फिल्म बादल सन 1966 की एक फिल्म है जो कब आई कब गयी शोध का विषय हो
सकता है। ये रेडियो पर कभी कभार बजने वाला गीत, मगर, किसी परिचय का मोहताज़ नहीं है।
मन्ना डे के गाये बढ़िया गीत के प्रेरणादायक बोलों को गुनगुनाकर ऊर्जा महसूस कीजिये।
गाने की धुन बनायीं है उषा खन्ना ने। बोल लिखे हैं जावेद अनवर ने। गाने का दर्शन वही
है 'जियो तो दूसरों के लिए' और अपने जीवन को सार्थक बनाओ। इसे साधु संत समय समय पर अलग अलग तरह से बतलाते सुनाई देते हैं।
खुदगर्ज़ दुनिया में
ये, इनसान की पहचान है
जो पराई आग में जल जाये, वो इनसान है
जो पराई आग में जल जाये, वो इनसान है
अपने लिये जिये तो क्या
जिये अपने लिये जिये तो क्या जिये
तू जी, ऐ दिल, ज़माने के लिये अपने लिये जिये तो क्या जिये
तू जी, ऐ दिल, ज़माने के लिये अपने लिये जिये तो क्या जिये
बाज़ार से ज़माने के, कुछ
भी न हम खरीदेंगे
बाज़ार से ज़माने के, कुछ भी न हम खरीदेंगे
हाँ, बेचकर खुशी अपनी लोगों के ग़म खरीदेंगे
बाज़ार से ज़माने के, कुछ भी न हम खरीदेंगे
हाँ, बेचकर खुशी अपनी लोगों के ग़म खरीदेंगे
बुझते दिये जलाने के
लिये बुझते दिये जलाने के लिये
तू जी, ऐ दिल, ज़माने के लिये अपने लिये जिये तो क्या जिये
तू जी, ऐ दिल, ज़माने के लिये अपने लिये जिये तो क्या जिये
अपनी खुदी को जो समझा
उसने खुदा को पहचाना
अपनी खुदी को जो समझा उसने खुदा को पहचाना
आज़ाद फ़ितरते इनसां अन्दाज़ क्यों ग़ुलामाना
अपनी खुदी को जो समझा उसने खुदा को पहचाना
आज़ाद फ़ितरते इनसां अन्दाज़ क्यों ग़ुलामाना
सर ये नहीं झुकाने के
लिये सर ये नहीं झुकाने के लिये
तू जी, ऐ दिल, ज़माने के लिये अपने लिये जिये तो क्या जिये
तू जी, ऐ दिल, ज़माने के लिये अपने लिये जिये तो क्या जिये
हिम्मत बुलंद है अपनी
पत्थर सी जान रखते हैं
हिम्मत बुलंद है अपनी पत्थर सी जान रखते हैं
कदमों तले ज़मीं तो क्या हम आसमान रखते हैं
गिरते हुओं को उठाने के लिये गिरते हुओं को उठाने के लिये
हिम्मत बुलंद है अपनी पत्थर सी जान रखते हैं
कदमों तले ज़मीं तो क्या हम आसमान रखते हैं
गिरते हुओं को उठाने के लिये गिरते हुओं को उठाने के लिये
तू जी, ऐ दिल, ज़माने
के लिये अपने लिये जिये तो क्या जिये
चल आफ़ताब लेकर चलचल महताब
लेकर चल
चल आफ़ताब लेकर चल चल महताब लेकर चल
तू अपनी एक ठोकर में सौ इन्क़लाब लेकर चल
चल आफ़ताब लेकर चल चल महताब लेकर चल
तू अपनी एक ठोकर में सौ इन्क़लाब लेकर चल
ज़ुल्म और सितम मिटाने
के लिये तू जी, ऐ दिल, ज़माने के लिये
अपने लिये जिये तो क्या जिये अपने लिये जिये तो क्या जिये
अपने लिये जिये तो क्या जिये अपने लिये जिये तो क्या जिये
नाकामियों
से घबरा के तुम क्यों उदास होते हो
मैं हमसफ़र तुम्हारा हूँ तुम क्यों उदास होते हो
हँसते रहो, हँसाने के लिये
तू जी, ऐ दिल, ज़माने के लिये
अपने लिये जिये तो क्या जिये
अपने लिये जिये तो क्या जिये
मैं हमसफ़र तुम्हारा हूँ तुम क्यों उदास होते हो
हँसते रहो, हँसाने के लिये
तू जी, ऐ दिल, ज़माने के लिये
अपने लिये जिये तो क्या जिये
अपने लिये जिये तो क्या जिये
जीवन की गाड़ी सांसों की पटरी पर सरपट दौड़ती रहे,
इसकी सीख भारतीय मनीषा में अच्छी तरह से दी गई है। विशिष्टाद्वैत दर्शन में समझाया
गया है कि चित् यानी आत्म और अचित् यानी प्रकृति तव ईश्वर से अलग नहीं है, बल्कि उसका
ही विशिष्ट रूप है। आस्थावान लोग इस दार्शनिक बिंदु से अपनी उपस्थिति और महत्व निर्धारित
करेंगे, जबकि शैव दर्शन में शिव को पति मानते हुए जीवन को पशु अवस्था में माना गया
और पाश यानी बंधन की स्थिति समझाई गई है। यहां शिव की कृपा से बंधन की समाप्ति और
‘शिवत्व’ की प्राप्ति ही मुक्तिदायी बताई गई है। यह दो उदाहरण भर हैं। दर्शन की इन
धाराओं में प्रभु और प्रकृति और बंधन व मुक्ति के संदर्भ समझे जा सकते हैं। हालांकि
जिंदगी जीने के नुस्खे तरह-तरह के हैं और दर्शन, यानी सत्य के रूप भी बहुरंगी हैं।
चार्वाक का दर्शन ही देखिए। वे इसी जगत और जीवन को सबसे अहम बताते हैं। चार्वाक स्वर्ग
और नर्क को खारिज करते हुए, वेदों की प्रामाणिकता पर भी सवाल उठाते हैं और मानते हैं
कि कोई अमर आत्मा नहीं होती। आस्थावान लोगों के लिए चार्वाक का दर्शन थोड़ा विचलित
करने वाला हो सकता है। वे पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि जैसे चार महाभूतों से हमारी देह
बनने के उदाहरण देते हैं और बताते हैं कि शरीर यहीं नष्ट भी हो जाता है।
जीना क्या है ? इस बात से हम वाकिफ नहीं रहते .
