वर्तमान समय में वायु, जल, मिट्टी, तापीय, विकरणीय, औद्योगिक
, समुद्रीय , रेडियोधर्मी, नगरीय प्रदूषण, प्रदूषित नदियाँ और जलवायु बदलाव तथा ग्लोबल
वार्मिंग के खतरे लगातार बढ़ते जा रहे हैं। पिछले कुछ सालों में आम जनता में पर्यावरणीय
चेतना कुछ हद तक बढ़ी है। इसके विभिन्न विकल्पों पर गम्भीर चिन्तन हुआ है। अब यहां तक कहा जाने लगा है कि पर्यावरण को बिना
हानि पहुँचाए या न्यूनतम हानि पहुँचाए टिकाऊ विकास सम्भव हो सकता है। लगभग 5000 साल
तक खेती करने, युद्ध सामग्री निर्माण, धातु शोधन, नगर बसाने तथा जंगलों को काट कर बेवर
खेती करने के बावजूद विकास और प्राकृतिक संसाधनों के बीच तालमेल बिठाकर उपयोग करने
के कारण प्राकृतिक संसाधनों का ह्रास नहीं हुआ है।
पर्यावरण दिवस रस्म अदायगी:- 5 जून विश्व पर्यावरण दिवस का आयोजन
महज एक रस्म अदायगी है। इस अवसर पर बड़े-बड़े व्याख्यान दिये जाते हैं। हजारों पौधा-रोपण
किए जाते हैं । पर्यावरण संरक्षण की झूठी कसमें खायी जाती हैं। इस एक दिन को छोड़ शेष
365 दिन प्रकृति के प्रति हमारा अमानवीय व्यवहार ही उेखा जाता है। यह इस बात का स्पष्ट
प्रमाण है कि हम पर्यावरण के प्रति कितने उदासीन और संवेदन शून्य हैं ? आज हमारे पास
शुद्ध पेयजल का अभाव है, सांस लेने के लिए शुद्ध हवा कम पड़ने लगी है। जंगल कटते जा
रहे हैं, जल के स्रोत नष्ट हो रहे हैं, वनों के लिए आवश्यक वन्य प्राणी भी विलीन होते
जा रहे हैं। औद्योगीकरण ने खेत-खलिहान और वन-प्रान्त निगल लिये हैं। वन्य जीवों का
आशियाना छिनता चला जा रहा है। कल-कारखाने धुआं उगल रहे हैं और प्राणवायु को दूषित कर
रहे हैं। यह सब एक बहुत बड़े खतरे की घंटी है। भारत की सत्तर प्रतिशत आबादी गांवों में
रहती है। अब वह भी शहरों में पलायन हेतु आतुर है। शहरी जीवन दिन बदिन नारकीय होता जा
रहा है। वहाँ हरियाली का नामोनिशान नहीं है, बहुमंजिली इमारतों के जंगल पसरते जा रहे
हैं। शहरी घरों में कुएं नहीं होते, पानी के लिए बाहरी स्रोत पर निर्भर रहना पड़ता है।
गांवों से पलायन करने वालों की झुग्गियां शहरों की समस्याएं बढ़ाती हैं। यदि सरकार गांवों
को सुविधा-संपन्न बनाने की ओर ध्यान दे तो वहाँ से लोगों का पलायन रूक सकता है। वहाँ
अच्छी सड़कें, आवागमन के साधान, स्कूल-कॉलेज, अस्पताल व अन्य आवश्यक सुविधाएं सुलभ हों
तथा शासन की कल्याणकारी नीतियों और योजनाओं का लाभ आमजन को मिलने का पूरा प्रबंध हो
तो लोग पलायन क्यों करेंगे ? गांवों में कृषि कार्य अच्छे से हो, कुएं-तालाब, बावड़ियों
की सफाई यथा-समय हो, गंदगी से बचाव के उपाय किये जाएँ। वहाँ यदि ग्रामीण विकास योजनाओं
का ईमानदारी-पूर्वक संचालन हो तो ग्रामों का स्वरूप निश्चय ही बदलेगा और वहाँ के पर्यावरण
