Friday, June 9, 2017

ऊपर वाले

वैसे सुख दुख, दिन रात, खुशी गम - सब कुछ ऊपर वाले के हाथ में होता है। आदमी तो एक बीच का माध्यम होता है, एक कड़ी होता जिसे हर हालत में उसके विधान को स्वीकार करने के अलावा अन्य कोई विकल्प ही नहीं होता है। एक फिल्मी गाने कुछ पंक्तियां याद आ रही है ‘थोड़े फूल औ कांटे हैं जो तकदीर ने बाटें हैं,‘ पर मेरा अनुभव कहता है कि ऊपर वाला दुख ज्यादा देता है सुख कम। या यह भी हो सकता है कि दुख ज्यादा यादगार रहती है ओ सुख क्षणिक कब बीत जाता है यह पता नहीं चलता हो। मेरा मन बार बार यही स्वीकारता है कि-
जिन्दगी होती दुख की कहानी, इमें सुख खोजना मूर्खता है।
स्थिर होती ना चलती रवानी, गाड़ी जैसी इसमें क्षमता है।।
तीस साल का एक लम्बा सफर पूरा होने वाला है। गाड़ी स्टेशन के आउटर के पास ही है। यहां उतरा तो नहीं जा सकता है। उतरना तो गन्तब्य पर ही होगा। इस सफर में अनेक उतार चढ़ाव देखने सुनने और भोगने को मिले। कुछ अपनों ने दिया तो कइयों को गैरों ने बांटा भी। आज सेवा काल के बहुत से काम अधूरे रह गये हैं। यदि कुछ सकारात्मक हाथ आगे बढ़ते तो काम आसान हो जाता पर ईश्वर की विडम्बना को कौन दूर कर सकता है। सेवामुक्ति समय पर सकुशल हो जाय तो यह भी ऊपर वाले की कृपा होगी। बाकी विगत 6 माह से एक भी सकारात्मक पहल दिखाई नहीं दे रही है। वैसे सरकार 1 साल पहले नोटिस तो दे देती है पर उसका तंत्र उसे एक औपचारिकता ही समझता है। अमल में लाने के लिए गंभीरता से नहीं दिखाता है। तंत्र को पीड़ित तो बदल नहीं सकता है। हां जिनके हाथ में शक्ति होती है और यदि ऊपर वाला उनको सुमति प्रेरित करे तो वह अवश्य कुछ कर सकता है।
कुछ छड़ एसे भी आये कि सुखद अनुभूति मिली पर स्थाई नहीं। एक से निपटा तो दूसरा और फिर अगली चुनौतियां आती रही जाती रही। आज मेरा काफी काम अधूरा बड़ा है। मैं आगरा छोड़ने की स्थिति में नहीं हू। मेरा भार कम करने वाले मुझे सहयोग नहीं कर पा रहे हैं। इसे मैं शरीर पर नहीं मस्तिष्क पर अनुभव कर रहा हॅू। अगले पड़ाव के लोग समय से पहले मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। जन्म देने वाली मां जो अब तक ठीक ठाक थी, जिसकी सुश्रूषा के लिए मैंने अपने सेवा के आखिरी आठ साल तनहाई में काटे, लोगों के सुख दुख बांटकर अपना गम काटा, अपना फर्ज पूरा किया, वह आज शैया पर पड़ी है। हमारे आत्मीय अपने अपने सरकारी फर्ज से बंधे हैं मैं भी बंधा हंू। ईश्वर से प्रार्थना करता हॅू कि मेरे स्टेशन तक पहुंचते पहुचते वह स्वस्थ रहे। मैं भी अपनी मातृ ऋण का कुछ भार कम कर सकूं। मेरे अपने जो उसके पास हैं जो मेरे से ज्यादा कर सकते हैं, ईश्वर उन्हें सत्प्रेरणा, साहस और सद्बुद्धि दे कि मैं अपने को धन्य समझ सकूं और गमों को बांटने का सहज अनूभूति अनुभव कर सकूं। बस आज इतना ही।


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