बस्ती
का इतिहास :- 'बस्ती को बस्ती कहूं, काको कहू उजाड़' किसी और कालखण्ड
में कहा गया था, बात 153 साल पुरानी हो गयी है। बस्ती न तब विभूतियों से खाली से थी
और न आज। बस्ती जनपद की प्रतिभायें देश के कोने कोने में सम्मानित हो रही हैं, बस्ती
का अपना पौराणिक महत्व है, ऐसे में बस्ती को उजाड़ कहकर सम्बोधित करना जनपद के साथ न्याय
नही होगा। बस्ती जनपद के बारे में पूर्व की धारणाओं को से ऊपर उठने की जरूरत है। किंवदंतियों के अनुसार, सदियों से बस्ती
एक जंगल था और अवध की अधिक से अधिक भाग पर भार कब्जा था। भार के मूल और इतिहास के बारे
में कोई निश्चित प्रमाण शीघ्र उपलब्ध नही है। जिला में एक व्यापक भर राज्य के सबूत
के रुप मे प्राचीन ईंट इमारतों के खंडहर लोकप्रिय है जो जिले के कई गांवों मे बहुतायत
संख्या में फैले है। बस्ती जनपद 153 साल का
हो गया है जी हां बस्ती अपनी वर्षगांठ मनाएगा। शासन प्रशासन को यह बात कभी याद नहीं
रही। बुद्धिजीवियों ने पहल कर भावी पीढ़ी को जिले के इतिहास से रूबरू कराने की ठानी
है। यहां मनवर, महराजगंज और चंगेरवा महोत्सव तो मनाया जाता है लेकिन बस्ती महोत्सव
कभी नहीं मना। प्राचीन काल में बस्ती को भगवान राम के गुरु वशिष्ठ ऋषि के नाम पर वाशिष्ठी
के नाम से जाना जाता रहा, कहा जाता है कि उनका यहां आश्रम था। अंग्रेजों के जमाने में
जब यह जिला बना तो निर्जन,वन और झाड़ियों से घिरा था। लोगों के प्रयास से यह धीरे-धीरे
बसने योग्य बन गया। वर्तमान नाम राजाकल्हण द्वारा चयनित किया गया था। यह बात 16वीं
सदी की है। 1801 में यह तहसील मुख्यालय बना और 6 मई 1865 को गोरखपुर से अलग होकर नया
जिला मुख्यालय बनाया गया। अयोध्या से सटा यह जिला प्राचीन काल में कोशल देश का हिस्सा
था। रामचंद्र राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र थे जिनकी महिमा कौशल देश में फैली हुई थी
जिन्हें एक आदर्श वैध राज्य, लौकिक राम राज्य की स्थापना का श्रेय जाता है। परंपरा
के अनुसार राम के बड़े बेटे कुश कौशल के सहासन पर बैठे जबकि छोटे लव को राज्य के उत्तरी
भाग का शासक बनाया गया जिसकी राजधानी श्रावस्ती थी। इक्ष्वाकु से 93वीं पीढ़ी और राम
से 30 वीं पीढ़ी में बृहद्वल था। यह इक्ष्वाकु शासन के अंतिम प्रसिद्ध राजा थे,जो महाभारत
युद्ध में चक्रव्यूह में मारे गए थे। भगवान बुद्ध के काल में भी यह क्षेत्र शेष भारत
से अछूता न रहा। कोशल के राजा चंड प्रद्योत के समय यह क्षेत्र कोशल के अधीन रहा। गुप्त
काल के अवसान के समय समय यह क्षेत्र कन्नौज के मौखरी वंश के अधीन हो गया। 9वीं शताब्दी
में यह क्षेत्र फिर पुन: गुर्जर प्रतिहार राजा नागभट्ट के अधीन हो गया।1225 में इल्तुतमिश
का बड़ा बेटा नासिर उददीन महमूद अवध का गवर्नर बन गया और इसने भार लोगों के सभी प्रतिरोधों
को पूरी तरह कुचल डाला। 1479 में बस्ती और आसपास के जिले जौनपुर राज्य के शासक ख्वाजा
जहान के उत्तराधिकारियों के नियंत्रण में था। बहलूल खान लोधी अपने भतीजे काला पहाड़
को इस क्षेत्र का शासन दे दिया। उस समय महात्मा कबीर,प्रसिद्ध कवि और दार्शनिक इस जिले
के मगहर में रहते थे। अकबर और उनके उत्तराधिकारी के शासनकाल के दौरान बस्ती अवध सूबे
गोरखपुर सरकार का एक हिस्सा बना हुआ था। 1680 में मुगलकाल के दौरान औरंगजेब ले एक दूत
काजी खलील उर रहमान को गोरखपुर भेजा था। उसने ही गोरखपुर से सटे सरदारों को राजस्व
भुगतान करने को मजबूर किया था। अमोढ़ा और नगर के राजा को जिन्होंने हाल ही में सत्ता
हासिल की थी राजस्व का भुगतान करने को तैयार हो गए। रहमान मगहर गया,यहां उसने चौकी
बनाई और राप्ती के तट पर बने बांसी राजा के किले को कब्जा कर लिया। नवनिर्मित जिला
संतकबीरनगर का मुख्यालय खलीलाबाद शहर का नाम खलील उर रहमान से पड़ा,जिसका कब्र मगहर
में मौजूद है। उसी समय गोरखपुर से अयोध्या सड़क का निर्माण हुआ था। एक महान और दूरगामी