से प्रभावित होकर शहर से जाने वाले नौकरी-पेशा भी वहाँ रहने को आतुर होंगे।
बिलुप्त होती जाती प्रजातियाँ :- धरती का तापमान निरंतर बढ़ रहा है इसलिए
पशु-पक्षियों की कई प्रजातियाँ लुप्त हो गयी हैं। जंगलों से शेर, चीते, बाघ आदि गायब
हो चले हैं। भारत में 50 करोड़ से भी अधिक जानवर हैं जिनमें से पांच करोड़ प्रति वर्ष
मर जाते हैं और साढ़े छ करोड़ नये जन्म लेते हैं। वन्य प्राणी प्राकृतिक संतुलन स्थापित
करने में सहायक होते हैं। उनकी घटती संख्या पर्यावरण के लिए घातक है। जैसे गिद्ध जानवर
की प्रजाति वन्य जीवन के लिए वरदान है पर अब 90 प्रतिशत गिद्ध मर चुके हैं। इसीलिए
देश के विभिन्न भागों में सड़े हुए जानवर दिख जाते हैं। जबकि औसतन बीस मिनट में ही गिद्धों
का झुंड एक बड़े मृत जानवर को खा जाता था। पर्यावरण की दृष्टि से वन्य प्राणियों की
रक्षा अनिवार्य है। इसके लिए सरकार को वन-संरक्षण और वनों के विस्तार की योजना पर गंभीरता
से कार्य करना होगा। वनों से लगे हुए ग्रामवासियों को वनीकरण के लाभ समझा कर उनकी सहायता
लेनी होगी तभी हमारे जंगल नये सिरे से विकसित हो पाएंगे जिसकी नितांत आवश्यकता है।
सभी प्राणियों में सन्तुलन हो :-पर्यावरण प्रदूषण पृथ्वी के सभी प्राणी
एक-दूसरे पर निर्भर है तथा विश्व का प्रत्येक पदार्थ एक-दूसरे से प्रभावित होता है।
इसलिए और भी आवश्यक हो जाता है कि प्रकृति की इन सभी वस्तुओं के बीच आवश्यक संतुलन
को बनाये रखा जाये। इस 21वींसदी में जिस प्रकार से हम औद्योगिक विकास और भौतिक समृद्धि
की और बढे चले जा रहे है, वह पर्यावरण संतुलन को समाप्त करता जा रहा है। अनेकानेक उद्योग-धंधों,
वाहनों तथा अन्यान्य मशीनी उपकरणों द्वारा हम हर घडी जल और वायु को प्रदूषित करते रहते
है। वायुमंडल में बड़े पैमाने पर लगातार विभिन्न घटक औद्योगिक गैसों के छोड़े जाने से
पर्यावरण संतुलन पर अत्यंत विपरीत प्रभाव पड़ता रहता है। मुख्यतः पर्यावरण के प्रदूषित
होने के मुख्य करण है - निरंतर बढती आबादी, औद्योगीकरण, वाहनों द्वारा छोड़ा जाने वाला
धुंआ, नदियों, तालाबों में गिरता हुआ कूड़ा-कचरा, वनों का कटान, खेतों में रसायनों का
असंतुलित प्रयोग, पहाड़ों में चट्टानों का खिसकाना, मिट्टी का कटान आदि।
विभिन्न
प्रकार के प्रदूषण:-
1.भूमि प्रदूषण:- पर्यावरण की रक्षा के लिए मृदा,
जल, वायु और ध्वनी प्रदूषण की रोकथाम अनिवार्य है। भूमि-प्रदूषण का कारण है वनों का
विनाश, खदानें, भू-क्षरण, रासायनिक खाद तथा कीटनाशक दवाओं का उपयोग आदि। भूमि की उर्वरता
बढ़ाने हेतु रासायनिक खाद का तथा फसल को कीड़ों और रोगों से बचाने के लिए कीटनाशक दवाओं
का उपयोग किया जाता है, जो भूमि को प्रदूषित कर देते हैं। इनके कारण भूमि को लाभ पहुंचाने
