मेरे
बाबूजी का नाम शोभाराम
दूबे था, जिन्हें हम बचपन से
बाबू ही कहकर पुकारा
करते थे। इनका जन्म 15 जून 1929 ई. को उत्तर
प्रदेश के बस्ती जिला
के हर्रैया तहसील के कप्तानगंज विकास
खण्ड के दुबौली दूबे
नामक गांव मे एक कुलीन
परिवार में हुआ था। घर का माहौल
अनुकूल नहीं था। उनके पिता जी पंडित मोहन
प्यारे जी विना मां
के थे और परदादाजी
ने दूसरी शादी कर ली थी।
परदादाजी नई परदादी के
प्रभाव में रहकर बाबा जी पर समय
समय पर जुल्म भी
करते रहते थे। विवेक और बुद्धि के
अभाव में वे पंडितजी को
अपना पुत्र मानने से भी मना
कर देते थे। गांव के कुछ दबंग
लोग इसमें मजा लेने के लिए परदादाजी
को उकसा दिया करते थे। इससे पंडितजी पर प्रायः पेरशानियां
आ जाया करती थी। समय समय पर पंडितजी व
परताइन अर्थात मेरी दादी को परिवार के
लोगों के कोपभाजन का
शिकार भी होना पड़ता
था। एसी स्थिति में गांव के माहौल में
जिन्दगी गुजारना आसान नहीं था। दादाजी के हाथ और
पैर की उंगुलियों की
बनावट कुछ अलग तरह की थी। प्रत्येक
हाथ पैरों में पांच के बजाय छः
छः उंगुलियां थी। जिससे उन्हें कभी कभी सामाजिक उपहास का भी सामना
करना पड़ता था। इसलिए परिवार का पालन पोषण
तथा शिक्षा के लिए बाबूजी
को उनके पिताजी पंडित मोहन प्यारे जी लखनऊ लेकर
चले गये थे। उन्होंने छोटी- मोटी नौकरी करके अपने बच्चों(दो बहन एक
भाई) का पालन पोषण
किया था। पंडित जी पंडिताई कर
तथा टयूशन पढ़ाकर शहर में अपना खर्चा चलाते थे। इस कार्य में
बाबूजी भी अपनी जिम्मेदारी
निभाते थे और कहीं-
कहीं तो बाबूजी भी
टयूशन दे दिया करते
थे। बाबू जी के प्रारम्भिक
शिक्षा की जानकारी उपलब्ध
नहीं है। उन्होने 1945 में लखनऊ के क्वींस ऐग्लो
संस्कृत हाई स्कूल से हाई स्कूल
की परीक्षा उस समय ‘प्रथम
श्रेणी’ से अंग्रेजी, गणित,
इतिहास एवं प्रारम्भिक नागरिकशास्त्र आदि अनिवार्य विषयों तथा हिन्दी और संस्कृत एच्छिक
विषयों से उत्तीर्ण की
है। उस समय राय
बहादुर बी. एन. झा बोर्ड
आफ हाई स्कूल एण्ड इन्टरमीडिएट एजूकेशन यूनाइटेड प्राविंस के सचिव हुआ
करते थे। इन्टरमीडिएट परीक्षा 1947 में कामर्स से द्वितीय श्रेणी
में अंग्रेजी, बुक कीपिंग एण्ड एकाउन्टेंसी, विजनेस मेथेड करेसपाण्डेंस, इलेमेन्टरी एकोनामिक्स एण्ड कामर्सियल ज्याग्रफी तथा स्टेनो- टाइपिंग विषयों से उत्तीर्ण किया
था। उस समय राय
साहब परमानन्द बोर्ड आफ हाई स्कूल
एण्ड इन्टरमीडिएट एजूकेशन यूनाइटेड प्राविंस के सचिव हुआ
करते थे।
दादाजी
के शिक्षण तथा व्यवहार से प्रभावित सहकारिता
विभाग के किसी उच्च
अधिकारी ने गुरुदक्षिणा के
रुप में बाबूजी को पहले कम
उम्र के कारण अस्थाई
रुप में तथा बादमें 18 साल की उम्र होने
पर स्थाई रुप में सहकारिता विभाग में सरकारी सेवा में लिपिक पद पर नियुक्ति
दिलवा दिया था। बाद में बाबूजी ने विभागीय परीक्षा
देकर लिपिक पद से आडीटर
के पद पर अपनी
नियुक्ति करा लिये थे। अब बाबूजी का
कार्य का दायरा बदल
गया और अपने विभाग
के नामी गिरामी अधिकारियों में बाबूजी का नाम हो
गया था। बाबूजी अपने सिद्धान्त के बहुत ही
पक्के थें उन्होने अनेक विभागीय अनियमितताओं को उजागर किया
था इसका कोपभाजन भी उन्हें बनना
पड़ा था। उस समय उत्तराखण्ड
उत्तरप्रदेश का ही भाग
था। बाबूजी को टेहरी गढ़वाल
और पौड़ी गढ़वाल भी जाना पड़ा