कभी हमारे जीवन में निराशा आती है तो कभी आशा, कभी सुख तो कभी दुःख , कभी हार तो कभी
जीत, कभी सफलता तो कभी असफलता यह क्रम अनवरत रूप से चलता रहता है .लेकिन जीवन यहीं
पर खत्म नहीं हो जाता, वह बढ़ता रहता है साँसों का सफ़र अनवरत रूप से चलता है और हम
आगे बढ़ते रहते हैं बस यही जीवन है . लेकिन इस जीवन को हर परिस्थिति में कैसे चलाया
जाए हम अपनी मानसिक स्थिति को किस तरह नियंत्रित कर सकते हैं . यह अगर कुछ बातों को
अपनाया जाए तो एक बेहतर जीवन जिया जा सकता है और फिर जब हम ऐसा कर पाने में सफल हो
जाते हैं तो संसार के लिए हम आदर्श और अनुकरणीय बन जाते है .
जीवन जीने के विविध तरीके, बहुतेरे सत्य और कई रास्ते
हमारे सामने हैं। ठीक ऐसे ही, जैसे जिंदगी एक तार पर नहीं चलती। समरेखा पर उम्र नहीं
गुजारी जा सकती। हाथ की सब अंगुलियां एक बराबर नहीं होतीं, ऐसे ही जीवन का सत्य भी
एक सा नहीं होता। अब प्रश्न वही फिर से उठता
है, फिर जीवन के लिए आदर्श क्या है। कौन-सा सत्य? कौन-सा दर्शन? इसका जवाब एक ही है
— जिंदगी का वह रास्ता, जो आपके मन, तन को सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर रखे। और यही नहीं,
अपने लिए तो कोई पशु भी जी लेता है, जीवन का ऐसा ही पथ श्रेयष्कर है, जो विराट मानव
समाज के लिए सुखद और मंगलकारी हो। दर्शन और जीवन की अर्थ तभी है, जब हम इसमें उलझें
नहीं, हमारी जिंदगी की गुत्थियां सुलझाते हुए दिव्य मानव बनने की ओर चल पाएं।
दरअसल, जीवन एक व्यवस्था है। ऐसी व्यवस्था, जो जड़
नहीं, चेतन है। स्थिर नहीं, गतिमान है। इसमें लगातार बदलाव भी होने हैं। जिंदगी की
अपनी एक फिलासफी है, यानी जीवन-दर्शन। सनातन सत्य के कुछ सूत्र, जो बताते हैं कि जीवन
की अर्थ किन बातों में है। ये सूत्र हमारी जड़ों
में हैं — पुरातन ग्रंथों में, हमारी संस्कृति में, दादा-दादी के किस्सों में, लोकगीतों
में। जीवन के मंत्र ऋचाओं से लेकर संगीत के नाद तक समाहित हैं। हम इन्हें कई बार समझ
लेते हैं, ग्रहण कर पाते हैं तो कहीं-कहीं भटक जाते हैं और जब-जब ऐसा होता है, जिंदगी
की खूबसूरती गुमशुदा हो जाती है।
आप अपनी जिंदगी किस तरह जीना चाहते हैं? हो सकता
है, ये सवाल आपको अटपटा लगे, लेकिन है जरूरी, आखिरकार जिंदगी है आपकी! यकीनन, आप जवाब
देंगे — जिंदगी तो अच्छी तरह जीने का ही मन है। यह भाव, ऐसी इच्छा, इस तरह का जवाब
बताता है कि आपके मन में सकारात्मकता लबालब है,
लेकिन यहीं एक अहम प्रश्न उठता है — जिंदगी क्या है, इसके मायने क्या हैं? इस बारे
में हम अनगिन बार चर्चा कर चुके हैं और हर बार यही निष्कर्ष सामने आया है कि दूसरों
के भले के लिए जो सांसें हमने जी हैं, वही जिंदगी है पर कोई जीवन अर्थवान कब और कैसे
हो पाता है, यह जानना बेहद आवश्यक है।
(पंकज मिथिलेश द्विवेदी के फेसबुक की वाल से साभार)
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