वाले मेंढक व केंचुआ जैसे जीव नष्ट हो जाते हैं जबकि फसलों को क्षति पहुंचाने वाले
कीड़े-मकोड़ों से बचाव में यही जीव सहायक होते हैं। अतः कृषि फसल में एलगी, कम्पोस्ट
खाद तथा हरी खाद का उपयोग किया जाना चाहिए ताकि खेतों में ऐसे लाभदायक जीवों की वृद्धि
हो सके जो खेती की उर्वरा शक्ति बढ़ा सकें। कृषि तथा अन्य कार्यों में कीटनाशकों के
प्रयोग की बात करें तो विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अधिकांश कीटनाशकों को विषैला घोषित
किया है, बावजूद इसके हमारे देश में तो इनका प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है।
2.जल प्रदूषण :-पृथ्वी का तीन चैथाई हिस्सा जलमग्न
है फिर भी करीब 0.3 फीसदी जल ही पीने योग्य है। विभिन्न उद्योगों और मानव बस्तियों
के कचरे ने जल को इतना प्रदूषित कर दिया है कि पीने के करीब 0.3 फीसदी जल में से मात्र
करीब 30 फीसदी जल ही वास्तव में पीने के लायक रह गया है। जल प्रदूषण के कारण अनेक बीमारियाँ
जैसे - पेचिस, खुजली, हैजा, पीलिया आदि फैलते है। चूंकि अब जल-संकट गंभीर रूप धारण
कर चुका है अत एवं जल-स्रोतों को सूखने से बचाने के साथ-साथ जल-प्रदूषण को रोकने के
उपाय भी करने होंगे। निरंतर बढ़ती जनसंख्या, पशु-संख्या, औद्योगीकरण, जल-स्रोतों के
दुरुपयोग, वर्षा में कमी आदि कारणों से जल-प्रदूषण ने उग्र रूप धारण कर लिया है। नदियों
एवं अन्य जलस्रोतों में कारखानों से निष्कासित रासायनिक पदार्थ व गंदा पानी मिल जाने
से वह प्रदूषित हो जाता है। नदियों के किनारे बसे नगरों में जल-अधाजले शव तथा मृत जानवर
नदी में फेंक दिये जाते हैं। कृषि-उत्पादन बढ़ाने और कीड़ों से उनकी रक्षा हेतु जो रासायनिक
खाद एवं कीटनाशक प्रयोग में लाये जाते हैं वे वर्षा के जल के साथ बहकर अन्य जल-स्रोतों
में मिल जाते हैं और प्रदूषण फैलाते हैं। नदियों, जलाशयों में कपड़े धोने, कूड़ा-कचरा
फेंकने व मल-मूत्र विसर्जित करने से भी यह स्थिति पैदा होती है। ऐसे में जल का दुरूपयोग
रोकना और मितव्ययिता से उसका प्रयोग करना आवश्यक है। बूंद-बूंद से ही घड़ा भरता है,
यह कहावत अब चरितार्थ हो रही है। हमें वर्षा के जल को संरक्षित करना होगा।
3. वायु प्रदूषण :- पर्यावरण के लिए वायु और ध्वनि
प्रदूषण भी कम घातक नहीं है। वायु में 78 प्रतिशत नाइट्रोजन, 21 प्रतिशतऑक्सीजन,
0.03 प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइड तथा शेष निष्क्रिय गैसें और जल वाष्प होती है। हवा
में विद्यमान ऑक्सीजन ही जीवधारियों को जीवित रखता है। मनुष्य सामान्यतरू प्रतिदिन
बाईस हजार बार सांस लेता है और सोलह किलोग्राम ऑक्सीजन का उपयोग करता है जो कि उसके
द्वारा ग्रहण किये जाने वाले भोजन और जल की मात्रा से बहुत अधिक है। वायुमंडल में ऑक्सीजन