परिवर्तन तब आया जब 9 सितंबर 1772 में सआदत खान को अवध सूबे का राज्यपाल नियुक्त किया
गया जिसमें गोरखपुर का फौजदारी भी था। उस समय बांसी और रसूलपुर पर सर्नेट राजा का,बिनायकपुर
पर बुटवल के चौहान का,बस्ती पर कल्हण शासक का,अमोढ़ा पर सूर्यवंश का नगर पर गौतम का,महुली
पर सूर्यवंश का शासन था। अकेले मगहर पर नवाब का शासन था। मुस्लिम शासन काल में यह क्षेत्र
कभी जौनपुर तो कभी अवध के नवाबों के हाथ रहा।
बस्ती जनपद मुख्यालय की स्थापना :- अंग्रेजों ने मुस्लिमों
से जब यह इलाका प्राप्त किया तो गोरखपुर को अपना मुख्यालय बनाया। शासन सत्ता सुचारू
रूप से चलाने और राजस्व वसूली के लिए अंग्रेजों ने 1865 में इस क्षेत्र को गोरखपुर
से अलग किया। 6 मई
1865 को गोरखपुर जिले से कटकर से
बस्ती जनपद का मुख्यालय बना।
1988 में इस विशाल जिले
के उत्तरी हिस्से को काटकर सिद्धार्थनगर
जिला बनाया गया। 1997 में बस्ती के पूर्वी खलीलाबाद
को केन्द्रित हिस्से को काटकर संतकबीरनगर
जिला बनाया गया। बाद में जुलाई 1997 में बस्ती मंडल मुख्यालय बनाया गया। इसमें तीन जिले बस्ती, सिद्धार्थनगर तथा संतकबीरनगर तथा तीन संसदीय क्षेत्र बस्ती डुमरियागंज तथा खलीलीबाद बने। यदि वर्तमान सरकार व जनप्रतिनिधि अपनी
भूमिका का बेहतर निर्वहन
करें तो कल्याणकारी योजनाओं
के क्रियान्वयन में होने वाले भ्रष्टाचार पर प्रभावी अंकुश
लगाया जा सकता है।
बेरोजगारी, अशिक्षा, चिकित्सा, शिक्षा क्षेत्र का अभाव बस्ती
मण्डल की बडी चुनौतियां
है। आजादी के 7 दशक बाद भी बाढ पर
प्रभावी नियंत्रण नहीं हो सका है।
औद्योगिक विकास के लिये प्रभावी
संसाधन जुटाये जाने की जरूरत है,
जिससे युवाओं के पलायन पर
रोक लग सके। बस्ती
मण्डल का स्वरूप तभी
विकसित होगा जब कल कारखानें
चलें और पौराणिक, ऐतिहासिक
स्थलों को पर्यटन के
रूप में विकसित किया जाय।
हरीश द्विवेदी उदीयमान जुझारु नेता :-उत्तर
प्रदेश भारतीय जनता पार्टी के एक साधारण
परिवार जन्में श्री हरीश द्विवेदी जुझारू तेवर के उदीयमान नेता
थे। 2014 के सोलहवीं लोकसभा
चुनावों में वे उत्तर प्रदेश
की बस्ती सीट से भारतीय जनता
पार्टी के टिकट पर
चुनाव लड़कर सांसद निर्वाचित हुए। उन्होंने जिले के एक एतिहासिक
व पिछड़े अमोढ़ा ग्राम पंचायत को संसद आदर्श
ग्राम योजना में चयन किया है। वे विकसित बस्ती
के संकल्प को साकार करने
के लिए सतत प्रयासशील हैं। विजली पानी सड़क मेडिकल कालेज, रिंग रोड ,रेलवे, विद्दुतिकरण सहित आम जनमानस के
मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के
लिए वह केंद्र सरकार
द्वारा हर संभव विकास
कार्य जनपद करवा रहे हैं। पिछले तीन वर्षों से बस्ती जनपद
सड़क, बिजली, पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा के क्षेत्र में
निरंतर विकास कर रहा है।
उनके अथक प्रयास से केंद्र के
कई मंत्री जनपद में आये जिससे विभिन्न मंत्रालयों के सहयोग से
अलग अलग विभागों के द्वारा विकास
कार्य करवाये जा रहे हैं।
बस्ती विगत तीन वर्षों में जो मुकाम बना
लिया है और जो
सम्भावना दिख रही है वह विगत
कई दशकों से नही दिख
रही थी। आजादी के बाद केवल
फोर लेन और केंद्रीय विद्यालय
ही इस मण्डल की
उपलब्धि रही है। भाजपा के अटल जी
के शासन में कई जनोपयोगी योजनाएं
शुरू हुए कुछ के सकारात्मक परिणाम
भी दिखे किन्तु सहयोगी दलों ने बहुत अवरोध
समय समय पर डाले। वर्तमान
माननीय मोदी जी की सरकार
तथा हरीश जी के निरन्तर
प्रयास से जिले ने
बड़ी मजबूती से अपनी पहचान
बनानी और छाप छोड़नी
शुरू कर दी है।
कालेज में एडमिशन भी एक समस्या :- असंवेदनशील प्रशासन कैसे दीमक की तरह आम
आदमी को चाट जाती
है, इसका उदाहरण उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले
में देखने को मिल रहा
है. बस्ती जिले में नौकरी मिलना तो दूर की
कौड़ी है, छात्रों को कालेज में
एडमिशन तक नहीं मिल
रहा है. एक छात्र नेता
ने जब छात्रों के
हक की बात की
तो मामला कालेज प्रबंधन मारपीट पर उतर आया.
