किसी भी समाज अथवा राष्ट्र के उत्थान में पुस्तकालयों का अपना विशेष महत्व है। इनके माध्यम से निर्धन छात्र भी महँगी पुस्तकों में निहित ज्ञानार्जन कर सकते हैं। कुछ प्रमुख पुस्तकालयों में विज्ञान व तकनीक अथवा अन्य विषयों की अनेक ऐसी दुर्लभ पुस्तकें उपलब्ध होती हैं जिन्हें सहजता से प्राप्त नहीं किया जा सकता है। अत: हम पाते हैं कि पुस्तकालय ज्ञानार्जन का एक प्रमुख श्रोत है जहाँ श्रेष्ठ लेखकों के महान व्याख्यानों व कथानकों से परिपूर्ण पुस्तकें प्राप्त की जा सकती हैं। इसके अतिरिक्त समाज के सभी वर्गों- अध्यापक, विद्यार्थी, वकील, चिकित्सक, वैज्ञानिक व पुराविद आदि के लिए एक ही स्थान पर पुस्तकें उपलब्ध होती हैं जो संपर्क बढ़ाने जैसी हमारी सामाजिक भावना की तृप्ति में भी सहायक बनती हैं। पुस्तकालयों में प्रसाद, तुलसी, शेक्सपियर, प्रेमचंद जैसे महान साहित्यकारों, कवियों एवं अरस्तु, सुकरात जैसे महान दार्शनिकों और चाणक्य, मार्क्स जैसे महान राजनीतिज्ञों की लेखनी उपलब्ध होती है। इन लेखनियों में निहित ज्ञान एवं अनुभवों को आत्मसात् कर विद्यार्थी सफलताओं के नए आयाम स्थापित कर सकता है। अत: पुस्तकालय हमारे राष्ट्र के विकास की अनुपम धरोहर हैं। इनके विकास व विस्तार के लिए सरकार के साथ-साथ हम सभी नागरिकों का भी नैतिक कर्तव्य बनता है जिसके लिए सभी का सहयोग अपेक्षित है।
पुस्तकालय
विज्ञान तकनीकी विषयों की श्रेणी में आता है तथा एक सेवा सम्बन्धी व्यवसाय है। यह
प्रबंधन, सूचना प्रौद्योगिकी, शिक्षाशास्त्र एवं अन्य विधाओं के सिद्धान्तो एवं
उपकरणों का पुस्तकालय के सन्दर्भ में उपयोग करता है। पुस्तकालय विकासशील संस्था है
क्योंकि उसमें पुस्तकों और अन्य आवश्यक उपादानों की निरंतर वृद्धि होती रहती है।
इस कारण इसकी स्थापना के समय ही इस तथ्य पर ध्यान देना आवश्यक होता है। यह संचरण
इकाइयों के इतिहास, संगठन, प्रबंधन, विभिन्न तकनीको, सेवाओं, समाज के प्रति उनके
कर्तव्यों तथा सामान्य कार्य कलापों का सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक अध्ययन पर
आधारित एक वृहद् विषय है। इसका आकार-प्रकार तथा परिसीमा विषय व सूचना जगत के साथ
निरंतर बदलता रहता है। इसलिए पुस्तकालय विज्ञान की शिक्षा में पुस्तकालय की
विभिन्न तकनीकियों एवं प्रविधियों के साथ-साथ पुस्तकालय सम्बन्धी विभिन्न सेवाओं
का भी पर्याप्त ज्ञान एवं जानकारी प्रदान की जाती है।
शियाली
रामामृत रंगनाथन की "The Five Laws of Library Science (1931)“ प्रकाशित हुयी जिससे पुस्तकालय विज्ञान का प्रचलन
आरंभ हुआ। रंगनाथन नें पुस्तकालय के कार्य एवं उद्देश्य भी स्पष्ट किये। रंगनाथन
द्वारा 1931 में पुस्तकालय विज्ञान हेतु पांच सूत्र प्रतिपादित किये। इसके
अनुसार :
1. पुस्तक उपयोग के लिए हैं।
2. प्रत्येक पाठक को उसकी
पुस्तक मिले।
3. प्रत्येक पुस्तक को उसका
पाठक मिले।
4. पाठक का समय बचाएं।
5. पुस्तकालय वर्धनशील संस्था
है।
वास्तव में पुस्तकालय विशुद्ध व्यवसाय
की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। जीविका के साधन को यदि छोड़ दे तो यह एक साधना है,
तपस्या है तथा सेवा करने का जुनून है। जिस व्यक्ति में ये सब सात्विक गुण होगें ,वहीं
अच्छा पुस्तककर्मी बन सकता है। इसे अन्य व्यवसायों की तरह कदापि नहीं समझना चाहिए।
यदि अधिकारी पाठक तथा व्यवस्थापक सभी का सहयोग रहेगा, तभी यह मिशन सफलता पूर्वक कामयाब हो सकता है। इसके
लिए नियमों की शिथिलता तथा उदार भावना होना बहुत ही जरुरी होता है। एसा ना हो सकने
पर सब कुछ यांत्रिक जैसा ही दिखाई पड़ेगा जो पुस्तकालय विज्ञान के सिद्धान्तों के अनुकूल
कभी भी नहीं हो सकता है। पुस्तकालय वह स्थान है जहाँ विविध प्रकार के ज्ञान, सूचनाओं, स्रोतों,
सेवाओं आदि का संग्रह रहता है।
इस व्यवसाय में विद्धान, घर से सम्पन्न तथा ज्ञान के पिपासुओं के आने से इस व्यवसाय
की पवित्रता बनी रहती है। वह अपने लिए नहीं अपितु समाज राज्य या राष्ट्र के लिए जीता
