बस्ती से
वास्ता-
बस्ती के छन्दकार भाग 1 की कृति में डा. मुनिलाल उपाध्याय सरस ने पृ. 179 पर लिखा है
कि आचार्य शुक्लजी के पितामह पं. देवी दत्त शुक्ल थे। इन आचार्य शुक्लजी की मातामही
दादी राजा नगर हाल मुकाम पोखरनी के राजा विश्वनाथ प्रताप नारायण सिंह की कृपा पात्री
थी। उन्हें अगोना में 40 बीघा जमीन गुजारे के लिए दिया गया था। जहां एक छोटा सा मकान
बनाकर आचार्य जी ने 5 वर्षों तक निवास किया था। इसके बाद वे अपने पैतृक आवास मिर्जापुर
अपने पिताजी के साथ चले गये थे।आचार्य शुक्ल जी ने कवियों केबारे में जो सटीक व वैज्ञानिक
सम्मत टिप्पणी व विवेचना की है वह एक गद्यकार कभी नहीं कर सकता है। उनमें कवि हृदय
था वे कविता भी करते थे और उसकी सारी बारीकियों से विज्ञ भी थे।
कविता क्या है-कविता क्या है निबंध में वे कहते हैं
" कविता ही मनुष्य
के हृदय को स्वार्थ-संबन्धों के संकुचित मण्डल से ऊपर उठा कर लोक-सामान्य भाव-भूमि पर ले जाती है, जहाँ जगत की नाना गतियों के मार्मिक
स्वरूप का साक्षात्कार और शुद्ध अनुभूतियों का संचार होता है, इस भूमि पर पहुँचे हुए मनुष्य
को कुछ काल के लिए अपना पता नहीं रहता।
वह अपनी सत्ता
को लोक-सत्ता
में विलीन किए रहता है। उसकी अनुभूति सब की अनुभूति होती है।"
उनके विभिन्न मनोविकारों, भाव-अनुभावों व मन:स्थितियों पर रचे गए निबन्ध अत्यंत
सार-गर्भित चिन्तन
व गहन अध्ययन
के साक्षी हैं, मसलन 'क्रोध', 'दया', 'ईर्ष्या', 'करुणा', 'श्रद्धा-भक्ति', 'भय',
'घृणा', 'लोभ और प्रीति'
आदि।
मनुष्य अपने भावों,
विचारों और व्यापारों को लिए 'दूसरे के भावों',
विचारों और व्यापारों के साथ कहीं मिलाता
और कहीं लड़ाता
हुआ अंत तक चला चलता है और इसी को जीना कहता है। जिस अनंत-रूपात्मक क्षेत्र
में यह व्यवसाय
चलता रहता है उसका नाम है जगत। जब तक कोई अपनी पृथक सत्ता की भावना
को ऊपर किये इस क्षेत्र के नाना रूपों और व्यापारों को अपने योगक्षेम, हानि-लाभ, सुख-दुःख आदि से सम्बद्ध करके देखता
रहता है तब तक उसका हृदय एक प्रकार से बद्ध रहता है। इन रूपों और व्यापारों के सामने
जब कभी वह अपनी पृथक सत्ता
की धारणा छुटकर
-- अपने आप को बिल्कुल भूल कर --
विशुद्ध अनुभूति मात्र
रह जाता है, तब वह मुक्त-हृदय हो जाता है। जिस प्रकार
आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती
है, उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रसदशा
कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति
की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं। इस साधना
को हम भावयोग
कहते हैं और कर्मयोग और ज्ञानयोग का समकक्ष मानते हैं।
कविता ही मनुष्य के हृदय को स्वार्थ-सम्बन्धों के संकुचित मण्डल से ऊपर उठा कर लोक-सामान्य भाव-भूमि पर ले जाती है, जहाँ जगत की नाना गतियों के मार्मिक स्वरुप का साक्षात्कार और शुद्ध अनुभूतियों का संचार होता है, इस भूमि पर पहुंचे हुए मनुष्य को कुछ काल के लिए अपना पता नहीं रहता। वह अपनी सत्ता को लोक-सत्ता में लीन किये रहता है। उसकी अनुभूति सबकी अनुभूति होती है या हो सकती है। इस अनुभूति-योग के अभ्यास के हमारे