मक्का निश्चय ही ’मख’ का अपभ्रन्श रूप होसकता है.अति-पुरा
काल में सारा अरब प्रदेश, अफ़्रीका, तिब्बत , साइबेरिया , एशिया एक ही भूखन्ड था.जन्बू
द्वीप या भरत खन्ड.भारत.अत:भारत का उत्तर-पश्चिमी भाग. अरबप्रदेश वाला भारतीय भूभाग
मानव का प्रथम पालना रहा होगा जहां से मानव इतिहास की प्रथम सन्स्क्रिति व प्रथम यग्य
प्रारम्भ हुई होगी .शायद जल-प्रलय से पहले .मुसलमान खुद बोल रहे है की काबाहिन्दू
मंदिर था बहा पर यज्ञ होते थे . श्री राम जी वह पर राक्षसों से यज्ञ की रक्षा के लिए
मक्का (काबा ) गए थे अनवर जमाल भी यही बोल रहा है की कुरान में वेदों का ज्ञान है और
उनके बारे में बोला गया है .लेकिन बो अपनी संकिन बुद्धि का प्रयोग करके मुहम्मद को
विष्णु अबतार बताने में लगा है जब की ये गलत है ये वेदों में भी सिद्ध है की मुहम्मद
शैतान था . और ये जो पद चिन्ह है ये श्री राम या वावन अवतार के हो सकते है क्युकि इस्लाम
में तो पद चिन्ह की पूजा निषेद है और आप खुद देख सकते है चित्र में की पदचिन्ह पर चन्दन
, रोली से पूजा होती है और चिन्ह के ऊपर घंटी नुमा भी लग रहा है जो इस्लाम के खिलाफ
है . मक्का को भारतीय लोग मख के नाम से जानते हैं।
यज्ञ के पर्यायवाची के तौर पर ‘मख’ शब्द भी बोला जाता है जैसा कि तुलसीदास ने विश्वामित्र
के यज्ञ की रक्षा हेतु श्री रामचंद्र जी के जाने का वर्णन करते हुए कहा है कि
मक्का पहुंचने के लिए मुख्य नगर जेद्दाह है। यह नगर एक बंदरगाह भी है और अंतरराष्ट्रीय हवाई मार्ग का मुख्य केन्द्र भी। जेद्दाह से मक्का जाने वाले मार्ग पर ये निर्देश लिखे होते हैं कि यहां मुसलमानों के अतिरिक्त किसी भी और धर्म का व्यक्ति प्रवेश नहीं कर सकता। अधिकांश सूचनाएं अरबी भाषा में लिखी होती हैं। अब तक इन सूचनाओं में यह भी लिखा जाता था कि “काफिरों’ का प्रवेश प्रतिबंधित है। लेकिन अब “काफिर’ शब्द के स्थान पर “नान मुस्लिम’ यानी गैर-मुस्लिमों का प्रवेश वर्जित है, लिखा है। “काफिर’ शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है “इनकार करना’ अथवा “छिपाना’। वास्तव में “काफिर’ शब्द का उपयोग नास्तिक के लिए किया जाता है। दुर्भाग्य से “काफिर’ शब्द को हिन्दुओं से जोड़ दिया, जो एकदम गलत है। ईसाई, यहूदी, पारसी और बौद्ध भी उस वर्जित क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सकते।मक्का और मदीना का वीज़ा अथवा वहाँ प्रवेश करने की बुनियादी शर्त यह है कि मुख से ‘‘ला इलाहा इल्लल्लाहु, मुहम्मदुर्रसूलल्लाहि’ (कोई ईश्वर नहीं, सिवाय अल्लाह के (और) मुहम्मद (सल्लॉ) अल्लाह के सच्चे संदेशवाहक हैं), कहकर मन से अल्लाह के एकमात्र होने का इज़हार किया जाए और हज़रत मुहम्मद (सल्लॉ) को अल्लाह का सच्चा रसूल स्वीकार किया जाए।
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करन लागे मुनि झारी। आपु रहे मख कीं रखवारी॥
(भावार्थ:-सबेरे श्री रघुनाथजी ने मुनि से कहा- आप
जाकर निडर होकर यज्ञ कीजिए। यह सुनकर सब मुनि हवन करने लगे। आप (श्री रामजी) यज्ञ की
रखवाली पर रहे॥)
'मख’ शब्द वेदों में भी आया है और मक्का के अर्थों
में ही आया है। यज्ञ को यज भी कहा जाता है। दरअस्ल यज और हज एक ही बात है, बस भाषा
का अंतर है। पहले यज नमस्कार योग के रूप में किया जाता था और पशु की बलि दी जाती थी।
काबा की परिक्रमा भी की जाती थी। बाद में यज का स्वरूप बदलता चला गया। हज में आज भी
परिक्रमा, नमाज़ और पशुबलि यही सब किया जाता है और दो बिना सिले वस्त्र पहने जाते हैं
जो कि आज भी हिंदुओं के धार्मिक गुरू पहनते हैं। क़ुरआन ने यह भी बताया है कि मक्का का पुराना नाम
बक्का है ,
वैदिक युग
में यग्य में पशु बलि नहीं दी जाती थी .बाद में असन्स्कारित, अवैदिक सन्स्क्रिति के
लोगों ने यह पशु वध आदि अरम्भ्य किया होगा.ख’ का अपभ्रन्श रूप होसकता है.अति-पुरा काल
में सारा अरब प्रदेश, अफ़्रीका, तिब्बत , साइबेरिया , एशिया एक ही भूखन्ड था..जन्बू
द्वीप या भरत खन्ड.भारत.अत:भारत का उत्तर-पश्चिमी भाग .अरबप्रदेश वाला भारतीय भूभाग
मानव का प्रथम पालना रहा होगा जहां से मानव इतिहास की प्रथम सन्स्क्रिति व प्रथम यग्य
प्रारम्भ हुई होगी ..शायद जल-प्रलय से पहले ..
