प्रसिद्ध सूफ़ी
फकीर शेख मुहीउद्दीन (मोहिदी) के शिष्य मलिक मुहम्मद जायसी अपने समय के पहुँचे हुये
फकीरों में गिने जाते थे। ’आखिरी कलाम’ में दिये अंत:साक्ष्य
के आधार पर उनका जन्म ९०० हिज़री (1477 ई.) में हुआ माना जाता है। उनका जन्म स्थान जायस, राय बरेली, उत्तर प्रदेश था । अमेठी राजपरिवार सहित कई राजघरानों तथा सामान्य जनता
में इनका बहुत सम्मान था। अपने अंतिम समय में वे अमेठी के समीपवर्ती जंगल में अपनी
कुटी बनाकर रहने लगे थे और वहीं ९४९ हिज़री (१५४२ ई.) में इनकी मृत्यु हुई।इनकी जीवन-काल
में ही इनके शिष्य इनकी बनाई भावपूर्ण चौपाइयाँ, दोहे आदि गा-गाकर लोगों को सुनाया
करते थे। मलिक मुहम्मद जायसी हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा
के कवि थे।
प्रमुख
रचनाएँ इनकी 4 पुस्तकें अब तक ज्ञात हुई हैं – ’पद्मावत’ प्रसिद्ध महाकाव्य, ’अखरावट’ लम्बी रचना और ’आखिरी कलाम’ लम्बी रचना रचनाएँ है।’अखरावट’ में
वर्णमाला के एक-एक अक्षर से आरंभ कर सिद्धांत और आध्यात्म से संबंधित चौपाइयाँ कही
गई हैं जबकि ’आखिरी कलाम’ में क़यामत का वर्णन है।इनकी प्रसिद्धि का मूल आधार ’पद्मावत’
ही है जिसमें राजा रतनसेन और उनकी रानी पद्मावती की कथा है । अन्य रचनाए-सखरावत, चंपावत, इतरावत, मटकावत, चित्रावत, सुर्वानामा,
मोराईनामा, मुकहरानामा, मुखरानामा, पोस्तीनामा, होलीनामा, धनावत, सोरठ, जपजी,
मैनावत, मेखरावटनामा, कहारनामा, स्फुट कवितायें, लहतावत, सकरानामा, मसला या मसलानामा
अदि का नाम भी मिलता है।
पद्मावत महाकाव्य (हीरामन की कथा )
पद्मावत हिन्दी साहित्य के अन्तर्गत सूफी परम्परा का प्रसिद्ध महाकाव्य है।
इसके रचनाकार मलिक मोहम्मद जायसी हैं। दोहा और चौपाई छन्द में
लिखे गए इस महाकाव्य की भाषा अवधी है।
पद्मावत यह रचना मलिक मुहम्मद जायसी की है। यह हिन्दी की अवधी बोली
में है और चौपाई, दोहों में
लिखी गई है। चौपाई की प्रत्येक सात अर्धालियों के बाद दोहा आता है और इस प्रकार आए
हुए दोहों की संख्या 653 है।
इसकी रचना सन् 947 हिजरी. (संवत् 1597) में हुई थी।
इसकी कुछ प्रतियों में रचनातिथि 927 हि. मिलती है, किंतु वह असंभव है। अन्य कारणों
के अतिरिक्त इस असंभावना का सबसे बड़ा कारण यह है कि मलिक साहब का जन्म ही 900 या
906 हिजरी में हुआ था। ग्रंथ के प्रारंभ में शाहेवक्त के रूप में शेरशाह की प्रशंसा है, यह तथ्य भी 947 हि. को ही
रचनातिथि प्रमाणित करता है। 927 हि. में शेरशाह का इतिहास में कोई स्थान नहीं था।
पद्मावत’ की अर्धाली “सन नव सै सताइस
अहा/ कथा अरंभ बैन कवि कहा” से ज्ञात होता है कि इसका आरंभ ९२७ हिज़री (१५२०ई.) में
हुआ। परंतु शाहेवक़्त के रूप में शेरशाह सूरी की प्रशंसा इसे ९४७ हिज़री (१५४०ई.) के
आसपास की रचना सिद्ध करती है। इससे यह माना जाता है कि इस रचना का आरंभ भले १५२० ई.