का प्रचुर भंडार है किंतु औद्योगिक प्रगति के कारण वह प्रदूषित हो चला है। घरेलू ईंधन,
वाहनों की बढ़ती संख्या और औद्योगिक कारखानें इसके लिए जिम्मेदार हैं। इससे निपटने के
लिए कोयला, डीजल व पेट्रोल का उपयोग विवेक-पूर्ण ढंग से होना चाहिए। कारखानों में चिमनियों
की ऊंचाई बढ़ायी जाए तथा उसमें फिल्टर का उपयोग किया जाए। घरों एवं होटलों में ईंधन
के रूप में गोबर गैस व सौर ऊर्जा के इस्तेमाल पर जोर दिया जाना चाहिए।
4.ध्वनि-प्रदूषण :- ध्वनि-प्रदूषण एक गंभीर समस्या है जो
पर्यावरण ही नहीं संपूर्ण जीव जगत के लिए चुनौती है। जीव जंतुओं के अलावा पेड़ पौधे
तथा भवन आदि भी वायु प्रदुषण से प्रभावित होते है। आये दिन मशीनों, लाउडस्पीकरो, कारों
द्वारा तथा विवाहोस्तव, त्योहारों, धार्मिक कार्यों के अवसरों पर होने वाला ध्वनि प्रदुषण
न जाने कितनों की नींद हराम करता रहता है। अनियंत्रित जनसंख्या, शहरों में यातायात
के विविध साधनों, सामाजिक एवं सांस्कृतिक समारोहों में ध्वनि विस्तारक यंत्रों तथा
कल-कारखानों के कारण बहुत शोरगुल बढ़ रहा है। लोग टेलीफोन और मोबाइल पर भी चीख-चीखकर
बातें करते हैं। मल्टी स्टोरी आवासों तक में धीमे बोलने की संस्कृति विकसित नहीं हो
सकी है। ध्वनि प्रदूषण नियंत्रण हेतु कानून तो है पर उसका पालन नहीं किया जाता। भारत
में लगभग 4000 से अधिक रासायनिक कारखाने है जिनमें काम करने वाले अनेक रोगों से पीड़ित
हो जाते है और अनेकों का तो जीवन ही समाप्त हो जाता है। वन और वृक्षों का विनाश प्रदूषण
का एक मुख्य कारण है। इसके साथ ही विचार प्रदूषण में एक स्वार्थबद्ध एवं संकुचित विचार
वायुमंडल में दूषित लहरियों का संचार करते है। इनके कारण अनेक पेड़-पौधे तथा फूलों की
वृद्धि बाधित होती है तथा अनैतिक कार्यों की प्रेरणा प्राप्त होती है।
पर्यावरण के प्रति जागरूकता और समाधान :- पर्यावरण की अवहेलना के गंभीर दुष्परिणाम
समूचे विश्व में परिलक्षित हो रहे हैं। अब सरकार जितने भी नियम-कानून लागू करें उसके
साथ साथ जनता की जागरूकता से ही पर्यावरण की रक्षा संभव हो सकेगी। इसके लिए कुछ अत्यंत
सामान्य बातों को जीवन में दृढ़ता-पूर्वक अपनाना आवश्यक है। जैसे -प्रत्येक व्यक्ति
प्रति वर्ष यादगार अवसरों (जन्मदिन, विवाह की वर्षगांठ) पर अपने घर, मंदिर या ऐसे स्थल
पर फलदार अथवा औषधीय पौधा-रोपण करे, जहाँ उसकी देखभाल हो सके। उपहार में भी सबको पौधो
दें। शिक्षा संस्थानों व कार्यालयों में विद्यार्थी, शिक्षक, अधिकारी और कर्मचारीगण
राष्ट्रीय पर्व तथा महत्त्वपूर्ण तिथियों पर पौधों रोपे। विद्यार्थी एक संस्था में
जितने वर्ष अध्ययन करते हैं, उतने पौधो वहाँ लगायें और जीवित भी रखें।प्रत्येक गांव