था। वैसे वे अधिकांशतः पूर्वी
उत्तर प्रदेश में ही अपनी सेवाये
दियें हैं। बस्ती तो वे कभी
रहे नहीं परन्तु गोण्डा, गोरखपुर, देवरिया, बलिया, आजमगढ, बहराइच, गाजीपुर, जौनपुर तथा फैजाबाद आदि स्थानों पर एक से
ज्यादा बार अपना कार्यकाल बिताया है। बाबूजी का आडीटर के
बाद सीनियर आडीटर के पद पर
प्रोन्नति पा गये थे।
सीनियर आडीटर के जिम्मे जिले
की पूरी जिम्मेदारी होती थी। बाद में यह पद जिला
लेखा परीक्षाधिकारी के रुप में
राजपत्रित हो गया। कभी-
कभी बाबूजी को दो- दो
जिलों का प्रभार भी
देखना पड़ता था। जब कोई अधिकारी
अवकाश पर जाता था
तो पास पड़ोस के अधिकारी के
पास उस जिले का
अतिरिक्त प्रभार भी संभालना पड़ता
था। 1975 में
बाबूजी ने अवध विश्वविद्यालय
फैजाबाद से बी. ए.
की उपधि प्राप्त की थी।
विभाग
में अच्छी छवि होने के कारण बाबूजी
को प्रतिनियुक्ति पर उ. प्र.
राज्य परिवहन में भी कार्य करने
का अवसर मिला था। ये क्षेत्रीय प्रबन्धक
के कार्यालय में बैठते थे और उस
मण्डल के आने वाले सभी जिला स्तरीय कार्यालयों के लेखा का
सम्पे्रेक्षण करते थे। उनकी नियुक्ति कानपुर के केन्द्रीय कार्यशाला
में 23.12.1982 को हुआ था।
यहां से वे औराई
तथा इटावा के कार्यालयों के
मामले भी देखा करते
थे। अपनी सेवा का शेष समय
बाबूजी ने राज्य परिवहन
में पूरा किया था। 1985 में वह कानपुर से
गोरखपुर कार्यालय में सम्बद्ध हो गये थे।
यहां से वे आजमगढ़
के कार्यालय के मामले भी
देखा करते थे। गोरखपुर कार्यालय से वे 30.06.1987 में
सेवामुक्त हुए थे। संयोग से उनके सेवामुक्त
होने के पहले 12 मार्च
1987 को मैं बडौदा में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण में अपना दायित्व निभाना शुरु कर दिया था।
पहले तो 1400 में मूल वेतन पर जाने के
लिए बाबूजी ने मना कर
दिया था। जब मेरा सेवा
करने का निश्चय पक्का
हो गया तो उन्हें मेरे
सेटेल होने पर बहुत प्रसन्नता
की अनुभूति हुई थी।
बाबू
जी की दो शादियां
हुई थी। मेरी बड़ी मां का मायका दावनपारा
के एक सम्पन्न शुक्ला
परिवार में हुआ था। बाद में बड़ी मां असमय मृत्यु को प्राप्त हुई
थी। फिर बाबूजी का दूसरा विवाह
मेंरी मां, जिसे अभी भी मैं माई
कहकर सम्बोधत करता हू, से हुआ था।
मेरे नाना जी की मेरी
मां इकलौती संतान थी। माई की मां बचपन
में ही खत्म हो
गई थी। नानाजी ने दूसरी शादी
नहीं किया था और मां
की दादी ने मां को
पाला पोषा था। सम्भवतः मां की अचल सम्पत्ति
के लालच में ही मेरे दादाजी
ने वहां बाबूजी का रिश्ता तय
किया था। बाद में बाबूजी अपने पैतृक जन्मभूमि पर कम तथा
इस नेवासा वाले जगह पर ज्यादा रहने
लगे थे। मेरे बाबूजी घर पर कम
रहते थे। हां, महीने में एक दो चक्कर
जरुर लग जाता था।
सेकण्ड सटरडे के साथ सनडे
को वह जरुर घर
आते थे। वे बाहर भी
अकेले रहते थे। माता जी को बहुत
कम अपने पास रख पाते थे
क्योकि घर पर नानाजी
भी तो अकेले थे।
मेरे भाई साहब को बाबूजी के
पास फैजाबाद, बहराइच, गाजीपुर तथा जौनपुर में रहकर पढ़ने का मौका मिल
गया था। मुझे उनका सानिघ्य बाहर नहीं मिल पाया था। यद्यपि वे मेरे अयोध्या
में बी. ए. करते समय
बलरामपुर में बी. एड्. करते समय, वाराणसी में बी.लिब. करते समय स्वयं आकर खर्चा भी दे देते
थे और आशीर्वाद भी
देने से चूकते नहीं
थे। मैं बस्ती में जब एल. एल.बी.
