Saturday, April 29, 2017

शेख अब्दुला का परिवार की रानीतिक सियासत -डा. राधेश्याम द्विवेदी




पूर्वज कश्मीरी पंडित फिरभी भारत विरोधी :- कश्मीरी मुसलमानों के पूर्वज हिंदू थे। शेख़़ मुहम्मद अब्दुल्लाह के पूर्वज कश्मीरी पंडित थे और परदादा का नाम बालमुकुंद कौल था। श्रीनगर के निकट सूरह नामक बस्ती में शेख़़ मुहम्मद अब्दुल्लाह का जन्म हुआ था। उनके पूर्वज मूलतः सप्रू गोत्र के कश्मीरी ब्राह्मण थे। अफग़ानों के शासनकाल में उनके एक पूर्वज रघूराम ने एक सूफी के हाथों इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया। परिवार पश्मीने का व्यापार करता था और अपने छोटे से निजी कारख़ाने में शाल और दुशाले तैयार कराके बाज़ार में बेचता था। इनके पिता शेख़़ मुहम्मद इब्राहीम ने आरंभ में एक छोटे पैमाने पर काम शुरू किया किन्तु मेहनत और लगन के कारण शीघ्र मझोले दर्जे के कारख़ानेदार की हैसियत तक पहुँच गए। शेख़़ साहब के परिवार की स्थिति एक औसत दर्जे के घराने की थी। इसके बावजूद भारत के प्रति शेख अब्दुल्ला का रवैया भारत विरोधी कैसे हो गया यह बात समझ से परे है। शेख अब्दुल्ला के पुत्र डा. फारुख अब्दुल्ला स्वयं कई बार कश्मीर के बाहर दिए गए साक्षात्कार और भाषणों में अपने पूर्वजों के हिंदू होने का जिक्र कर चुके हैं। उन्हें कई बार मंदिरों में पूजा करते हुए भी देखा गया है। जवाहर लाल नेहरू कोई धार्मिक व्यक्ति नही थे फिर भी उन्होने देश के विभाजन की मांग नही की , जबकि शेखअब्दुल्ला कश्मीर को एक मुस्लिम देश बनाने की इच्छा रखते थे, जो उनकी अभिलाषा पूरी नही हो सकी आज भी उनकी संताने फारूख अब्दुला और उनके भी पुत्र उमर जी कश्मीर के सर्वे सर्वा नेता है और धारा 370 के विषय मेबात करने पर उबल जाते है बहुत से कश्मीरी मुस्लिम पाकिस्तान से बहुत ज्याद हमदर्दी रखते है.
काशी के बाद कश्मीर ज्ञान की नगरी :- नीलमत पुराण में कश्मीर किस तरह बसा, उसका उल्लेख है। कश्यप मुनि को इस भूमि का निर्माता माना जाता है। उनके पुत्र नील इस प्रदेश के पहले राजा थे। चौदहवीं सदी तक बौद्ध और शैव मत यहां पर बढ़ते गए। काशी के बाद कश्मीर को ज्ञान की नगरी के नाम से जाना जाता था। जब अरबों की सिंध पर विजय हुई तो सिंध के राजा दाहिर के पुत्र राजकुमार जयसिंह ने कश्मीर में शरण ली थी। राजकुमार के साथ सीरिया निवासी उसका मित्र हमीम भी था। कश्मीर की धरती पर पांव रखने वाला पहला मुस्लिम यही था। अंतिम हिंदू शासिका कोटारानी के आत्म बलिदान के बाद पर्शिया से आए मुस्लिम मत प्रचारक शाहमीर ने राजकाज संभाला और यहीं से दारूल हरब को दारूल इस्लाम में तब्दील करने का सिलसिला चल पड़ा।
ज्यादा मुस्लिमो के पूर्वज हिन्दू :-इस देश के करीब 90 % से ज्यादा मुस्लिमो के पूर्वज हिन्दू समुदाय के है.  वहा अगर हिन्दू रहते तो इस देश का विभाजन नही होता . वह मूसली बन गये तो देश के प्रति भी उनकी मानसिकता बदल गयी और पाकिस्तान बन गया करीब 10 लाख से ज्यादा मनुष्यो की हत्याए भी हुई. जो हिन्दू मुस्लिम बन गये उसमे सबसे बड़ी गलती हिन्दू समुदाय की है, उनके विद्वानो की है, उनके राजनैतिक नेताओ की है,उनकी गलत मानसिकता की है . करीब 150 साल पहले तक जो हिन्दू समुदाय से हट जाता था उसको पुन: हिन्दू समुदाय मे शामिल करने की मानसिकता नही थी,उसी का परिणाम यह हुआ की देश का विभाजन भी स्वीकार करना पड़ा औरपूरा कश्मीर भी अभी तक विवादित चल रहा है और दशको सालो से अशान्ति का दौर चल रहा है. करीब 50 हजार से ज्यादा मनुष्यो की हत्या कश्मीर मे हो चुकी है. एक कश्मीरी नेता यह कहते है की कश्मीर मे कोई हिन्दू मुख्य मंत्री हर्गिज नही बन सकता ! आज जरूरत है की सबसे पहले हिन्दू समुदाय कीमानसिकता “पूर्ण रूप से ” मानवताकी हो, जन्मना जातीबवाद को तिलांजलि दी जाये, साथ मे भारी मात्रा मे मानवता के संदेश का प्रचार किया जाये, अन्य समुदायो को हिन्दू समुदाय मे शामिल किया जाये. ताकि आने वाले देश विभाजन के खतरेको समाप्त किया जाये .