में हुआ हो परंतु यह २० वर्ष बाद १५४०ई. में ही पूर्ण हुई।
सूफ़ी प्रेमगाथा काव्य की परंपरा में “पद्मावत” का स्थान सर्वोपरि है। कथानक की प्रौढ़ता और वर्णन की सहजता इसे अन्य प्रेमगाथाओं से बहुत उच्च कोटि की रचना बना देती है। चित्तौड़ के राजा रतनसेन और सिंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मिनी के इतिहास-प्रसिद्ध कथानक और जनमानस में इसके नायकों के भावनात्मक प्रभाव ने बहुत शीघ्र ही इसे अत्यंत लोकप्रिय रचना बना दिया। अन्य सूफ़ी काव्यों की तरह इसकी रचना भी मसनवी शैली में की गई है परंतु भारतीय कथानक होने के साथ-साथ भारतीय काव्यपरंपरा का भी स्पष्ट प्रभाव इस पर परिलक्षित होता है।पद्मावत’ की अर्धाली “सन नव सै सताइस अहा/ कथा अरंभ बैन कवि कहा” से ज्ञात होता है कि इसका आरंभ ९२७ हिज़री (१५२०ई.) में हुआ। परंतु शाहेवक़्त के रूप में शेरशाह सूरी की प्रशंसा इसे ९४७ हिज़री (१५४०ई.) के आसपास की रचना सिद्ध करती है। इससे यह माना जाता है कि इस रचना का आरंभ भले १५२० ई. में हुआ हो परंतु यह २० वर्ष बाद १५४०ई. में ही पूर्ण हुई।
सूफ़ी प्रेमगाथा काव्य की परंपरा में “पद्मावत” का स्थान सर्वोपरि है। कथानक की प्रौढ़ता और वर्णन की सहजता इसे अन्य प्रेमगाथाओं से बहुत उच्च कोटि की रचना बना देती है। चित्तौड़ के राजा रतनसेन और सिंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मिनी के इतिहास-प्रसिद्ध कथानक और जनमानस में इसके नायकों के भावनात्मक प्रभाव ने बहुत शीघ्र ही इसे अत्यंत लोकप्रिय रचना बना दिया। अन्य सूफ़ी काव्यों की तरह इसकी रचना भी मसनवी शैली में की गई है परंतु भारतीय कथानक होने के साथ-साथ भारतीय काव्यपरंपरा का भी स्पष्ट प्रभाव इस पर परिलक्षित होता है।
सूफ़ी प्रेमगाथा काव्य की परंपरा में “पद्मावत” का स्थान सर्वोपरि है। कथानक की प्रौढ़ता और वर्णन की सहजता इसे अन्य प्रेमगाथाओं से बहुत उच्च कोटि की रचना बना देती है। चित्तौड़ के राजा रतनसेन और सिंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मिनी के इतिहास-प्रसिद्ध कथानक और जनमानस में इसके नायकों के भावनात्मक प्रभाव ने बहुत शीघ्र ही इसे अत्यंत लोकप्रिय रचना बना दिया। अन्य सूफ़ी काव्यों की तरह इसकी रचना भी मसनवी शैली में की गई है परंतु भारतीय कथानक होने के साथ-साथ भारतीय काव्यपरंपरा का भी स्पष्ट प्रभाव इस पर परिलक्षित होता है।पद्मावत’ की अर्धाली “सन नव सै सताइस अहा/ कथा अरंभ बैन कवि कहा” से ज्ञात होता है कि इसका आरंभ ९२७ हिज़री (१५२०ई.) में हुआ। परंतु शाहेवक़्त के रूप में शेरशाह सूरी की प्रशंसा इसे ९४७ हिज़री (१५४०ई.) के आसपास की रचना सिद्ध करती है। इससे यह माना जाता है कि इस रचना का आरंभ भले १५२० ई. में हुआ हो परंतु यह २० वर्ष बाद १५४०ई. में ही पूर्ण हुई।
