6 दिसम्बर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराई गई। परिणामस्वरूप देशव्यापी दंगों में करीब
दो हजार लोगों की जानें गईं। उसके दस दिन बाद 16 दिसम्बर 1992 को लिब्रहान आयोग गठित
किया गया। आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के रिटायर्ड मुख्य न्यायाधीश एम.एस. लिब्रहान को आयोग
का अध्यक्ष बनाया गया. 30 जून 2009 को लिब्रहान आयोग ने चार भागों में 700 पन्नों की रिपोर्ट प्रधानमंत्री
डॉ. मनमोहन सिंह और गृह मंत्री पी. चिदम्बरम को सौंपा।
कांग्रेस सरकार और
वामपंथी इतिहासकारों ने देश को गुमराह किया :- 6 दिसंबर 1992 को पुलिस प्रशासन के प्रतिरोध
के बावजूद कारसेवकों ने मस्जिद को ध्वस्त कर उस स्थान पर भगवान श्री राम के मूर्ति
की स्थापना कर दी। जवाब में सरकार ने पुलिस
को कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश दिया जिसमें 2000 से ज्यादा कारसेवक मारे गए। सरकार
ने मुस्लिम तुष्टिकरण की नीतियों पर चलते हुए सभी बड़े हिंदु नेताओं को गिरफ्तार कर
लिया जिससे देश का माहौल कहीं ज्यादा खराब हो गया। केंद्र में भारतीय जनता पार्टी ने
वी पी सिंह ने सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया और चुनाव की मांग कर दी। जनता ने
भारतीय जनता पार्टी का पूरा समर्थन किया और ना सिर्फ भारतीय जनता पार्टी की सीटों में
इजाफा हुआ बल्कि उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार भी बन गई।
लेकिन राम जन्मभूमि मुद्दे पर विवाद बना रहा और यह
कांग्रेसी सरकारों और वामपंथी इतिहासकारों की देन है कि सबकी रक्षा करने वाले भगवान
अपनी ही जन्मभूमि पर अपना अस्तित्व तलाश कर रहे हैं, उन्हें टेंट और तम्बुओं में रहने
के लिए विवस होना पड़ रहा है।
भूगर्भीय सर्वेक्षण - अगस्त, 2002 में राष्ट्रपति के विशेष "रेफरेंस" का सीधा जवाब
तलाशने के लिए उक्त पीठ ने उक्त स्थल पर "ग्राउंड पेनेट्रेटिंग रडार सर्वे"
का आदेश दिया जिसे कनाडा से आए विशेषज्ञों के साथ तोजो विकास इंटरनेशनल द्वारा किया
गया। अपनी रपट में विशेषज्ञों ने ध्वस्त ढांचे के नीचे बड़े क्षेत्र तक फैले एक विशाल
ढांचे के मौजूद होने का उल्लेख किया जो वैज्ञानिक तौर पर साबित करता था कि बाबरी ढांचा
किसी खाली जगह पर नहीं बनाया गया था, जैसा कि सुन्नी वक्फ बोर्ड ने दिसम्बर, 1961 में
फैजाबाद के दीवानी दंडाधिकारी के सामने दायर अपने मुकदमे में दावा किया है। विशेषज्ञों
ने वैज्ञानिक उत्खनन के जरिए जीपीआरएस रपट की सत्यता हेतु अपना मंतव्य भी दिया।
खुदाई - 2003 में उच्च न्यायालय ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को वैज्ञानिक
तौर पर उस स्थल की खुदाई करने और जीपीआरएस रपट को सत्यापित करने का आदेश दिया। अदालत
द्वारा नियुक्त दो पर्यवेक्षकों (फैजाबाद के दो अतिरिक्त जिला दंडाधिकारी) की उपस्थिति
में खुदाई की गई। संबंधित पक्षों, उनके वकीलों, उनके विशेषज्ञों या प्रतिनिधियों को
खुदाई के दौरान वहां बराबर उपस्थित रहने की अनुमति दी गई। निष्पक्षता बनाए रखने के
लिए आदेश दिया गया कि श्रमिकों में 40 प्रतिशत मुस्लिम होंगे। सरकार ने पुरातत्व विशेषज्ञों की एक टीम भेजकर उस स्थान की खुदाई
भी कराई जिससे मंदिर या मस्जिद होने का प्रमाण मिल सके। जांच कमेटी की रिपोर्ट सरकार
को सौंपी गई जिसमें कांग्रेसी सरकार ने राम जन्मभूमि स्थान पर किसी भी मंदिर होने के
प्रमाण को नकार दिया। बाद में इलाहाबाद हाईकोर्ट का एक फैसला आया जिसने इस स्थान पर
चल रहे विवाद को और बढ़ा दिया। हाल ही में जाने माने पुरातत्व विशेषज्ञ डा. के के मोहम्मद,
जो भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के उत्तर प्रदेश के पूर्व निदेशक रह चुके