जम्‍मू-कश्‍मीर को लेकर चार तरह की थ्‍योरी :-सन् 1947 में जम्‍मू-कश्‍मीर को लेकर चार तरह की थ्‍योरी चलन में थीं. यह थ्‍योरी तो खैर तब भी पूरी तरह से "आउट ऑफ कंसिडरेशन" थी कि जम्‍मू-कश्‍मीर पाकिस्‍तान में जाएगा. पहले महाराजा हरि सिंह और उसके बाद शेख अब्‍दुल्‍ला दोनों ही इस पर एकमत थे कि जम्‍मू-कश्‍मीर पाकिस्‍तान के साथ नहीं जाएगा. हरि सिंह एक डोगरा हिंदू होने के नाते ऐसा मानते थे और शेख अब्‍दुल्‍ला पाकिस्‍तान को कठमुल्‍लों का देश समझते थे. लिहाजा, शेख अब्‍दुल्‍ला प्रो-पाकिस्‍तान नहीं थे, यह तो साफ है, लेकिन क्‍या वे प्रो-इंडिया भी थे, इसको लेकर इतिहासकारों के बीच पर्याप्‍त मतभेद रहे हैं.जो चार कश्‍मीर थ्‍योरी सन् 1947 में चलन में थीं, वे थीं –
1. राज्‍य में जनमत-संग्रह हो और उसके बाद वहां के लोग ही यह तय करें कि उन्‍हें किसके साथ जाना है. जूनागढ़ में इससे पहले यह प्रयोग हो चुका था और वहां के लोगों ने भारत के पक्ष में वोट दिया था. कश्‍मीर में इससे पीछे हटने की कोई वजह भारत के पास नहीं थी और नेहरू भी इसके लिए तत्‍पर थे.
2. कश्‍मीर एक संप्रभु स्‍वतंत्र राष्‍ट्र बने और भारत और पाकिस्‍तान दोनों ही उसकी सुरक्षा की गारंटी लें. 3. राज्‍य का बंटवारा हो, जम्‍मू भारत को मिले और शेष घाटी पाकिस्‍तान के पास चली जाए, और     
4. जम्‍मू और कश्‍मीर भारत के पास ही रहें, केवल प्रो-पाकिस्‍तानी पुंछ पाकिस्‍तान के पास चला जाए.
शेख अब्‍दुल्‍ला का स्‍टैंड :-इनमें शेख अब्‍दुल्‍ला का स्‍टैंड क्‍या था? शेख अब्‍दुल्‍ला अलीगढ़ में शिक्षित लिबरल, सेकुलर, प्रोग्रेसिव व्‍यक्ति थे. उनके दादा एक हिंदू थे और उनका नाम राघौराम कौल था. शेख के जन्‍म के महज 15 साल पूर्व ही यानी 1890 में उन्‍होंने इस्‍लाम स्‍वीकार किया था. (शेख की जीवनी 'आतिश-ए-चिनार' में इसका उल्‍लेख किया गया है) नेहरू से शेख की गहरी मित्रता थी. सन् 1946 में जब महाराजा हरि सिंह ने शेख को जेल में डाल दिया था तो नेहरू इससे इतने आंदोलित हो गए थे कि अपने दोस्‍त का पक्ष रखने कश्‍मीर पहुंच गए थे. 1949 में कश्‍मीर में दो 'प्रधानमंत्रियों' का मिलन हुआ था, जब 'भारत के प्रधानमंत्री' नेहरू 'जम्‍मू-कश्‍मीर के प्रधानमंत्री' शेख के यहां छुट्टियां मनाने पहुंचे और दोनों ने झेलम में घंटों तक साथ-साथ नौका विहार किया था. हर लिहाज से शेख को प्रो-इंडिया माना जा सकता था, वे भारत के संविधान में दर्ज धारा 370 के प्रावधानों में गहरी आस्‍था रखते थे, कश्‍मीर को विशेष दर्जे के पक्षधर थे और पाकिस्‍तान से घृणा करते थे.
