सौन्दर्य
प्रसाधन में मनकों का प्रयोग
डा.
राधेश्याम द्विवेदी
सामान्य मनके
मानव
जाति आदिकाल से ज्ञान और
अन्तर्मन की उच्च अवस्थाओं
का प्रदर्शन और प्रकाशन करता
चला आ रहा है।
इसी क्रम में उसने सौन्दर्य की अभिव्यंजना भी
करना प्रारम्भ किया। वह भौतिक आकर्षण
के लिए सदैव प्र्रयासरत रहा है। पुरुष और नारी अपने
अस्तित्व के साथ-साथ
ही अपनी मन की अवस्थाओं
में आकर्षक दिखने का प्रयास करते
देखे गये हैं। वे तरह-तरह
के भौतिक प्रसाधनों तथा आभूषणों को धारण करने
लगे हैं। घर, गांव, शहर तथा पूजा स्थलों की साज-सज्जा
के साथ व्यक्तिगत साज-सज्जा व श्रृंगार की
भावना आदि काल से किये जाने
के प्रमाण मिलते रहे हैं। शरीर के बाह्य आवरण
पर तरह-तरह के आभूषण धारण
किये जाने लगे हैं।
मूलतः मानव अपने आराध्यों को अच्छा दीखने
के लिए और उनकी संप्रभुता
दिखाने के लिए इस
प्रकार के साज सज्जा
को प्राथमिकता देना शुरू किया था। फिर उसने अपने सम्राट तथा मुखिया को इसका अनुकरण
कराना शुरु किया। बाद में समाज व राज्य में
अपने को आदर्श तथा
सर्वाेच्च दीखने तथा दिखाने की ललक ने
मानव स्वयं इसे अपनाना शुरु किया। धीरे-धीरे संभ्रान्त जनों से लेकर आम
जनता इस प्रवृत्ति को
अपनाने के लिए अभ्यस्त
हो गयी। इस प्रकार सौन्दर्य
प्रसाधनों का प्रयोग शुरु
हुआ और एक परम्परा
की शुरुवात हुई।
सौन्दर्य
प्रसाधनों में मनके का प्रयोग का
प्रचलन भी बहुत पुुराना
है। मनका भारतीय समाज में सौन्दर्य प्रसाधन का एक प्रमुख
तथा लोकप्रिय आभूषण है जिसे धनवान
से लेकर सामान्य नर-नारी अपनी
रूचि तथा इच्छा के अनुसार प्रयोग
में लाते रहे हैं। यह पुरुष व
नारी श्रृंगार का एक बहु
प्रचलित आम प्रसाधन है।
इसके माध्यम से नरनारी न
केवल अपने परिवार में अपना आकर्षण बढ़ाते हंै अपितु समाज तथा सम्पूर्ण परिवेश में वह अपने को
विशिष्ट रूप से प्रदर्शित करने
लगते हंै। निर्माणक सामग्री के चयन के
आधार पर गरीब तबके
के लोग मिट्टी, हड्डी, सींग लकड़ी तथा पत्थरों से निर्मित सस्ते
मनकों का प्रयोग करने
लगे। संभ्रान्त जन कीमती धातुओं तथा पत्थरों से निर्मित मनके
का प्रयोग करने लगे।
भारत
मनकों तथा शीशांे के निर्माण तथा
प्रचार- प्रसार का भी एक
प्रमुख देश रहा है। प्राचीन साहित्य तथा पुरातात्विक संदर्भो को देखने से
इसकी उपयोगिता एवं लोकप्रियता परिलक्षित होती है। अध्ययन में यह पाया गया
कि भारत में मनकों की जानकारी तीसरी
सहत्राब्दी ई. पू. से
लेकर 18वीं शती ई. तक मिलती
है। साहित्यिक साक्ष्यों में मनके के निर्माण की
तकनीकियों की भी जानकारी
मिलती है। साहित्य में मनको का प्रयोग अथर्ववेद
में मिलता है। संहिताओं एवं सूत्र ग्रंथ में मणिकार शब्द में अनेक प्रकार के मनके बनाने
वालों को इंगित किया
गया है। बौद्ध एवं जौन साहित्य में भी विभिन्न प्रकार
के मणियों तथा लटकनों का उल्लेख मिलता
है। मध्य काल के साहित्य ग्रंथ
’’रत्न शास्त्र’ में कीमती तथा अल्प कीमती पत्थरों के मनके बनाने
की सूचना मिलती है।
मनकों
के प्रमुख आधारों में सामान्यतः मिट्टी, कांचली मिट्टी, पाषाण, वेशकीमती पत्थर, अल्पकीमती पत्थर, हाथी दांत ,हड्डी, सींग, शंख तथा शीशा आदि प्रमुख आधारों को अपनाया गया
