Friday, July 28, 2017

मातृ ऋण सबसे बड़ा ऋण, माँ का ऋण चुकाना कठिन है - डा. राधेश्याम द्विवेदी

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ऋण का अर्थ है ‘‘कर्ज’’ और कर्ज हर मनुष्य को चुकाना पड़ता है। इसका उल्लेख वेद-पुराणों में प्राप्त होता है। हिंदु धर्म-शास्त्रों के अनुसार मनुष्यों पर तीन ऋण माने गए हैं- देव ऋण, ऋषि ऋण एवं पितृ ऋण। इन तीनों में पितृ ऋण सबसे बड़ा ऋण माना गया है। इन ऋणों का प्रभाव जन्म-जन्मांतरों तक मनुष्य का साए की तरह पीछा करता है। 
पैतृक ऋण से पीड़ित जातक को चाहिए कि वह ऋण का ज्ञान होने पर अपने रक्त संबंधियों से उनका भाग अवश्य लें अगर कोई नहीं देता है तो उसका दस गुणा जातक स्वयं मिलाकर ऋण संबंधी उपाय अवश्य करें। जो अपना भाग नहीं देता है वह पैतृक ऋणों से कभी मुक्त नहीं होता और जीवन में उनके दुष्प्रभावों को भोगता है। अतः पैतृक ऋणों का उपाय अवश्य करें तथा अपने-अपने परिवार और वंश की उन्नति करें।पैतृक ऋण से पीड़ित जातक को चाहिए कि वह ऋण का ज्ञान होने पर अपने रक्त संबंधियों से उनका भाग अवश्य लें अगर कोई नहीं देता है तो उसका दस गुणा जातक स्वयं मिलाकर ऋण संबंधी उपाय अवश्य करें। जो अपना भाग नहीं देता है वह पैतृक ऋणों से कभी मुक्त नहीं होता और जीवन में उनके दुष्प्रभावों को भोगता है। अतः पैतृक ऋणों का उपाय अवश्य करें तथा अपने-अपने परिवार और वंश की उन्नति करें।
मनुष्य का सबसे बड़ा ऋण मातृ ऋण होता है। मां को एक आंख से सिर्फ पुत्र दिखाई देता है तो दूसरी आंख से पूरा संसार दिखाई देता है। मातृ ऋण कोई भी नहीं उतार सकता, क्योंकि मां से ही सृष्टि है। मां की सेवा करने से भले ही पुत्र को संतोष हो। लेकिन केवल सेवा मात्र से ऋण नहीं उतारा जा सकता है। बेटा किसी भी हाल में रहे मां उसे हमेशा याद करती है। मां के लिए वहीं छोटा सा बच्चा होता है जो मां के आंचल में सुरक्षित रहता है। मां का तिरस्कार करने वाले कभी भी सुख से जीवन नहीं गुजार सकते। मनुष्य को स्वाभिमानी होना चाहिए, अभिमानी नहीं। राम कथा हर व्यक्ति को सुनना चाहिए। यह जीने की कला सिखाती है।
स्वामी विवेकनन्दजी को किसी युवक ने कहा : महराज ! कहते है की ऐसा तो क्या है माँ का ऋण ?”
विवेकनंद जी : “इस प्रश्न का उत्तर प्रयोगिक चाहते हो ?
हाँ महराज !”
थोड़ी हिम्मत करो , यह जो पत्थर पड़ा है,इसको अपने पेट पर बाँध लो औऱ ऑफिस में काम करने जाओ |शाम को मिलना |”
पेट पर ढाई -तीन किलो का पत्थर बाँध हो और कामकाज करे तो क्या हालात होगी ?आजमाना है तो आजम के देख लेना | नहीं तो मन लो,क्या हालात हटी है |
वह थका -मंदा शाम को लौटा | विवेकानंद जी के पास जाकर बोला :”माँ का ऋण कैसा? इसका जवाब पाने में तो बहुत मुसिबत उठानी पड़ी | अब बताने की कृपा करे की माँ का ऋण केसा होता है ?”
यह पत्थर तुने कब से बाँध है ?”
आज सुबह से |”
एक ही दिन हुआ ,ज्यादा तो नहीं हुआ ना ?”
नहीं|”
तू एक दिन में ही तोबा पुकार गया | जो महीनोमहिनो तेरा बोझ लेकर घूमती थी , उसने कितना सहा होगा ! उसने तो कभी ना नही कहा अब इससे ज्यादा प्रायोगिक क्या बताऊँ तुझे ?”
माँ हर मर्ज की दवा
हमारे हर मर्ज की दवा होती है माँ….
कभी डाँटती है हमें, तो कभी गले लगा लेती है माँ…..
हमारी आँखोँ के आंसू, अपनी आँखोँ मेँ समा लेती है माँ…..
अपने होठोँ की हँसी, हम पर लुटा देती है माँ……
हमारी खुशियोँ मेँ शामिल होकर, अपने गम भुला देती है माँ….
जब भी कभी ठोकर लगे, तो हमें तुरंत याद आती है माँ….


दुनिया की तपिश में, हमें आँचल की शीतल छाया देती है माँ…..
खुद चाहे कितनी थकी हो, हमें देखकर अपनी थकान भूल जाती है माँ….
प्यार भरे हाथोँ से, हमेशा हमारी थकान मिटाती है माँ…..
बात जब भी हो लजीज खाने की, तो हमें याद आती है माँ……
रिश्तों को खूबसूरती से निभाना सिखाती है माँ…….
लब्जोँ मेँ जिसे बयाँ नहीँ किया जा सके ऐसी होती है माँ…….
भगवान भी जिसकी ममता के आगे झुक जाते हैँ

माँ  गंगाजल होती है

मेरी ही यादों में खोई
अक्सर तुम पागल होती हो
माँ तुम गंगा-जल होती हो!
जीवन भर दुःख के पहाड़ पर
तुम पीती आँसू के सागर
फिर भी महकाती फूलों-सा
मन का सूना संवत्सर
जब-जब हम लय गति से भटकें
तब-तब तुम मादल होती हो।
व्रत, उत्सव, मेले की गणना
कभी तुम भूला करती हो
सम्बन्धों की डोर पकड कर
आजीवन झूला करती हो
तुम कार्तिक की धुली चाँदनी से
ज्यादा निर्मल होती हो।
पल-पल जगती-सी आँखों में
मेरी ख़ातिर स्वप्न सजाती
अपनी उमर हमें देने को
मंदिर में घंटियाँ बजाती
जब-जब ये आँखें धुंधलाती
तब-तब तुम काजल होती हो।
हम तो नहीं भगीरथ जैसे
कैसे सिर से कर्ज उतारें
तुम तो ख़ुद ही गंगाजल हो
तुमको हम किस जल से तारें

तुझ पर फूल चढ़ाएँ कैसे
तुम तो स्वयं कमल होती हो।

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