा क्रम में ही वे कालिंजर जिले के पिथौराबाद शहर में पहुँचे। वहाँ रामकृष्ण का छोटा सा मन्दिर था। वहाँ के संत भगवान गोस्वामी जिज्ञासु साधक थे किंतु उनके तर्कों का अभी तक पूरी तरह समाधान नहीं हुआ था। संत कबीर से उनका विचार-विनिमय हुआ। कबीर की एक साखी ने उन के मन पर गहरा असर किया-
`         बन ते भागा बिहरे पड़ा, करहा अपनी बान।  करहा बेदन कासों कहे, को करहा को जान।।'
      वन से भाग कर बहेलिये के द्वारा खोये हुए गड्ढे में गिरा हुआ हाथी अपनी व्यथा किस से कहे ? सारांश यह कि धर्म की जिज्ञासा सें प्रेरित हो कर भगवान गोसाई अपना घर छोड़ कर बाहर तो निकल आये और हरिव्यासी सम्प्रदाय के गड्ढे में गिर कर अकेले निर्वासित हो कर ऐसी स्थिति में पड़ चुके हैं। कबीर आडम्बरों के विरोधी थे। मूर्त्ति पूजा को लक्ष्य करती उनकी एक साखी है -
      पाहन पूजे हरि मिलैं, तो मैं पूजौंपहार। थाते तो चाकी भली, जासे पीसी खाय संसार।।
        119 वर्ष की अवस्था में मगहर में कबीर का देहांत हो गया। कबीरदास जी का व्यक्तित्व संत कवियों में अद्वितीय है। हिन्दी साहित्य के 1200 वर्षों के इतिहास में गोस्वामी तुलसीदास जी के अतिरिक्त इतना प्रतिभाशाली व्यक्तित्व किसी कवि का नहीं है।
प्रधानमंत्री संत कबीर दास की 500वीं पुण्यतिथि पर उनकी परिनिर्वाण स्थली पर जाकर उनकी मजार पर चादर चढ़ाएंगे. साथ ही वह कबीर अकादमी का शिलान्यास करेंगे

Tuesday, June 26, 2018

एक और साल गुजर गया और हम कुछ भी नहीं कर पाये



 मार्च 2017 में 30 साल की अवाध सेवा अवधि पूरा करने के उपरान्त मेरे कार्यालय ने मेरा 30 वर्षीय प्रोन्नति अपग्रेडेशन को आगे नहीं बढ़ाया था। समय से रिलीविंग आदेश नहीं जारी किया गया। फलतः समय व स्टाफ के अभाव में गलत रुप में प्रभार हस्तान्तरण रिपोर्ट बनवाया गया । एक लम्बी मिसिंग सूची बनाकर मेरी निष्ठा पर प्रश्न चिन्ह लगाया गया। पुस्तकालय का एक गलत आदेश का सहारा लेकर बहुत बड़ी रकम जुमार्ने के रुप में उतारी गयी। मेरा पक्ष जाने विना एकतरफा दण्डात्मक कार्यवाही की गयी। तीस साल के बाद मिलने वाले प्रोन्नति को रोकने के लिए गलत वार्षिक रिर्पोटिंग तैयार करवायी गयी। जो काम एक साल पहले होना चाहिए उसे लटकाया गया। मेरे अभिन्न शुभचिन्तक कहे जाने वाले लोगों ने मेरे अन्तिम सेवा के दौरान ना केवल असहयोग किया अपितु मेरा पूरा काम रोकने का भरपूर प्रयास भी किया। एक साल की मुफलिसी झेलते हुए बड़ी पैरवी तथा भाग दौड के बाद मेरा प्रोन्नति अपग्रेडेशन आदेश जारी किया गया।परन्तु अभी तक किसी प्रकार का लाभ नहीं मिल पाया है।
यह अवधि मेरे लिए असामान्य रही। माताजी को सदा सदा के लिए खोया। उनके प्रति हुए दुरव्यवहार जो मैंने नहीं किये, परन्तु हमारे जिस भी परिवारी जनने किये उसके अभिशाप से आज तक मुक्ति नहीं मिल पायी हैं । उनकी ही स्मृतियों तथा सम्पत्ति का उपभोग करते हुए उनकी आत्मा या शाया निरन्तर अपने पुराने कर्मों का हिसाब पूछती रहती है और प्रायः एक भी काम सामान्य गति से सम्पन्न नहीं होने देती है। अपने लोंगों के किये का कर्मफल भुगतने से मैं स्वयं को अलग नहीं कर सकता परन्तु यदि अन्त भला हो तो सब कुछ विसराने में हमें कोई गुरेज नहीं हैं। हमारे नियोक्ता ने मुझे एक साल की व्यथा देकर इस घड़ी को और ही दुगर्म बनाने का प्रयास किया। इसे अंगीकार करते हुए परम पिता से प्रार्थना करता हूं कि संकट की घड़ी को अवाध गति से काटते हुए अपने शरण में स्थान दीजिए और सांसारिक बस्तुओं तथा संचय की प्रवृत्ति से छुटकारा दिलाइये।