शहर में हर मुहल्ले व कॉलोनी में पर्यावरण संरक्षण समिति बनायी जाये। निजी वाहनों का
उपयोग कम से कम किया जाए। रेडियो-टेलीविजन की आवाज धीमी रखें। सदैव धीमे स्वर में बात
करें। घर में पार्टी हो तब भी शोर न होने दें। जल व्यर्थ न बहायें। गाड़ी धोने या पौधों
को पानी देने में इस्तेमाल किया पानी का प्रयोग करें। अनावश्यक बिजली की बत्ती जलती
न छोडें। पॉलीथिन का उपयोग न करें। कचरा कूड़ेदार में ही डाले। अपना मकान बनवा रहे हों
तो उसमें वर्षा के जल-संरक्षण और उद्यान के लिए जगह अवश्य रखें। ऐसी अनेक छोटी-छोटी
बातों पर ध्यान देकर भी पर्यावरण की रक्षा की जा सकती है। ये आपके कई अनावश्यक खर्चों
में तो कमी लायेंगे ही, पर्यावरण के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाने की आत्मसंतुष्टि
भी देंगे। तो प्रयास कीजिये - सिर्फ सालाना आयोजन के उपलक्ष्य में ही नहीं बल्कि एक
आदत के रूप में भी पर्यावरण चेतना को अपनाने का। उल्लेखनीय है कि पर्यावरण-संरक्षण
हेतु उत्कृष्ट कार्य करने वाले व्यक्ति और संगठन को भारत सरकार के पर्यावरण एवं वन
मंत्रालय द्वारा एक-एक लाख रुपये का इंदिरा गाँधी पर्यावरण पुरस्कार प्रति वर्ष 19
नवंबर को प्रदान किया जाता है।पर्यावरण की महत्ता को देखते हुए इसे स्कूलों में बच्चो
की पठन सामग्री में शामिल कर लिया गया है। हमारे चारों ओर प्रकृति तथा मानव निर्मित
जो भी जीवित-निर्जीव वस्तुएं है, वे सब मिलकर पर्यावरण बनाती है। इस प्रकार मिटटी,
पानी, हवा, पेड़-पौधे, जीव-जंतु सभी कुछ पर्यावरण से अंग है, और इन सभी के आपसी तालमेल
(उचित मात्रा में होना) को पर्यावरण संतुलन कहा जाता है। प्रकृति से छेड़छाड़ और प्रदूषण
के लगातार बढ़ते ग्राफ से पर्यावरण बिगड़ चुका है।
ताजनगरी आगरा में प्रदूषण काफी ज्यादा :- ताजनगरी आगरा सहित कई शहर प्रदूषण
के ग्राफ में काफी ऊपर जा चुके हैं, सांस लेना तक मुश्किल हो चुका है, मगर फिर भी लोग
इन हालातों पर नहीं चेत रहे। जब विश्व पर्यावरण दिवस का मौका था, तो हर किसी को पर्यावरण
बचाने की याद आई। किसी ने पौधे लगाते तो किसी ने पौधों का वितरण किया। हर दिन सुस्त
रहने वाली सरकारी मशीनरी भी इस दिन सक्रिय नगर आई। नगर निगम प्रशासन ने कार्यक्रम आयोजित
कर ताजनगरी क्षेत्र में लोगों को डस्टबिन का वितरण किया तो हर महकमे में अधिकारियों
ने परिसर में पौधरोपण किया। डीएम गौरव दयाल ने भी कलेक्ट्रेट परिसर में पौधा लगाया।
शहर में कई संस्थाओं ने जगह-जगह पौधे लगाए। यही नहीं सभी अधिकारियों ने महकमे के अन्य
स्टाफ व लोगों को पौधे अधिक से अधिक लगाने व पर्यावरण बचाने की शपथ दिलवाई। अब देखना
यह होगा कि इन पौधों को लगाने के बाद इनकी देखभाल कितनी की जाती है। क्या ये पौधे लंबे