मुसलमानों के सबसे बड़े तीर्थ मक्का के बारे में कहते
हैं कि वह मक्केश्वर महादेव का मंदिर था। वहां काले पत्थर का विशाल शिवलिंग था जो खंडित
अवस्था में अब भी वहां है। हज के समय संगे अस्वद (संग अर्थात पत्थर, अस्वद अर्थात अश्वेत
यानी काला) कहकर मुसलमान उसे ही पूजते और चूमते हैं। सऊदी अरब की धरती पर इस्लाम का
जन्म हुआ, इसलिए मक्का और मदीना जैसे पवित्र मुस्लिम तीर्थस्थल उस देश की थाती हैं।
मक्का में पवित्र काबा है, जिसकी परिक्रमा कर हर मुसलमान धन्य हो जाता है। यही वह स्थान
है जहां हज यात्रा सम्पन्न होती है। इस्लामी तारीख के अनुसार 10 जिलहज को दुनिया के
कोने-कोने से मुसलमान इस पवित्र स्थान पर पहुंचते हैं, जिसे “ईदुल अजहा’ कहा जाता है।
मुसलमानों के सबसे बड़े तीर्थ मक्का के बारे में कहते
हैं कि वह मक्केश्वर महादेव का मंदिर था। वहां काले पत्थर का विशाल शिवलिंग था जो खंडित
अवस्था में अब भी वहां है। हज के समय संगे अस्वद (संग अर्थात पत्थर, अस्वद अर्थात अश्वेत
यानी काला) कहकर मुसलमान उसे ही पूजते और चूमते हैं। इसके बारे में प्रसिद्ध इतिहासकार
स्व0 पी.एन.ओक ने अपनी पुस्तक ‘वैदिक विश्व राष्ट्र का इतिहास’ में बहुत विस्तार से
लिखा है। कहा जाता
है की वेंकटेश पण्डित ग्रन्थ ‘रामावतारचरित’ के युद्धकांड प्रकरण में एक बहुत अद्भुत
प्रसंग ‘मक्केश्वर लिंग’ का हैं। ये दिलचस्प प्रसंग आम तौर रामायणों में नहीं मिलता
है। कहा जाता है कि रावण ने शिव से उसे युद्ध में विजयी होने की प्रार्थना की। भगवान
शिव ने प्रार्थना स्वीकार कर रावण को एक लिंग (मक्केश्वर महादेव) दिया और कहा कि यह
तेरी रक्षा करेगा, मगर ले जाते समय इसे मार्ग में कहीं भी धरती पर नहीं रखना।
पर अन्य काबा में एक झरना है जिसे पवित्र माना जाता
है। इसे आबे (पानी) ज़म-ज़म भी कहा जाता है। माना जाता है कि इसका वजूद इस्लाम से पहले
से ही है। जैसा कि कुम्भ में शामिल होने वाले हिन्दु गंगाजल को पवित्र मानने और उसे
बोतलों में भरकर घरों में ले जाने उसी तरह मुस्लिम श्रद्धालु हज के दौरान इस आबे ज़मज़म
को अपने साथ बोतल में भरकर ले जाते हैं।
मक्का पहुंचने के लिए मुख्य नगर जेद्दाह है। यह नगर एक बंदरगाह भी है और अंतरराष्ट्रीय हवाई मार्ग का मुख्य केन्द्र भी। जेद्दाह से मक्का जाने वाले मार्ग पर ये निर्देश लिखे होते हैं कि यहां मुसलमानों के अतिरिक्त किसी भी और धर्म का व्यक्ति प्रवेश नहीं कर सकता। अधिकांश सूचनाएं अरबी भाषा में लिखी होती हैं। अब तक इन सूचनाओं में यह भी लिखा जाता था कि “काफिरों’ का प्रवेश प्रतिबंधित है। लेकिन अब “काफिर’ शब्द के स्थान पर “नान मुस्लिम’ यानी गैर-मुस्लिमों का प्रवेश वर्जित है, लिखा है। “काफिर’ शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है “इनकार करना’ अथवा “छिपाना’। वास्तव में “काफिर’ शब्द का उपयोग नास्तिक के लिए किया जाता है। दुर्भाग्य से “काफिर’ शब्द को हिन्दुओं से जोड़ दिया, जो एकदम गलत है। ईसाई, यहूदी, पारसी और बौद्ध भी उस वर्जित क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सकते।मक्का और मदीना का वीज़ा अथवा वहाँ प्रवेश करने की बुनियादी शर्त यह है कि मुख से ‘‘ला इलाहा इल्लल्लाहु, मुहम्मदुर्रसूलल्लाहि’ (कोई ईश्वर नहीं, सिवाय अल्लाह के (और) मुहम्मद (सल्लॉ) अल्लाह के सच्चे संदेशवाहक हैं), कहकर मन से अल्लाह के एकमात्र होने का इज़हार किया जाए और हज़रत मुहम्मद (सल्लॉ) को अल्लाह का सच्चा रसूल स्वीकार किया जाए।
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