नारी सशक्तिकरण की सम्यक दिशा डा. राधेश्याम द्विवेदी

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नारी सशक्तिकरण के बिना मानवता का विकास अधूरा है। जब कई कार्य एक समय पर करने की बात आती है तो महिलाओं को कोई नहीं पछाड़ सकता। यह उनकी शक्ति है और हमें इस पर गर्व होना चाहिए। महिलाओं को खुद से जुड़े फैसले लेने की स्वतंत्रता होनी चाहिए हम तभी नारी सशक्तिकरण को सार्थक कर सकते हैं। नारी सशक्तिकरण में आर्थिक स्वतंत्रता की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। चाहे वो शोध से जुड़ी गतिविधियां हों या फिर शिक्षा क्षेत्र, महिलाएं काफी अच्छा काम कर रही हैं। कृषि के क्षेत्र में भी महिलाओं का महत्वपूर्ण योगदान है। प्रत्येक महिला में उद्यमिता के गुण और मूल्य होते हैं। यदि वे आर्थिक रूप से स्वतंत्र हों तो महिलाएं निर्णय प्रक्रिया में बड़ी भूमिका अदा कर सकती हैं। महात्मा गांधी ने कहा था, जब नारी शिक्षित होती है तो दो परिवार शिक्षित होते हैं। जब हम नारी को शिक्षित करते हैं तो केवल दो परिवारों बल्कि दो पीढ़ियों को शिक्षित करते हैं। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओआंदोलन तेज गति से आगे बढ़ रहा है। आज यह सिर्फ सरकारी कार्यक्रम नहीं रहा है, यह एक सामाजिक संवेदना का, लोक शिक्षा का अभियान बन गया है।महिला - वो शक्ति है, सशक्त है, वो भारत की नारी है, ज्यादा में, कम में, वो सब में बराबर की अधिकारी है।चाहे खेल हो या अंतरिक्ष विज्ञान, हमारे देश की महिलाएं किसी भी क्षेत्र में पीछे नहीं हैं। वे कदम से कदम मिला करआगे बढ़ रही हैं और अपनी उपलब्धियों से देश का नाम रौशन कर रही हैं। मानवता की प्रगति महिलाओं के सशक्तिकरण के बिना अधूरी है।
नारी सशक्तिकरण क्यों जरूरी :-महिला और पुरुष दोनों हो समाज की धुरी हैं, एक को कमजोर करके संतुलित विकास हो ही नही सकता। जब तक देश की आधी आबादी सशक्त नही होगी हम विकास की कल्पना भी नही कर सकते। समय की मांग है और समाज की जरूरत भी कि महिलाओं को भी पुरुषों के सामान अधिकार मिले, उनके साथ कदम से कदम मिलाकर चलें। हमारे भारतीय समाज में महिलाओं की अवस्था में काफी सुधार हुआ है लेकिन जिस तरह स्वस्थ रूप से सुधार की कल्पना की जाती है, सुधार हो सकता था वैसा सुधार नही हुआ है, आने वाले समय में महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए इस दिशा में अभी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। पहले की अपेक्षा महिलाओं की दशा पर सुधार तो हुआ है लेकिन अभी भी देश की आधी आबादी अपने अनेक अधिकारों से वंचित है। आज भी हमारे सामने पीड़ित महिलाओं के उदाहरणों में कमी नही है। समाचार पत्र, समाचार चैनल, वेब चैनल, रेप, दहेज़ के लिए हत्या, भ्रूण हत्या की घटनाओं से भरे पड़े मिलते हैं, इन आंकड़ों में दिन दिन बढ़ोतरी हो रही है। महिलाओं से होने वाली हिंसा और शोषण की घटनाएं खत्म होने का नाम नही ले रही। आज हर क्षेत्र में पुरुष के साथ ही महिलाएं भी तमाम चुनौतियों से लड़ रही हैं, सामना कर रही हैं, कई क्षेत्रों में तो महिलाएं पुरुषों से आगे हैं। