अपने-अपने
वर्तमान जीवन तथा पूर्वजीवन के कर्मफलों को
भोगना हर प्राणी के
लिए अनिवार्य है। इससे मुक्ति कदापि नहीं मिल सकती है। ईश्वर भी इसमें कोई
तब्दीली नहीं कर सकता है।
भगवान राम के पिता दशरथ
को अपने कर्म का फल भोगना
पड़ा था। श्रीकृष्ण के माता-पिता को
भी कष्टों को झेलकर ही
प्रभु स्वरुप पुत्र की प्राप्ति हुई
थी। स्वयं परम शक्ति भी इस नियम
से मुक्त नहीं हो सकती है।
हर किसी को किसी ना
किसी रुप में अपने कर्म के अनुरुप ही
फल प्राप्त होते रहतें हैं। आज जो शीर्ष
पर है कल वह
नीचे रहेगा और जो नीचे
हैं वह शीर्ष पर
कर्म के अनुसार ही
आता और जाता रहता
है। श्रीमद्भगवत गीता हमें हमेशा सतकर्म करने की प्रेरणा देती
है। सत्य और सतकर्म को
कभी नहीं छोड़ना चाहिए। सतकर्म से मनुष्य का
जीवन संवरता है तो सत्य
से परमात्मा की प्राप्ति होती
है। सत्य परेशान हो सकता है
लेकिन उसकी हार कभी नहीं होती है। श्रीमद भागवत पुराण व श्रीमद्भगवत गीता
ने मनुष्य को सत्य के
साथ रहने का बड़ा संदेश
दिया है। पूर्व जन्मों के कर्मों से
ही हमें इस जन्म में
माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नि, प्रेमी-प्रेमिका, मित्र-शत्रु तथा सगे-सम्बन्धी इत्यादि संसार के जितने भी
रिश्ते नाते हैं, सब मिलते हैं।
उसके अनुसार सारी परिस्थितियां अनुकूल या प्रतिकूल बनती
रहती हैं।
हमें इन सब रिश्तों
को या तो कुछ
देना होता है या इनसे
कुछ लेना होता है। सभी परिजन इन्हीं प्रेरणाओं के वसीभूत होकर
अपना कर्म इस संसार रुपी
मंच पर निभाते हैं।
आइये कुछ पल इस सच्चाई
से और भलीभांति रूबरु
होने का प्रयास करें।
सन्तान के
चार
स्वरुप
:- श्रीमद्भगवत गीता में हमें सन्तान के चार स्वरुप
मिलते हैं। सन्तान के रुप में
हमारा कोई पूर्वजन्म का सम्बन्धी ही
आकर हमारे घर परिवार में
जन्म लेता है। यह कोई सा
भी जीव चराचर भी हो सकता
है। इन्हें शास्त्रों में चार प्रकार का बताया गया
है –
1. ऋणानुबन्ध सन्तान :- पूर्व
जन्म का कोई ऐसा
जीव जिससे आपने ऋण लिया हो
या उसका किसी भी प्रकार से
धन नष्ट किया हो, वह आपके घर
में सन्तान बनकर जन्म लेगा और आपका धन
बीमारी में या व्यर्थ के
कार्यों में तब तक नष्ट
करवाता रहेगा, जब तक कि
उसका हिसाब पूरा ना हो जाये
। यह श्रेणी आदर्श
नहीं होती है।
2. शत्रुरुप का सन्तान :- पूर्व
जन्म का कोई दुश्मन
आपसे बदला लेने के लिये आपके
घर में सन्तान बनकर आ सकता है।
यह बड़ा होकर माता-पिता से मारपीट, झगड़ा
कर सकता है। या उन्हें सारी
जिन्दगी किसी ना किसी प्रकार
से सताता रह सकता है।
वह हमेशा कड़वा बोलकर माता पिता की बेइज्जती कर
सकता है। वह उन्हें दुःखी
रखकर खुश होता रहेगा । यह सन्तान
सदैव कष्टकर ही होता है।
3. उदासीन सन्तान :- इस
प्रकार की सन्तान ना
तो माता-पिता की सेवा करती
है और ना ही
कोई सुख देती है । बस,
उनको उनके हाल पर मरने के
लिए छोड़ देती है । विवाह
होने पर यह माता-पिता से अलग हो