अलगाववादी स्‍वर :- क्‍या शेख के भीतर अलगाववादी स्‍वर भी दबे-छुपे थे? कश्‍मीर समस्‍या की नियति गहरे अर्थों में शेख अब्‍दुल्‍ला के व्‍यक्तित्‍व के साथ जुड़ी हुई है. 40 के दशक में शेख कश्‍मीर के सबसे कद्दावर नेता थे और उस सूबे की पूरी अवाम उनके पीछे खड़ी हुई थी. उनकी नेशनल कांफ्रेंस का एजेंडा सेकुलर था, यानी केवल मुस्लिम ही नहीं, बल्कि जम्‍मू-कश्‍मीर में रहने वाले हर समुदाय के व्‍यक्ति के अधिकारों और हितों का संरक्षण. ऐसे में शेख के निर्णयों को कश्‍मीर के अवाम का निर्णय मानने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए. और यह शेख का निर्णय था कि कश्‍मीर भारत का अभिन्‍न अंग बना रहेगा. फिर दिक्कतें कहां थीं? नेहरू और गांधी दोनों ने ही शेख को कश्‍मीर का वजीरे-आजम बनाने के लिए पूरा जोर लगा दिया था और महाराजा हरि सिंह को चुपचाप हाशिये पर कर दिया गया था, फिर आखिर क्‍या कारण था कि ये ही शेख 1950 का साल आते-आते खुलेआम अलगाववादी तेवर दिखाने लगे थे? और क्‍या कारण था कि अगस्‍त 1953 में शेख के जिगरी दोस्‍त नेहरू ने ही उन्‍हें गिरफ्तार करवाकर उनके स्‍थान पर बख्‍शी गुलाम मोहम्‍मद को नया प्रधानमंत्री बनवा दिया था?
शेख अब्‍दुल्‍ला की अनियमित रुख और विराट महत्‍वाकांक्षा :- कश्‍मीर समस्‍या की जड़ें अगर इस राज्‍य की विशेष रणनीतिक स्थिति, उसकी मुस्लिम बहुल जनसांख्यिकी और नेहरू की भ्रामक मनोदशा में छुपी हैं तो शेख अब्‍दुल्‍ला के अनियमित रुख और उनकी विराट महत्‍वाकांक्षाओं को भी क्‍या इसके लिए इतना ही जिम्‍मेदार नहीं माना जाना चाहिए? आखिरकार वे "शेरे-कश्‍मीर" थे, कश्‍मीर के अवाम की आवाज़ थे और कश्‍मीर के मामले में उन्‍हें जो फैसला लेना था, उसे इतिहास में कश्‍मीर के अवाम के फैसले की ही तरह याद रखा जाना था.
फारुख अब्दुल्ला का प्रेम विवाह :- डा. अब्दुल्ला ने भी प्रेम विवाह किया था। जब वे लंदन में रहकर एमबीबीएस कर रहे थे तो उनकी एक ईसाई नर्स मौली से दोस्ती हो गई और दोनों ने शादी कर ली। हालांकि मौली बहुत कम ही हिंदुस्तान में रही। फारुख ने भी अपना ज्यादातर समय विदेश में ही बिताया। उनके चार बच्चे है। तीन बेटियां व एक बेटा। सबसे बड़ी बेटी साफिया श्रीनगर में पढ़ाती है। दूसरी बेटी हिना मां के साथ लंदन में रहती है जबकि तीसरी बेटी सारा की सचिन पायलट के साथ शादी हुई है। उमर अब्दुल्ला का जन्म भी ब्रिटेन में हुआ था। फारुक और मौली के संबंध बहुत अच्छे नहीं है। इसके बावजदू जब साल भर पहले उन्हें किडनी की जरुरत पड़ी तब मौली ने उन्हें अपनी किडनी दे दी। लंदन में उसका प्रत्यारोपण हुआ।
उमर अब्दुल्ला व संजय गांधी का प्रेम विवाह :-उमर ने भी संजय गांधी की तर्ज पर सिक्ख परिवार की पायल के साथ प्रेम विवाह किया । पायल मूलतः सिख है जो कि दिल्ली में रहती थी। उनके पिता मेजर जनरल रामनाथ लाहौर से थे। उनका नाम पहले पायल सिंह था। उमर व पायल की मुलाकात तब हुई जबकि वे दोनों आईटीसी ग्रुप के होटल में काम कर रहे थे। उमर मार्केटिंग एग्जीक्यूटिव थे। दोनों में प्यार हो गया और 1994 में उनकी शादी हो गई। पायल खुद को घर तक ही सीमित रखती थी। दोनों ने 17 साल तक वैवाहिक जीवन बिताने के बाद 2014 में एक दूसरे से अलग होने का फैसला लिया। बताते हैं कि उन दोनों के संबंध खराब होने की वजह दिल्ली के एक जाने माने चैनल की एंकर रही। जो कि उमर अब्दुल्ला के काफी करीब आ गई थी। वह खुद भी कश्मीर से ही है। वैसे इस चैनल की एक और एंकर ने भी इसी राज्य के एक मंत्री से शादी की है।उनके दो बच्चे जमीर व जाहिर है जो कि अपनी मां के साथ ही रहते हैं। पायल की हिमाचल प्रदेश में जैरु नेचुरेल नामक मिनरल वाटर की कंपनी है।