है और स्वयं को समर्पित करता है। यदि एसा भाव वह नहीं बना पा रहा है तो इसे जीविका
के किसी अन्य विकल्प की तलाश करनी चाहिए और पुस्तकालय की पवित्रता पर आंच नहीं आने
देना चाहिए।
जीवन के सबसे प्रमुख काल उसका सेवायोजन काल होता है। बचपन में वह
परिपक्वता नहीं आती है जो सेवाकाल में होती है। अपने कीमती जीवन के सेवा व तपस्या से
साधक ना केवल अपने जीवन में अपितु अपने परिवेश पर भी सकारात्मक प्रभाव डालता है। अज्ञान
से ज्ञान तथा अशिक्षा से शिक्षा के पथ पर उजियारा करने वाले एक साधक पथप्रर्दशक के
मार्ग में एसा अंधेरा उसके उपकृत्य जन द्वारा
किया जायेगा इसकी किसी ने परिकल्पना तक नहीं की थी। ग्रंथालयी जीवन स्वयं में
एक साधना होती है ऊपर से शोध संस्थान की बात ही कुछ और है। कमीशन से सीधे चयनित होकर
आये हमारे ये भावी नियन्ता को संदर्भ ग्रंथ लिखने देखने तथा उसे व्यवथित करने का ज्ञान
तक नहीं होता है। यह तो ग्रंथालयी की उदारता तथा कर्तव्य बोध होता है कि एक कच्चे घड़े
को सुन्दर आकार में परिपक्व बनाने की सभी अनुकूल परिथितियां उत्पन्न करता हैं उनमें
स्थायित्व लाने के लिए उनके दिलो दिमाग में उठ रहे अनेक विचारों को शव्दों का जामा
पहनाने का काम करता है।
तीस साल जीवन की लम्बी साधना का मूल्य तो कुशल चितेरा की कर सकता
है। विना साधना व विना प्रयास के वंशानुगत प्रभाव से यदि विहार के यादव परिवार की तरह
जरुरत जिसे आपेक्षा से बढ़कर कोई पद या लाभ मिल जाएगा तो वह उसे कहां तक संभाल सकता
है। वह उथले तालाब की तरह अतिरेक में ऊपर हिलोरे मारेगा ही और
गलत सही कदम उठाने को वह प्रेरित हो सकेगा।
काश ! यदि गुण दोष का सम्यक आकलन होता और खुले दिमाग से चिंतन या मूल्यांकन किया
गया होता तो किसी को किसी प्रकार की असुविधा या अनदेखी कैसे हो सकती है। किसी क्षति
का आकलन उसके तत्कालिक मूल्य से किया जाता है ना कि उसके आने वाले काल्पनिक परिणाम
से। एक अच्छा अधिकारी वही कहा जा सकता है जो किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित ना होकर तथा
सदा उदारवादी व सकारात्मक विचार व चिंतन वाला हो। नियम कानून किसी व्यवस्था के अच्छे
पक्ष का सम्पूरक होता है। वह उसका अवरोधक कभी नहीं बन सकता है। यदि इस नियम का सम्यक
अनुपालन ना किया जाय तो वह निर्णय निष्पक्ष कैसे कहा जा काता है। नियम का गलत अर्थ
लगाना तथा पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर निर्णय करना कभी आदर का पात्र नहीं बन सकता है।
पुस्तकालय प्रभारी से ना तो किसी प्रकार की सिकोरटी डिपाजिट
होती है और ना ही सामान्य या प्राकृतिक क्षति की भरपायी ही की जाती है। यहां तक कि जनरल फायनेसियल रुल्स में प्रति हजार
5 पुस्तकें प्रकृतिक क्षति की श्रेणी में रखा गया है। इसे विभागाध्यक्ष द्वारा राइट
आफ किया जाता है। गुणांक कन्सेप्ट का कोई कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। भारतीय पुरातत्व
सर्वेक्षण के पुस्तकालयी इतिहास में एसा एक भी प्रमाण उपलब्ध नहीं है जिस प्रकार से
मिसिंग की भरपायी के लिए पुस्तकालय प्रभारी से दस गुणे कीमत जमा करने का आदेश पारित
किया है।
गुणांक का चक्कर यदि सीधे गति की तरफ जाता है तो विषयवस्तु को मजबूती
प्रदान करता है यदि उस गति का क्रम असावधानी या प्रमाद बस उल्टा हो जाय तो सारी पूर्व
व्यवस्था घ्वस्त कर सकता है। गुणांक और भागांक आपस में भिढ़कर स्वयं का अस्तित्व समाप्त
कर सकते है। इसलिए इससे दूर रहने की जरुरत है। इसलिए सुधी जन इस सबके चक्कर में नहीं
पड़ते हैं। सामान्य क्रम से किया गया काम स्थायी व सुरक्षित होता है। ईशवर हम सब को सद्बुद्धि
दें कि हम समाज के लिए कुछ सकारात्मक कदम उठा सकें। भस्मासुर बनना तथा प्रकृति के नियमों
को उल्टना कोई बृद्धिमानी
नहीं है। अस्तु हम यहीं कहेंगे –
‘सर्वे भवन्ति सुखिनः
सर्वे सन्तु निरामया।‘
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