तथा एम.ए. कर
रहा था तब भी
मेरे आवास पर वह आते
रहते थे। इस मामले मैं
बड़ा खुशनसीब था। बाद में मुझे उनके साथ समय विताने का अवसर कम
मिल पाया था। हमें जब भी अपने
पढ़ाई तथा बच्चे के पढ़ाई से
समय मिलता मैं उनके आवास यानी अपने ननिहाल स्वयं, पत्नी तथा बच्चे के साथ अवश्य
जाता और वह बहुत
ही प्रसन्न होते थे। कई बार मैं
स्वयं ना पहुंच पाता
तो मेरी पत्नी उनके पास जाती थी तो उन
पर उनकी पूरी कृपा दृष्टि रहती थी। मैं संकोची रहा और सीधे पैसा
नहीं मांग पाता था। कम पैसे में
अपना काम चला लेता था। हां, मेरी पत्नी जब मेरे आय
और खर्चे के बारे में
बाबूजी को बताती थीं
तो बाबूजी पूरी मदद करते थे। यद्यपि कभी कभी मेरी मां उन्हें पैसा देने से रोक भी
लेती थीं। इस मजबूरी को
बाबू जी छिपा भी
नहीं पाते थे।
मैंने
सोचा था कि जब
मैं अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हूंगा
तो बाबूजी के साथ समय
बिताउगां। उनके सुख दुख में भागी बनूंगा। पर ईश्वर ने
एसा करने नहीं दिया। हमें थोड़े-थोड़े समय के लिए उनके
साथ रहने का अवसर ही
मिल पाया। इस बात का
मुझे बहुत मलाल रहा है। इस कारण जब
मैं इस स्थिति में
हुआ कि मेरे बच्चे
अकेले मेरे देखरेख में रहने के लिए उपयुक्त
हो गये तो मैं अपनी
पत्नी को अपनी मांजी
की सेवा के लिए घर
पर कर दिया और
अपने जिन्दगी के आखिरी के
लगभग 8 साल मुझे अकेले बाहर गुजारना पड़ रहा है।
मेरी सेवा के कुछ ही
दिन बचे हुए हैं। अकेले रहते रहते पुराने लोगों की यादें बहुत
आती रहती हैं। जब से मैं
ब्लाग तथा लेख आदि लिखने लगा तबसे अतीत की स्मृतियों में
बार-बार जाना ही पड़ता है।
आज बाबूजी की जयन्ती की
प्रमाणिक जानकारी हो जाने पर
उन्हें याद किये बिना मैं रह नहीं सका
हू। मैं अपने सरकारी सेवा के प्रभार हस्तान्तरण
के सिलसिले में बाहर रहकर बाबूजी की अर्धागिंनी और
अपनी प्रिय मां के सानिध्य से
भी दूर पड़ा हॅूं। आज मांजी के
दो के दोनो बेटे
उनसे दूर हैं। मांजी बीमार होकर बेड पकड़ रखी हैं। मुझे मेरी सरकारी दायित्व की मजबूरी है
तो मेरे अग्रज को अपने किंचित
निजी स्वार्थ और नकारात्मक सोच
की मजबूरी है। बाबूजी की उत्ताधिकारी तथा
भौतिक छाया स्वरुपा मांजी का उचित देखरेख
तथा सेवा सुश्रूषा नहीं हो पा रहा
है। यद्यपि मेरी पत्नी मेरे से ज्यादा व्यवस्था
करने में सक्षम है और अपने
फर्ज से भागने वाली
नहीं हैं, परन्तु माता पिता की भावना तथा
आपेक्षा में यदि उनके पुत्र भी सही तरह
से पास रहते तो मांजी को
संतुष्टि तथा बाबूजी की आत्मा को
शान्ति अवश्य मिलती।
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