हैं, ने मलयालम भाषा में प्रकाशित अपनी आत्मकथा “जानएन्ना भारतीयन” में यह बात स्वीकार
की है कि 1976-77 में हुई राम जन्मभूमि स्थल पर हुई पुरातत्व विभाग की खुदाई में उस
स्थान पर मंदिर होने के पर्याप्त प्रमाण मिले थे और उनकी टीम ने ये प्रमाण केंद्र की
कांग्रेस सरकार को सौंपे भी थे। लेकिन कांग्रेस सरकार ने इन प्रमाणों को नजरअंदाज कर
दिया और सरकार के मुताबिक रिपोर्ट बनाने को कहा। डा. मोहम्मद उस टीम का हिस्सा थे जिसका
नेतृत्व प्रोफेसर बी बी लाल कर रहे थे। बी बी लाल तब भारतीय पुरातत्व विभाग के महानिदेशक
थे। अपनी जीवनी में डा. मोहम्मद ने
अपनी बातों को पूर्णतः सच बताते हुए कहा है कि राम जन्मभूमि स्थल पर 14 मंदिर स्तंभों
का मिलना इस बात का प्रमाण था कि वहां मंदिर का ढांचा कभी रहा होगा। सभी स्तंभों पर
11वीं तथा 12वीं शताब्दी में मिलने वाले कलश भी विद्यमान थे जो सिर्फ किसी मंदिर मे
ही हो सकते हैं। इस स्थान पर जलाभिषेक के उपरांत प्रवाहित किए जाने वाले जल के लिए
मगरमच्छ के आकार की एक व्यवस्था भी मिली है जिसे आमतौर पर उस सदी के हिंदु मंदिरों
में देखा जाता है। ये पर्याप्त प्रमाण थे कि इस स्थान पर मंदिर को तोड़कर एक मस्जिद
बनाई गई थी।
इलाहाबाद उच्च
न्यायालय के फैसले को सितंबर 2010
2003 से पहले, यह साबित नहीं किया गया था कि मूल हिंदू
मंदिर को ध्वस्त कर दिया गया था या नाटकीय रूप से मुगल सम्राट के आदेश पर संशोधित बाबर
और एक मस्जिद में अपनी जगह में बनाया गया था।विवादित स्थल पर एक शीर्षक सूट 2010 में
इसे स्थापित किया गया था कि आम धारणा के आधार पर, विवादित भूमि भगवान राम का जन्मस्थान
था में सुना था।
कानूनी प्रक्रिया पूरी - करीब 60 सालों (जिला न्यायालय में
40 साल और उच्च न्यायालय में 20 साल) की सुनवाई के बाद इस मामले में न्यायालय की प्रक्रिया
अब पूरी हो गई। माना जा रहा है कि अपने आपमें पहला ऐसा संवेदनशील मुकदमा रहा जिसको
निपटाने में इतना लम्बा समय लगा। इसमें कुल 82 गवाह पेश हुए। हिन्दू पक्ष की ओर से
54 गवाह और मुस्लिम पक्ष की ओर से 28 गवाह पेश किये गये। हिन्दुओं की गवाही 7128 पृष्ठों
में लिपिबद्ध की गयी जबकि मुसलमानों की गवाही 3343 पृष्ठों में कलमबद्ध हुई। पुरातात्विक
महत्व के मुद्दों पर हिन्दुओं की ओर से चार गवाह और मुसलमानों की ओर से आठ गवाह पेश
हुए। इस मामले में हिन्दू पक्ष की गवाही 1209 तथा मुस्लिम पक्ष की गवाही 2311 पृष्ठ
में दर्ज की गयी। हिन्दुओं की ओर से अन्य सबूतों के अलावा जिन साक्ष्यों का संदर्भ
दिया गया उनमें अथर्ववेद, स्कन्द पुराण, नरसिंह पुराण, बाल्मीकि रामायण, रामचरित मानस,
केनोपनिषद और गजेटियर आदि हैं। मुस्लिम पक्ष की ओर से राजस्व रिकार्डों के अलावा बाबरनामा,
हुमायूंनामा, तुजुक-ए-जहांगीरी, तारीख-ए-बदायूंनी, तारीख-ए-फरिश्ता, आइना-ए-अकबरी आदि
का हवाला दिया गया। पूरा फैसला 8189 पृष्ठों में समाहित है।
ऐतिहासिक निर्णय – बेंच ने आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया की तरफ से विवादित ज़मीन पर कराई गई खुदाई के नतीजों के आधार पर ये माना कि बाबरी मस्जिद से पहले वहां पर एक भव्य हिन्दू मंदिर था. रामलला के कई सालों से मुख्य गुम्बद के नीचे स्थापित होने और उस स्थान पर ही भगवान राम का जन्म होने की मान्यता को भी फैसले में तरजीह दी गई. कोर्ट ने ये भी माना कि इस ऐतिहासिक तथ्य की भी अनदेखी नहीं की जा सकती की वहां साढ़े चार सौ सालों तक एक ऐसी इमारत थी जिसे मस्जिद के रूप में बनाया गया था. बाबरी मस्जिद के बनने के पहले वहां मौजूद मंदिर पर अपना हक़ बताने वाले निर्मोही अखाड़े के दावे को भी अदालत ने मान्यता दी.