समय तक जीवित रहेंगे या हर बार की तरह ये भी कुछ दिन बाद सूखते नजर आएंगे। यदि इसके
देखभाल की व्यवस्था भी इतनी ही मुस्तैदी से हो तो बहुत कुछ सुधार लाने की गुंजाइश देखी
जा सकती है। जल जमीन और जंगल के लिए समर्पित तथा यमुना नदी में निर्मल जल धारा लाने
के लिए प्रतिबद्ध ‘गुरु बशिष्ट मानव सर्वांगीण विकास सेवा
समिति’ पिछले दो दशकों से आगरा के पर्यावरण के प्रति काफी चिन्तित तथा प्रयास
शील है। इसके संस्थापक अध्यक्ष यमुना सत्याग्रही पं. अश्विनी कुमार मिश्र अपने कुछ
समर्पित स्वयंसेवकों का साथ लेकर इस मुहिम में लगे हुए है। राज तथा समाज में उचित सामंजस्य
बैठाते हुए उन्होंने आगरा के लिए बहुत कुछ किया है। बल्केश्वर घाट का आज जो स्वरुप
बना है उसके लिए यह संस्था व यमुना सत्याग्रही के योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता
है। उनकी संकल्पना में अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।
आगरा के कैलाश घाट, बल्केश्वर घाट, राधा नगर घाट, जमुना किनारा घाट, दशहरा घाट, मेहताबबाग घाट, एत्माद्दौला घाट, चीनी का रोजा का घाट व जोहारा बाग का घाट आदि
10 घाटों के सुधार तथा जीर्णोद्धार के लिए वे ना केवल साप्ताहिक यमुना आरती हाथीघाट पर करवाते है। अपितु अनेक सामाजिक तथा संास्कृतिक आयोजन भी करवाते रहतें हैं । आगामी 6 जुलाई 2017 को हाथीघाट पर भारत के विभिन्न अंचलों से आये 150 कलाकारों का एक विशाल नृत्य नाटिका का आयोजन भी किया जा रहा है। ये सब सांस्कृतिक कार्यक्रम आम जनता को पर्यावरण स्वच्छता आदि से जोड़ने के लिए ही किया जा रहा है। इस घाट का व्यवसायिक उपयोग भी कुछ लोग कर रहे हैं परन्तु जन जागरुकता तथा स्वच्छता के प्रति उदासीन हैं । यदि प्रशासन इसकी निगरानी करे तो यह आगरा का एक मनोरम स्थल विकसित किया जा सकता है।
आगरा के कैलाश घाट, बल्केश्वर घाट, राधा नगर घाट, जमुना किनारा घाट, दशहरा घाट, मेहताबबाग घाट, एत्माद्दौला घाट, चीनी का रोजा का घाट व जोहारा बाग का घाट आदि
10 घाटों के सुधार तथा जीर्णोद्धार के लिए वे ना केवल साप्ताहिक यमुना आरती हाथीघाट पर करवाते है। अपितु अनेक सामाजिक तथा संास्कृतिक आयोजन भी करवाते रहतें हैं । आगामी 6 जुलाई 2017 को हाथीघाट पर भारत के विभिन्न अंचलों से आये 150 कलाकारों का एक विशाल नृत्य नाटिका का आयोजन भी किया जा रहा है। ये सब सांस्कृतिक कार्यक्रम आम जनता को पर्यावरण स्वच्छता आदि से जोड़ने के लिए ही किया जा रहा है। इस घाट का व्यवसायिक उपयोग भी कुछ लोग कर रहे हैं परन्तु जन जागरुकता तथा स्वच्छता के प्रति उदासीन हैं । यदि प्रशासन इसकी निगरानी करे तो यह आगरा का एक मनोरम स्थल विकसित किया जा सकता है।
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