साधो,
सबदिन रहत ना एक समान
।
कबहु
चढ़त-कबहुं उतरत, जानत ना कोई सकल
जहांन।
इतिहास
की बात है नहिखौ, अनुभव
से जीयत है जहांन।
पूरखों
के बातन सच माने,कौनो
बातन मां ना मांगे प्रमान।
उनको
दकियानूसी ही समझे, खुद
को समझे ज्ञाता विज्ञान।
गांव
से निकला शहर में सैरा, महानगरों की चकाचैधान।
अन्त
समय फिर गांव में आये, ज्ञान-विज्ञान सब रहा धरान।
दोनों
टाइम रोटी ही मिलि रही,
तन ढ़कने का बस्त्र सुहान।
अन्न
ना मिलता भूख लगति रही, अब मिलिबें को
भूख ना भान।
अन्त
समय कछु भी नहिं जावै,
खाया पीया ही सब आवै
काम।
परमेश्वर
की गती है निराली, कोई
भी ना जान पाया
है जहांन ।।
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