तीन बराबर हिस्सों में बांटने का आदेश
तीनों माननीय न्यायधीशों ने अपने निर्णय में यह भी कहा कि जो विवादित ढांचा
था वह एक बड़े भग्नावशेष पर खड़ा था। न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा ने कहा कि वह 12वीं
शताब्दी के राम मंदिर को तोड़कर बनाया गया था, न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने कहा कि
वह किसी बड़े हिन्दू धर्मस्थान को तोड़कर बनाया गया और न्यायमूर्ति खान ने कहा कि वह
किसी पुराने ढांचे पर बना। 30 सितंबर
2010, लखनऊ की पीठ ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अयोध्या शीर्षक सूट पर अपना फैसला
सुनाया। तीन न्यायाधीशों की पीठ ने विवादित 2.77 एकड़ ज़मीन को तीन बराबर हिस्सों में बांटने का आदेश दिया. विवादित 2.77 एकड़ ज़मीन को तीन बराबर हिस्सों में बांटने का आदेश दिया.
बहुमत के निर्णय (2- 1) है कि विवादित
भूमि का एक तिहाई को दी जानी चाहिए में शासन सुन्नी मुस्लिम वक्फ सेंट्रल बोर्ड, के
लिए एक तिहाई निर्मोही अखाड़ा और एक तिहाई को हिन्दू पार्टी के 'रामलला' के लिए। अदालत
ने फैसला सुनाया कि क्षेत्र है जहां राम की मूर्तियों वर्तमान अंतिम डिक्री में हिंदुओं
को दिया जा रहे हैं ।
हाई कोर्ट ने अपने फैसले में सभी पक्षों के दावों में संतुलन बनाने की कोशिश की लेकिन कोई भी पक्ष इस आदेश से संतुष्ट नहीं हुआ. लेकिन हिंदू और
मुस्लिम दोनों ही पक्षों ने इस निर्णय को मानने से अस्वीकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय का
दरवाजा खटखटाया. पूरी ज़मीन पर अपना दावा जताते हुए रामलला विराजमान की तरफ से हिन्दू महासभा ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की. दूसरी तरफ सुन्नी सेंट्रल वक़्फ़ बोर्ड ने भी हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. बाद में कई और पक्षों ने भी सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की. इन याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 9 मई 2011 को हाई कोर्ट के आदेश पर रोक लगा दी. सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर हैरानी भी जताई कि जब किसी पक्ष ने ज़मीन के बंटवारे की मांग नहीं की थी तो हाई कोर्ट ने ऐसा फैसला कैसे दिया.
अब 7 साल के बाद सुप्रीम कोर्ट मामले की सुनवाई करने जा रहा है. सुनवाई के लिए कोर्ट को सहमत करने में बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी की अहम भूमिका रही. स्वामी ने पूजा के अपने अधिकार का हवाला देते हुए कोर्ट में याचिका दाखिल की और अयोध्या में मंदिर निर्माण की मांग की. स्वामी बार-बार कोर्ट से मामला जल्दी सुनने की गुहार करते रहे. आखिरकार, अब ये सुनवाई शुरू होने जा रही है.
(क्रमशः …)
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