सूफ़ी प्रेमगाथा काव्य की परंपरा में “पद्मावत” का स्थान सर्वोपरि है। कथानक की प्रौढ़ता और वर्णन की सहजता इसे अन्य प्रेमगाथाओं से बहुत उच्च कोटि की रचना बना देती है। चित्तौड़ के राजा रतनसेन और सिंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मिनी के इतिहास-प्रसिद्ध कथानक और जनमानस में इसके नायकों के भावनात्मक प्रभाव ने बहुत शीघ्र ही इसे अत्यंत लोकप्रिय रचना बना दिया। अन्य सूफ़ी काव्यों की तरह इसकी रचना भी मसनवी शैली में की गई है परंतु भारतीय कथानक होने के साथ-साथ भारतीय काव्यपरंपरा का भी स्पष्ट प्रभाव इस पर परिलक्षित होता है।
जायसी सूफी संत
थे और इस रचना में उन्होंने नायक रतनसेन और नायिका पद्मिनी की प्रेमकथा को
विस्तारपूर्वक कहते हुए प्रेम की साधना का संदेश दिया है। रतनसेन ऐतिहासिक व्यक्ति
है, वह चित्तौड़ का
राजा है, पदमावती उसकी वह रानी है जिसके सौंदर्य की प्रशंसा सुनकर तत्कालीन
सुल्तान अलाउद्दीन उसे प्राप्त करने के लिये चित्तौड़ पर
आक्रमण करता है और यद्यपि युद्ध में विजय प्राप्त करता है तथापि पदमावती के जल
मरने के कारण उसे नहीं प्राप्त कर पाता है। इसी ऐतिहासिक अर्ध ऐतिहासिक कथा के
पूर्व रतनसेन द्वारा पदमावती के प्राप्त किए जाने की व्यवस्था जोड़ी गई है, जिसका
आधार अवधी क्षेत्र में प्रचलित हीरामन सुग्गे की एक लोककथा है।
कथा संक्षेप में इस प्रकार है :
(हीरामन की कथा) :- सिंहल
द्वीप (श्रीलंका)
का राजा गंधर्वसेन था, जिसकी कन्या पदमावती थी, जो पद्मिनी थी। उसने एक सुग्गा पाल रखा था, जिसका
नाम हीरामन था। एक दिन पदमावती की अनुपस्थिति में बिल्ली के आक्रमण से बचकर वह
सुग्गा भाग निकला और एक बहिलिए के द्वारा फँसा लिया गया। उस बहेलिए से उसे एक
ब्राह्मण ने मोल ले लिया, जिसने चित्तौड़ आकर उसे वहाँ के राजा रतनसिंह राजपूत के
हाथ बेच दिया। इसी सुग्गे से राजा ने पद्मिनी (पदमावती) के अद्भुत सौंदर्य का
वर्णन सुना, तो उसे प्राप्त करन के लिये योगी बनकर निकल पड़ा। अनेक वनों
और समुद्रों को पार करके वह सिंहल पहुँचा। उसके साथ में वह सुग्गा भी था। सुग्गे
के द्वारा उसने पदमावती के पास अपना प्रेमसंदेश भेजा। पदमावती जब उससे मिलने के
लिये एक देवालय में आई, उसको देखकर वह मूर्छित हो गया और पदमावती उसको अचेत छोड़कर
चली गई। चेत में आने पर रतनसेन बहुत दु:खी हुआ। जाते समय पदमावती ने उसके हृदय पर
चंदन से यह लिख दिया था कि उसे वह तब पा सकेगा जब वह सात आकाशों (जैसे ऊँचे)
सिंहलगढ़ पर चढ़कर आएगा। अत: उसने सुग्गे के बताए हुए गुप्त मार्ग से सिंहलगढ़ के