प्रशासन को हांकने वाले
डीएम-एसपी अपनी नाकामी छुपाने के लिए छात्र
नेता सहित दर्जन भर छात्रों के
खिलाफ मुकदमा दर्ज कर दिया. ये
वही जिला है जहां पीड़ित
आदमी को अपनी एफआईआर
दर्ज कराने के लिए नाको
चने चबाने पड़ते है.
प्रशासन निरंकुश :- अगर लोकतंत्र के पहरी या
जनप्रतिनिधि नहीं जागरुक नहीं हुए तो प्रशासन निरंकुश
हो जाता है। अगर पत्रकार जागरुक नहीं हुए तो जनप्रतिनिधियों के
निरंकुश होने की आशंका बढ़
जाती है। यदि कहीं इन तीनों का
गठजोड़ हो जाये तो
न्यायपालिका ही अंतिम सहारा
होती है। बस्ती जिले में मामला पहले स्तर का है। योगीजी
की सरकार को तय करना
होगा कि जिले की
सच्चाई किससे सुनना पसन्द करेंगे? प्रशासन से या जनप्रतिनिधियों
से। हिंदी भाषा के महान आचार्य
रामचंद्र शुक्ल, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना तथा महान शिक्षक डा. सरस की जन्मभूमि बस्ती
बिलख रही है। उसकी संताने कालेज में प्रवेश लेने के लिए मुकदमे
झेल रही है। बस्ती जिले के हालात इतने
बिगड़ते जा रहे हैं
कि योगीजी का प्रशासन नहीं
चेता तो नक्सली, आरक्षण
विरोधी, किसान आंदोलन यहां अपनी जड़े जमा सकता है. जिसके लिए खाद और पानी का
इंतजाम जिला प्रशासन बखूबी उपलब्ध करा रहा है।
नोटबन्दी का
असर खत्म नहीं , एटीएम खाली रहते हैं
:- .एक साल से ज्यादा हो गया परन्तु बस्ती में नोटबन्दी का असर अब भी देखा जा सकता
है मसलन बैंकों में लाइने खाली एटीएम तथा अपने
पैेसे के लिए मारा मारी करते आम नागरिक देखे
जा सकते हैं। जिले के अधिकारी तथा जन प्रतिनिधियों को इन बातों से कोई लेना देना नहीं
है। 2019 के चुनाव पर इसका असर देखा जा सकता है।
इतिहास माफ नहीं करता :-अभी ज्यादा विगड़ी स्थिति नहीं आयी है। इसे संभाला जा सकता है।
शासन व संगठन में
सामंजस्य स्थापित कर विकास की
गति को अंजाम दिया
जा सकता है। पूर्वांचल को प्रदेश का
नेतृत्व करने का अवसर सदियों
में कभी कभी ही आता है।
कांग्रेस के नेता स्व.
बीरबहादुर सिंह के बाद यह
दायित्व माननीय योगीजी पर आया है।
इसका सार्थक समाधान माननीय योगीजी को ही खोजना
है कि उनके अधिकारी
उनकी नीतियों को सही ढ़ंग
से क्रियान्वित कर सकें तथा
जनता की समस्याओं का
निदान भी जनप्रतिनिधियों के
सुझाव व सम्मान के
साथ हो सके। अन्यथा
इतिहास किसी को माफ नहीं
करता है। चाहे व भगवान राम
हों भगवान बुद्ध या उनके आज
के उत्तराधिकारी।
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