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि समाज के कुछ पुरुष प्रधान मानसिकता वाले तत्व यह मानने के लिए तैयार नही हैं कि महिलाएं भी उनकी बराबरी करें, ऐसे लोग महिलाओं की खुले विचार वाली कार्य शैली को बर्दाशत नही कर  पाते हैं। शायद इसलिए कभी तस्लीमा नसरीन जी चर्चित हुई तो कभी दीपा मेहता। आज भी हमारे समाज में महिला केंद्रित आलेख और सिनेमा आसानी से स्वीकार नही किए जाते हैं, कहीं कहीं उनका विरोध शुरू हो जाता है। क्या महिलाओं को अधिकार नही है कि वे खुलकर अपने विचारों को समाज के सामने रखें ? अगर देश की आधी आबादी का यूं ही अनदेखा किया जाएगा, उनका शोषण किया जाएगा, ऐसे में उनके बिना समाज का विकास कैसे संभव है।
क्या है यह नारी सशक्तिकरण  :- हम यह कह सकते हैं कि महिलाओं को अपनी जिंदगी के हर छोटे-बड़े हर काम का खुद निर्णय लेने की क्षमता होना ही सशक्तिकरण है। अपनी निजी स्वतंत्रता और खुद फैसले लेने के लिए महिलाओं को अधिकार देना ही महिला सशक्तिकरण है। प्रचीन काल से आज तक अपनी सभ्यता, संस्कृति परम्परा हर तरह से हमारे समाज में पुरुषों को ही  प्राथमिकता दी गई।  एक समय था महिलाओं को शिक्षा से वंचित रखा जाता था, मुख्यधारा से नही जुडऩे दिया जाता था और ही कोई रोजगार करने दिया जाता था, उन्हें सिर्फ घर की चार दिवारी में कैद करके रखकर कभी मंगलसूत्र के बन्धन में तो कहीं ममता के मोह में बांधकर, कहीं पत्नी के रूप में तो कहीं मां के रूप में चार दिवारी के भीतर कैद रखा गया।
ईमानदारी से प्रयास नही हो रहा है:- अब हालात पहले जैसे नही हैं महिलाएं, शिक्षित होने लगीं हैं, हर क्षेत्र में आगे बढऩे लगी हैं, लेकिन फिर भी सवाल वहीं की वही है कि क्या महिलाओं का शोषण बन्द हो गया है? क्या महिलाओं पर होने वाली हिंसा रुक गई है? यह वह सवाल हैं जो दशकों से समाज पर प्रश्न चिन्ह लगाये हुए हैं, समाज में कालिख की तरह पुते हुए हैं। चर्चा तो होती है लेकिन चिंतन नही होता, प्रयास तो होते हैं लेकिन सुधार नही होता। आखिर क्यों? ऐसा क्यों? शायद हम इस ओर पूरी इच्छा शक्ति और ईमानदारी से चर्चा और प्रयास नही कर रहे। जन्म से पहले कन्या भ्रूण हत्या किया जा रहा है, दहेज के लिए आए दिन महिलाओं की हत्या हो रही है, रेप की घटनाओं के बढ़ते आंकड़े देखे तो मन विचलित होता है। भारतीय संविधान ने महिला पुरुष को समानता का अधिकार दिया है, साथ ही हमारी सरकारों ने भी महिलाओं के लिए अनेक योजनाएं चालू की हैं, इसके बावजूद समाज में महिला-पुरुष को लेकर अनेक तरह के भेद-भाव बना दिए गये हैं और हर जगह महिलाओं को कमतर आंकने की कोशिश की गई है, यह महिलाओं के साथ अन्याय नही है तो और क्या है।