पायलट व अब्दुल्ला परिवारों में साम्य:- शेख अब्दुल्ला की पत्नी बेगम अकबर जहां गूजर थी। इसी रिश्ते के चलते दिवंगत राजेश पायलट ने गूजर होने के नाते डा. फारुख अब्दुल्ला से दोस्ती निभायी। यह दोस्ती इन दोनों नेताओं तक ही सीमित नहीं रही बल्कि उसके तार दोनों के बच्चों तक पहुंच गए। फारुख अब्दुल्ला की सबसे छोटी बेटी सारा और राजेश पायलट के बेटे सचिन की भी दोस्ती हो गई जो कि बाद में वैवाहिक बंधन में तब्दील हुई। जब उमर ने हिंदू पायल से शादी की तब विरोध नहीं हुआ। उस समय यह दलील दी गई कि इस्लाम में दूसरे धर्म की लड़की से शादी करने की इजाजत है पर जब उसकी बहन सारा ने हिंदू सचिन से शादी की तो पूरा परिवार इतना नाराज हो गया कि परिवार का कोई भी सदस्य उन्हें आशीर्वाद देने नहीं आया।
नेहरू व अब्दुल्ला परिवारों में साम्य:-  वर्षों से एक बात कही सुनी जाती रही है कि कश्मीर के अब्दुल्ला परिवार व नेहरू परिवार के बीच कुछ न कुछ रिश्ता है, जिसके चलते ही नेहरू जी ने हमेशा शेख अब्दुल्ला को तरजीह दी. भले ही उसका खामियाजा भारत आजतक भुगत रहा हो. अब हकीकत तो ऊपर वाला ही जाने, किन्तु दोनों परिवारों में साम्य अवश्य है . जिस प्रकार जवाहरलाल नेहरु, इंदिरा गांधी व राजीव गांधी, इन तीन पीढ़ियों ने भारत के प्रधानमंत्री के रूप में राज कर इतिहास बनाया, उसी प्रकार शेख अब्दुल्ला, उनके बेटे डा. फारुख अब्दुल्ला और उनके पोते उमर अब्दुल्ला तीनों ही जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री रहे। इतना ही नहीं तो इन परिवारों के विवाह संबंधों में भी साम्य है . जवाहरलाल नेहरू ने स्वयं को हिन्दू बताया, वो वस्तुतः थे या नहीं, यह विवाद का विषय हो सकता है . उनकी बेटी इंदिरा जी ने मुस्लिम फिरोज से विवाह किया, एक नाती ने ईसाई सोनिया और दूसरे नाती ने सिख मेनका से विवाह किया. लगभग वही कहानी अब्दुल्ला परिवार की भी है .

राहुल गांधी और उमर अब्दुल्ला में दोस्ती की जड़ें पुरानी :- आपको याद होगा कि अमेठी के चुनाव प्रचार में तथा रोड शो में कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अव्दुल्ला कई बार शिरकत कर चुके हैं। इसका कोई तत्कालिक कूटनीति ना होकर पीढ़ी दर पीढ़ी दोनों परिवारों के सियासती रिश्ते का होना कहा जा सकता है। इन दोनों परिवार का एक ही लक्ष्य है कि भारत की सत्ता पर काबिज होना तथा मुल्क के सनातनी चरित्र पर निरन्तर प्रहार करते हुए इस्लामिक राज्य की तरफ आगे बढ़ना। हाल ही में कश्मीर के उप चुनाव फारुख साहब की जीत उनके कार्यों की नहीं उनके कारनामों की जीत हुई है, जहां पत्थरमार कश्मीरियों को भड़काकर व अलगाववाद की नीति पर चलकर देश की अश्मिता पर प्रश्न चिन्ह उठ खड़े हो रहे हैं। यदि इसे जल्द से जल्द नियंत्रित नहीं किया गया तो भारत को नुकसान उठाना पड़ सकता है और कश्मीर की स्थिति भयावह हो सकती है।















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