है। सोने, चांदी, ताम्र और कांस्य के
मनके भी पहने जाते
रहे हैं। इसके निर्माण में तामड़ा, गोमेद, माणिक्य, कांच, मिट्टी प्रमुख आधारों को अपनाया गया
हैं। प्रमुख आकारों में ढ़ोलाकार ,बेलनाकार ,अण्डाकार , गोलाकार , त्रिभुजाकार, तथा
अर्धवुत्ताकार , सुपारी के बीज का
आकार, दोतरफा नोक का आकार तथा
नाशपाती का आकार ,खरबूजे
का आकार तथा रंग विरंगी तरह-तरह के मनकों का
प्रचलन देखा गया है।
1. प्रागैतिहासिक
कालः-मध्य पाषाणकाल के पुरातात्विक प्रमाणों
में मनकों का प्रयोग प्राप्त
होने लगता है। ताम्र और कांस्यकाल के
अहाड़ उप संस्कृति में
माणिक्य तथा सिलखड़ी के मनके मिले
है। मालवा तथा भारत के अन्य भूभागें
पर ढ़ोलाकार
,बेलनाकार, अण्डाकार , गोलाकार , त्रिभुजाकार, अर्धवृत्ताकार , सुपारी का आकार, दोतरफा
नोक का आकार तथा
नाशपाती के आकार आदि
बहुत सी विधायें
प्रचलित हैं। निर्माण साम्रगी को देखते हुए
यह बाद में मौर्य, कुषाण, शुंग, सातवाहन तथा मध्यकाल तक बराबर प्रचलन
में रहा। भारत के राजस्थान, मध्यभारत,
गुजरात, महाराष्ट्र तथा आन्ध्र -कर्नाटक में विभिन्न आकारों एवं प्रकारों के मनके पाये
गये हंै। इसके प्रथम प्राप्ति का स्थल गुजरात
का लांघनाज है जिसका समय
2000 ई पू. माना जाता है । बाद
में राजस्थान के बागर में
2800 से 600 ई.पू. में
पत्थर के मनकों के
प्राप्त होने के प्रमाण मिले
है। मनकों का अगला प्रमाण
काश्मीर के नव पाषाणकालीन
स्थल बुर्जहोम में 2375-1513 ई. पू. के
मध्य मिला है। कर्नाटक के टेक्कलाकोेटा में
शंख , मैगनीसाइट , गोमेद , कारनेलियन तथा मिट्टी के मनके मिले
हैं। इसी
समय विहार के चिरन्द में
भी मनके मिले हैं। हड़प्पा के मोहनजोदाड़ो ,चन्हूदाड़ो
तथा लोथल में मनके बनाने वाले शिल्पियों की दुकानें मिली
हैं। प्रमाणों के आधार पर
इन स्थलों से तृतीय सहत्राब्दी
ई. पू. से ही सभी
प्रकार के मनके प्राप्त
होने लगे हैं। इन सभी सौंधव
स्थलों से पूर्ण निर्मित
तथा अर्धनिर्मित मनके प्राप्त हुए हैं।
2. पूर्वेतिहासिक
कालः- पूर्व एतिहासिक स्थल हस्तिनापुर , कौशाम्बी , पैठन, पाटलिपुत्र, राजघाट, तक्षशिला, वैशाली पिपरहवा, गनवरिया तथा कोपिया में विभिन्न युगों के मनकों का
विशाल भंडार प्राप्त हुए हैं। यहां ईस्वी सन के पूर्व
से ही मनको का
निर्माण होने लगा था। छठी शती ई. पू. के
आसपास उत्तरी कृष्ण मार्जित पात्रों के साथ परिष्कृत
मनके जैसे तामड़ा, गोमेद, कांच के बेलनाकार, गोलाकार
, त्रिभुजाकार, मिटटी, माणिक्य, कांच, हाथी दांत और हड्डी के
मनके मिले हैं। इस काल में
मनका निर्माण के प्रमुख केन्द्रः
उज्जैन, कोशाम्बी, अहिच्छत्रा, तामलुक, भोकार्दन, टेर , कोल्हापुर, मास्की कोन्डापुर तथा कोपिया आदि थे।
3. सातवाहन
कालः-भारतीय मनकों के इतिहास में
तीसरा महत्वपूर्ण काल ईस्वी सन के प्रथम
दो शताब्दियों का है। द्वितीय
शताब्दी ई. का सातवाहनों
का काल है। उन्होंने डेकन तथा मध्य भारत में इस कला को
गति प्रदान की। यहां से नये रोमन
शीशे तथा दानेदार मूंगा मिलने लगे। भारतीय मनकों के इतिहास में
इस काल का सर्वाधिक स्थान
रहा है। इस काल में
भूमध्यसागरीय क्षेत्रों से सुन्दर दानेदार
प्रवाल या मूंगा तथा