भीतर प्रवेश किया। राजा को जब यह सूचना मिली तो उसने रतनसेन को शूली देने का आदेश
दिया किंतु जब हीरामन से रतनसिंह राजपूत के बारे में उसे यथार्थ तथ्य ज्ञात हुआ,
उसने पदमावती का विवाह उसके साथ कर दिया।)
रतनसिंह राजपूत पहले से भी विवाहित था और उसकी उस विवाहिता रानी का नाम
नागमती था। रतनसेन के विरह में उसने बारह महीने कष्ट झेल कर किसी प्रकार एक पक्षी
के द्वारा अपनी विरहगाथा रतनसिंह राजपूत के पास भिजवाई और इस विरहगाथा से द्रवित
होकर रतनसिंह पदमावती को लेकर चित्तौड़ लौट आया।
यहाँ, उसकी सभा में राघव नाम का एक पंडित था, जो असत्य भाषण के कारण
रतनसिंह द्वारा निष्कासित होकर तत्कालीन सुल्तान अलाउद्दीन की सेवा में जा पहुँचा
और जिसने उससे पदमावती के सौंदर्य की बड़ी प्रशंसा की। अलाउद्दीन पदमावती के
अद्भुत सौंदर्य का वर्णन सुनकर उसको प्राप्त करने के लिये लालायित हो उठा और उसने
इसी उद्देश्य से चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। दीर्घ काल तक उसने चित्तौड़ पर घेरा
डाल रखा, किंतु कोई सफलता होती उसे न दिखाई पड़ी, इसलिये उसने धोखे से रतनसिंह
राजपूत को बंदी करने का उपाय किया। उसने उसके पास संधि का संदेश भेजा, जिसे रतन
सिंह राजपूत ने स्वीकार कर अलाउद्दीन को विदा करने के लिये गढ़ के बाहर निकला,
अलाउद्दीन ने उसे बंदी कर दिल्ली की ओर प्रस्थान कर दिया।
चित्तौड़ में पदमावती अत्यंत दु:खी हुई और अपने पति को मुक्त कराने के लिये
वह अपने सामंतों गोरा तथा बादल के घर गई। गोरा बादल ने रतनसिह राजपूत को मुक्त
कराने का बीड़ा लिया। उन्होंने सोलह सौ डोलियाँ सजाईं जिनके भीतर राजपूत सैनिकों
को रखा और दिल्ली की ओर चल पड़े। वहाँ पहुँचकर उन्होंने यह कहलाया कि पद्मावती
अपनी चेरियों के साथ सुल्तान की सेवा में आई है और अंतिम बार अपने पति रतनसेन से
मिलने के लिय आज्ञा चाहती है। सुल्तान ने आज्ञा दे दी। डोलियों में बैठे हुए
राजपूतों ने रतनसिंह राजपूत को बेड़ियों से मुक्त किया और वे उसे लेकर निकल भागे।
सुल्तानी सेना ने उनका पीछा किया, किंतु रतन सिंह राजपूत सुरक्षित रूप में
चित्तौड़ पहुँच ही गया।
जिस समय वह दिल्ली में बंदी था, कुंभलनेर के राजा देवपाल ने पदमावती के पास
एक दूत भेजकर उससे प्रेमप्रस्ताव किया था। रतन सिंह राजपूत से मिलने पर जब पदमावती
ने उसे यह घटना सुनाई, वह चित्तौड़ से निकल पड़ा और कुंभलनेर जा पहुँचा। वहाँ उसने
देवपाल को द्वंद्व युद्ध के लिए ललकारा। उस युद्ध में वह देवपाल की सेल से बुरी
तरह आहत हुआ और यद्यपि वह उसको मारकर चित्तौड़ लौटा किंतु देवपाल की सेल के घाव से