पुरुष में सोच पैदा हो :- संविधान, सरकार से लेकर सामाजिक संगठन तक में महिला सशक्तिकरण की बात तो होती है लेकिन महिला सशक्त नही हो पाई है। यह सत्य है कि महिला सशक्तिकरण तब तक संभव नही जब तक हमारे समाज के पुरुष प्रधान रवैये की में यह सोच पैदा हो जाये कि महिला भी पुरुष से कम नही है साथ ही महिलाओं को भी अपने अधिकारों के लिए आगे आना होगा और अपनी कार्यक्षमता से अपनी शक्ति का, खुद के सशक्त होने का परिचय देना होगा। महिलाओं को दिखाना होगा की नारी सिर्फ भोग की वस्तु नही है बल्कि वह भी समाज का अहम हिस्सा है। महिलाओं को जागना होगा और दिखाना होगा की वह लाचार नही है उसे लाचार बनाया गया है। अब जागरूकता की परम आवश्यकता है, नारी को खुद को पहचानने की, अपने-आप को जानने की जरूरत है। अपने विकास, उन्नति, प्रगति समृद्धि और अधिकारों के लिए नारी हर पल चौकन्ना रहें, जागरूक बने और दूसरी नारी सशक्ति को भी प्रेरित करें। समाज का संतुलित विकास नारी के सशक्त होने पर ही सम्भव है। महिलाओं को शिक्षा तथा सोच से हर तरह से अपने-आप को सशक्त करने का समय गया है। महिलाओं को मानसिक रूप से मजबूत होकर खुद को अपने-आप को प्रस्तुत कर हर जगह शिखर पर स्थापित करना होगा, साथ ही सशक्त होने के लिए पुरुषों की सोच को भी बदलना होगा कि हम नारी आपसे कम नही हैं। परिवर्तन लाना जरूरी हैं क्योंकि नारी शक्ति को मुख्य धारा से जोड़े बिना विकास सम्भव नही है, इसलिए हर महिला को खुद से अपने घर से शुरुआत करनी होगी खुद को सशक्त बनाने की और अपने आस-पास की महिलाओं को भी जागरूक करना होगा, जागरूकता का माध्यम जो भी हो लेकिन खुद को सशक्त बनाने हेतु जागरूकता जरूर लाएं, साथ ही अपने अंदर निर्णय लेने की, नेतृत्व करने की क्षमता पैदा करें, साहसी बने, दृण निश्चयी बने, आत्म विश्वाशी बनें, क्योंकि नारी सशक्त होगी तभी हम देश और समाज के उज्ज्वल भविष्य की कल्पना कर सकते हैं, एक सशक्त नारी के कन्धों पर ही संतुलित, स्वस्थ, विकसित समाज की नींव रख सकतें हैं। 
नारी को खुद की शक्तियों को पहचानना होगा :- वर्षों से महिलाओं को चार दिवारी के अंदर कैद रखने और उसे शोषित करने की जो धारणा है, जो सोच है उसे पूरी तरह से दफन कर जागरूकता की ज्योति जलाकर एक नए सुन्दर समाज की स्थापना करना है। एक तरफ देवियों की पूजा अर्चना की जाती है तो दूसरी तरफ महिलाओं से दोयम दर्जे का व्यवहार कर भेदभाव किया जाता है। क्या यही महिला सशक्तिकरण है। नही, बिल्कुल नही यह सिर्फ छल है इस छल से बाहर आना होगा, महिलाओं को अपने-आप को खुद की शक्तियों को पहचानना होगा और आगे बढऩा होगा। देश को उन्नत शील बनाना है, एक सुदृण समाज की परिकल्पना को साकार करना है, इसलिए मैं समस्त नारी सशक्ति से आह्वाहन करती हूं उठो, जागो आगे बढ़ो अपने अधिकारों के लिए तुम्हे ही लडऩा होगा, आगे बढऩा होगा। इस पुरुष प्रधान समाज में पुरुषों की सोच भी तुम्हे गई बदलना है, खुद को स्थापित करना है और साबित करना है कि हम भी पुरुषों से कम नही, बल्कि हम एक कदम आगे हैं। यह दिखाना होगा करके दिखाना होगा, अपना लोहा खुद मनवाना होगा,इसलिए जागों, जागरूक बनो, मजबूत बनो, आगे बढ़ो, सशक्त बनो। तभी सही मायने में महिला सशक्तिकरण का चिंतन साकार होगा, प्रयास पूरा होगा और एक नए भारत स्वस्थ-संतुलित समाज का निर्माण होगा।