जाते हैं । आजकल अधिकांशतः
सन्तान इसी श्रेणी के मिलते हैं।
4. सेवक स्वरुप का सन्तान :- पूर्व जन्म
में यदि आपने किसी की खूब सेवा
की है तो वह
अपनी की हुई सेवा
का ऋण उतारने के
लिए आपका पुत्र या पुत्री बनकर
आता है और आपकी
सेवा करता है। एसे सन्तान कम ही लोगों
को मिल पाते हैं।
सारे जीव-जन्तु चराचर के भी चार श्रेणी :- आप यह ना
समझें कि यह सब
बातें केवल मनुष्य पर ही लागू
होती हैं। इन चार प्रकार
में कोई सा भी जीव
चराचर भी आ सकता
है। जैसे आपने किसी गाय कि निःस्वार्थ भाव
से सेवा की है तो
वह भी पुत्र या
पुत्री बनकर आ सकती है।
यदि आपने गाय को स्वार्थ वश
पालकर उसको दूध देना बन्द करने के पश्चात घर
से निकाल दिया तो वह ऋणानुबन्ध
पुत्र या पुत्री बनकर
जन्म ले सकती है।
यदि आपने किसी निरपराध जीव को सताया है
तो वह आपके जीवन
में शत्रु बनकर आयेगा और आपसे बदला
लेगा। इसलिये जीवन में कभी किसी का बुरा नही
करना चाहिए । प्रकृति का
नियम है कि आप
जो भी करोगे, उसे
वह आपको इस जन्म में
या अगले जन्म में सौ गुना वापिस
करके देना होगा। यदि आपने किसी को एक रुपया
दिया है तो समझो
आपके खाते में सौ रुपये जमा
हो गये हैं। यदि आपने किसी का एक रुपया
छीना है तो समझो
आपकी जमा राशि से सौ रुपये
निकल गये।
संचय प्रवृति त्यागो :- ध्यान से विचार कीजिये
कि आप कौन सा
धन साथ लेकर आये थे और कितना
साथ लेकर जाओगे ? जो चले गये,
वो कितना सोना-चाँदी साथ ले गये ? मरने
पर जो सोना-चाँदी,
धन-दौलत बैंक में पड़ा रह गया, समझो
वह सब व्यर्थ ही
कमाया गया था। औलाद अगर अच्छी और लायक है
तो उसके लिए कुछ भी छोड़कर जाने
की जरुरत नहीं है, खुद ही खा-कमा
लेगी और औलाद अगर
बिगड़ी या नालायक है
तो उसके लिए जितना मर्जी धन छोड़कर जाओ,
वह चंद दिनों में सब बरबाद करके
ही छोड़ेगी। निष्कर्ष यह है कि
आपने जो बोया है,
वही तो काटोगे। आप
अपने माँ-बाप की सेवा की
है तो ही आपकी
औलाद बुढ़ापे में आपकी सेवा करेगी। यदि यह चूक आपने
कर रखी है तो आपके
पास कोई पानी पिलाने वाला या सुख दुख
को बांटने वाला आपके पास नहीं रहेगा ।
नेकी और सतकर्म करो :-
उक्त परिस्थितियों
को देखते हुए हम कह सकते
हैं कि मैं, मेरा,
तेरा और सारा धन
यहीं का यहीं धरा
रह जायेगा, कुछ भी साथ नहीं
जायेगा। साथ यदि कुछ जायेगा भी तो सिर्फ
नेकियां ही साथ जायेंगी।
इसलिए जितना हो सके नेकी
करो, सतकर्म करो। किसी भी प्राणी को
कष्ट मत दो। सदा
सत्य के मार्ग पर
चलते हुए व सत्कर्म करने
वाले मनुष्यों का बेड़ा खुद
नारायण भवसागर के पार लगाते
हैं। यदि मनुष्य अनुरूप आचरण करने लगे तो उस पर
जीवन भर ईश्वर की कृपा
बरसती रहती है। ईश्वर की भक्ति में
वह शक्ति है कि सच्ची
लगन से जो व्यक्ति
भगवान को याद करता
है उसका जीवन सदा सुखमय व्यतीत होता है। वह कभी गलत
मार्ग पर भटकने भी
नहीं पाता है। ईश्वर उसके आगे पीछे सदैव रक्षा करता रहता है।
No comments:
Post a Comment