घर पहुँचते ही मृत्यु को प्राप्त हुआ। पदमावती और नागमती ने उसके शव के साथ
चितारोहण किया। अलाउद्दीन भी रतनसिंह राजपूत का पीछा करता हुआ चित्तौड़ पहुँचा,
किंतु उसे पदमावती न मिलकर उसकी चिता की राख ही मिली।
इस कथा में जायसी ने इतिहास और कल्पना, लौकिक
और अलौकिक का ऐसा सुंदर सम्मिश्रण किया है कि हिंदी साहित्य में दूसरी कथा इन
गुणों में "पदमावत" की ऊँचाई तक नहीं पहुँच सकी है। प्राय: यह विवाद रहा
है कि इसमें कवि ने किसी रूपक को भी निभाने का यत्न किया है। रचना के कुछ
संस्करणों में एक छंद भी आता है, जिसमें संपूर्ण कथा को एक आध्यात्मिक रूपक बताया
गया है और कहा गया है कि चित्तौड़ मानव का शरीर है, राजा उसका मन है, सिंहल उसका
हृदय है, पदमिनी उसकी बुद्धि है, सुग्गा उसका गुरु है, नागमती उसका लौकिक जीवन है,
राघव शैतान है और अलाउद्दीन माया है; इस प्रकार कथा का अर्थ समझना चाहिए। किंतु यह
छंद रचना की कुछ ही प्रतियों में मिलता है और वे प्रतियाँ भी ऐसी ही हैं जो रचना
की पाठपरंपरा में बहुत नीचे आती है। इसके अतिरिक्त यह कुंजी रचना भर में हर जगह
काम भी नहीं देती है : उदाहरणार्थ गुरु-चेला-संबंध सुग्गे और रतनसेन में ही
नहीं है, वह रचना के भिन्न भिन्न प्रसंगों में रतनसेन-पदमावती, पदमावती-रतनसेन और
रतनसेन तथा उसके साथ के उन कुमारों के बीच भी कहा गया है जो उसके साथ सिंहल जाते
हैं। वस्तुत: इसी से नहीं, इस प्रकार की किसी कुंजी के द्वारा भी कठिनाई हल नहीं
होती है और उसका कारण यही है कि किसी रूपक के निर्वाह का पूरी रचना में यत्न किया
ही नहीं गया है। जायसी का अभीष्ट केवल प्रेम का निरूपण करना ज्ञात होता है। वे
स्थूल रूप में प्रेम के दो चित्र प्रस्तुत-करते हैं : एक तो वह जो आध्यात्मिक
साधन के रूप में आता है, जिसके लिये प्राणों का उत्सर्ग भी हँसते हँसते किया जा
सकता है; रतनसेन और पदमावती का प्रेम इसी प्रकार का है : रतनसेन पदमावती को
पाने के लिये सिंहलगढ़ में प्रवेश करता है और शूली पर चढ़ने के लिये हँसते हँसते
आगे बढ़ता है; पदमावती रतनसेन के शव के साथ हँसते हँसते चितारोहण करती है और
अलाउद्दीन जैसे महान सुल्तान की प्रेयसी बनने का लोभ भी अस्वीकार कर देती है।
दूसरा प्रेम वह है जो अलाउद्दीन पदमावती से करता है। दूसरे की विवाहिता पत्नी को
वह अपने भौतिक बल से प्राप्त करना चाहता है। किंतु जायसी प्रथम प्रकार के प्रेम की
विजय और दूसरे प्रकार के प्रेम की पराजय दिखाते हैं। दूसरा उनकी दृष्टि में हेय और
केवल वासना है; प्रेम पहला ही है। जायसी इस प्रेम को दिव्य कहते हैं।
( उत्तरार्ध
/भाग 2 में क्रमशः )
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