आंबेडकर का हिंदू कोड बिल महिला सशक्तिकरण का असली आविष्कार :- किसी भी स्वस्थ समाज को एक दायरे में रखने के लिए कुछ सामाजिक कायदे कानून होने चाहिए ताकि समाज उनका पालन करता हुआ अपना अस्तित्व बनाये रखे| इसलिए संवैधानिक रूप से भारत के महिला सशक्तिकरण के लिए पहला कानूनी दस्तावेजहिंदू कोड बिलतैयार किया गया था| आंबेडकर नेमहिला वर्गके सशक्तिकरण के लिएहिंदू कोड बिलनामक प्रामाणिक कानूनी दस्तावेज़ साल 1951 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित . नेहरु के मंत्रिमंडल में केंद्रीय विधि मंत्री रहते हुए संसद में पेश किया| पर कुछ धार्मिक मतभेदों के कारण बहुत सांसदों ने बिल का विरोध किया| लिहाजा यह बिल पारित नहीं हो सका|आंबेडकर यह बात समझते थे कि स्त्रियों की स्थिति सिर्फ ऊपर से उपदेश देकर नहीं सुधरने वाली, उसके लिए क़ानूनी व्यवस्था करनी होगी| इस संदर्भ में महाराष्ट्रीयन दलित लेखक बाबुराव बागुल कहते हैहिंदू कोड बिल महिला सशक्तिकरण का असली आविष्कार है|’ हिंदू कोड बिलभारतीय महिलाओं के लिए सभी मर्ज़ की दवा थी| क्योंकि आंबेडकर समझते थे कि असल में समाज की मानसिक सोच जब तक नहीं बदलेगी तब तक व्यावहारिक सोच विकसित नहीं हो सकेगी| पर अफ़सोस यह बिल संसद में पारित नहीं हो पाया और इसी कारण आंबेडकर ने विधि मंत्री पद का इस्तीफ़ा दे दिया| इस आधार पर आंबेडकर को भारतीय महिला क्रांति कामसीहाकहना कहीं से भी अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा|आंबेडकर ने कहा था – मैं नहीं जानता कि इस दुनिया का क्या होगा, जब बेटियों का जन्म ही नहीं होगा|’ स्त्री सरोकारों के प्रति डॉ भीमराव आंबेडकर का समर्पण किसी जुनून से कम नहीं था| सामाजिक न्याय, सामाजिक पहचान, समान अवसर और संवैधानिक स्वतंत्रता के रूप में नारी सशक्तिकरण लिए उनका योगदान पीढ़ी-दर-पीढ़ी याद किया जायेगा|

दिशा सम्यक संतुलित तथा संपूरक हो:- ओशो जी का कहना है कि नारी यदि पुरुषों का नकल करेंगी तो कभी भी नम्बर एक नहीं बन सकेगीं। विज्ञान या समाज के किसी भी  क्षेत्र में वह कदापि पुरुषों से आगे नहीं निकल सकती हैं। उन्हें अपनी प्रकृति क्षमता के अनुकूल कार्य चुन लेनी चाहिए। उन्हें अपने अन्दर छिपी प्रतिभा को पहचाननी चाहिए। उसे प्रकट कर सुख शांति से प्रगति करने पर सुखी बन सकेंगी। उन्हें अपने गुणों को विकसित करना चाहिए। उनके भीतर छिपी कोमलता, ममता,दया और करुणा को जगाना चाहिए। भाषाशास़्त्री ने उनकी प्रकृति के अनुसार सभी स्त्रीलिंग गुणों का विकास उनमें किया है।प्रार्थना ,भावना मंगलकामना आदि शब्द और गुण नारी में विशेषरुप से देखे जा सकते हैं। पुरुष यदि बाह्य जगत से जीविका चलाने के लिए संघर्षशील रहा तो नारी परिवार संभालने वाली, सजाने वाली, घर गृहस्थी को चलाने वाली रही। दोनों की भूमिकाएं सदैव अलग- अलग रही तथा एक दूसरे की पूरक रही। इस प्रकार ही दोनों के जीवन में पूर्णता संभव है। इसमें प्रतिद्वद्विता की गुंजाइस नहीं रहेगी। दोनों में हीनता , ईष्या आदि कोई् विकार नहीं पनप सकते हैं। यदि कभी एसे अवसर आये तो अध्यात्म ज्ञान की दीक्षा से इसे सही मार्ग की तरफ मोड़ा जा सकता है। नारी की सही दिशा उसे महान से महानतम तथा जगत जननी का दर्जा दिला सकती है। पुरुष उसका सहचर बनकर उसका अनुगामी तथा संरक्षक बन सकता है।