रोम के कांच बाहर
से आयातित करके मनके बनाये गये हैं। सातवाहनों के पतन के
बाद भारत के विभिन्न भागों
में विस्तारित गुप्तवंश, प्रतिहार , चालुक्य, राष्ट्रकूट, चोल और पाल आदि
परवर्ती शासकों के समय में
ज्यादा मनके नहीं मिलते हैं। गुप्तकाल में सांचे से निर्मित मनके
मिलने लगे हैं।
4. मध्यकाल:-इस काल को
मध्यकाल भी कहा जा
सकता हैं। इस समय शीशे
के मनकों का प्रयोग घरेलू
उद्योग की तरह हर क्षेत्र में
शुरू हो गया था।
न केवल सामग्री की दृष्टि से
अपितु घरेलू उद्योग के रूप मे
हम देखते हैं कि उत्तर प्रदेश
,मध्यभारत, गुजरात, महाराष्ट्र( विदर्भ) तथा आन्ध्र -कर्नाटक, डेकन तथा गंगा का मैदानों में
में विभिन्न आकारों एवं प्रकारों के मनके बनने
लगे थे। इस काल में
शीशों के मनकों के
छोटे-छोटे उद्योग पूरे देश में फैल चुके थे।
मिट्टी
के मनकेः- गैरपाषाण
श्रेणी के मनकों में
सर्वाधिक लोकप्रिय तथा सर्वसुलभ सामग्री मिट्टी ही होती है।
इससे निर्मित मनके समय व स्थान के
आधार पर हर जगह
पाये जाते रहे हैं। इनमें सुपारी के बीज ,खरबूज
,दो नोक वाले, घट या कलश
तथा अण्डे आदि के आकार के
मनके भारी मात्रा में प्रायः हर पुरा स्थलों
से अन्वेषण व उत्खनन में
प्राप्त हो जाते हैं।
इसका समय भी तृतीय सहस्त्राब्दी
ई. पू. से सोलहवी-सत्रहवीं
शताब्दी ई. तक के
प्राप्त होते रहे हैं। गुप्तकाल में तो सांचे से
मनके बनने लगे थे जो शुंग
व सातवाहनों के काल से
अपेक्षा ज्यादा सुन्दर बनने लगे थे।
पाषाण निर्मित मनके:- मिट्टी के बाद दूसरी
कच्ची सामग्री पाषाण होता है जो प्रायः
ज्यादातर इलाकों में आसानी से उपलब्ध हो
जाता है। इसे संकलित एवं चयनित करने की हैसियत भी
प्रायः आम जन की
होती है। सम्पन्न एवं शौकीन लोग कीमती तथा अल्प कीमती पत्थरों का चयन करते
थे। इनका निर्माण आम ग्रामों में
न होकर बड़े ग्रामों व कस्बों मे
होने लगा था। यहां इसे निर्माण करने वाले मणिकार भी उपलब्ध होने
लगे हैं और पहननेवाले शौकीन
भी । कीमती पत्थरों
मंे विभिन्न प्रकार की मणियां व
रत्न होते हैं। अल्प कीमती पत्थरों में सिलखड़ी , रेखांकित करकेतन, गोमेद, तामड़ा, माणिक्य, जामनी, स्फटिक (बिल्लौर), सूर्यकांता, सुलेमानी आदि भारतीय तथा चेल्सडनी, कार्नेलियन, सार्डोनिक्स, चिस्ट (स्तरित) तथा फैन्स आदि विदेशी पाषाण होते हंै।
रंगीन
कांच का प्रयोगः-सर्वप्रथम
यह मौर्य काल से मिलना शुरू
हो जाता है। आई बीडस का
प्रचलन तक्षशिला में था। तृतीय शताब्दी ई. पू. से
पूर्व एतिहासिक काल के पुरास्थल श्रावस्ती
, कोशाम्बी, पाटलिपुत्र , माहेश्वर ,कोपिया,अहिच्छत्र , राजघाट, तथा त्रिपुरी आदि स्थलों में अनेक तकनीकी के साथ कांच
के मनके बनने के केन्द्र थे।
इनका समय ईसा का प्रारम्भ माना
जाता है। इस तरह कांच
के मनको के दो काल
हैं- 1. ग्रीस रोमन काल तथा 2. मध्यकालं। प्रथम काल के कलाकार भारत
में बसकर तक्षशिला , अरिकेमेदू , नेवासा, कारवान और उज्जैन में
यह कला फैलाये। द्वितीय काल पूर्व एवं उत्तर मध्यकाल है। इस तरह के
मनके अनेक आकार-प्रकार तथा तकनीकियों से युक्त होकर
भारत में ही पुष्पित एवं
पल्लवित हुए हैं।
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