मनोविकार का परिष्कार तथा शेष सृष्टि के साथ हमारे रागात्मक सम्बन्ध की रक्षा और निर्वाह होता है। जिस प्रकार जगत अनेक रूपात्मक है उसी प्रकार हमारा हृदय भी अनेक-भावात्मक है। इस अनेक भावों का व्यायाम और परिष्कार तभी समझा जा सकता है जब कि इन सबका प्रकृत सामंजस्य जगत के भिन्न-भिन्न रूपों, व्यापारों या तथ्यों के साथ हो जाय। इन्हीं भावों के सूत्र से मनुष्य-जाति जगत के साथ तादात्मय का अनुभव चिरकाल से करती चली आई है। जिन रूपों और व्यापारों से मनुष्य आदिम युगों से ही परिचित है, जिन रूपों और व्यापारों को सामने पा कर वह नरजीवन के आरम्भ से ही लुब्ध और क्षुब्ध होता आ रहा है, उनका हमारे भावों के साथ मूल या सीधा सम्बन्ध है। अतः काव्य के प्रयोजन के लिए हम उन्हें मूल रूप और मूल व्यापार कह सकते हैं। इस विशाल विश्व के प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष और गूढ़ से गूढ़ तथ्यों को भावों के विषय या आलम्बन बनाने के लिए इन्ही मूल रूपों में और व्यापारों में परिणत करना पड़ता है। जबतक वे इन मूल मार्मिक रूपों में नहीं लाये जाते तब तक उन पर काव्य दृष्टि नहीं पड़ती।
वन, पर्वत, नदी, नाले, निर्झर, कछार, पटपर, चट्टान, वृक्ष, लता, झाड़, फूस, शाखा, पशु, पक्षी, आकाश, मेघ, नक्षत्र, समुद्र इत्यादि ऐसे ही चिर-सहचर रूप हैं। खेत, ढुर्री, हल, झोंपड़े, चौपाये इत्यादि भी कुछ कम पुराने नहीं हैं। इसी प्रकार पानी का बहना, सूखे पत्तों का झड़ना, बिजली का चमकना, घटा का घिरना, नदी का उमड़ना, मेह का बरसाना, कुहरे का छाना, डर से भागना, लोभ से लपकना, छीनना, झपटना, नदी या दलदल से बांह पकड़ कर निकालना, हाथ से खिलाना, आग में झोंकना, गला काटना ऐसे व्यापारों का भी मनुष्य जाति के भावों के साथ अत्यंत प्राचीन साह्चर्य्य है। ऐसे आदि रूपों और व्यापारों में वंशानुगत वासना की दीर्घ-परंपरा के प्रभाव से, भावों के उद्बोधन की गहरी शक्ति संचित है; अतः इसके द्वारा जैसा रस-परिपाक संभव है वैसा कल-कारखाने, गोदाम, स्टेशन, एंजिन, हवाई जहाज ऐसी वस्तुओं तथा अनाथालय के लिए चेक काटना, सर्वस्वहरण के लिए जाली दस्तावेज़ बनाना, मोटर की चरखी घुमाना या एंजिन में कोयला झोंकना आदि व्यापारों द्वारा नहीं।
कविता ही मनुष्य के हृदय को स्वार्थ-सम्बन्धों के संकुचित मण्डल से ऊपर उठा कर लोक-सामान्य भाव-भूमि पर ले जाती है, जहाँ जगत की नाना गतियों के मार्मिक स्वरुप का साक्षात्कार और शुद्ध अनुभूतियों का संचार होता है, इस भूमि पर पहुंचे हुए मनुष्य को कुछ काल के लिए अपना पता नहीं रहता। वह अपनी सत्ता को लोक-सत्ता में लीन किये रहता है। उसकी अनुभूति सबकी अनुभूति होती है या हो सकती है। इस अनुभूति-योग के अभ्यास के हमारे मनोविकार का परिष्कार तथा शेष सृष्टि के साथ हमारे रागात्मक सम्बन्ध की रक्षा और निर्वाह होता है। जिस प्रकार जगत अनेक रूपात्मक है उसी प्रकार हमारा हृदय भी अनेक-भावात्मक है। इस अनेक भावों का व्यायाम और परिष्कार तभी समझा जा सकता है जब कि इन सबका प्रकृत सामंजस्य जगत के भिन्न-भिन्न रूपों, व्यापारों या तथ्यों के साथ हो जाय। इन्हीं भावों के सूत्र से मनुष्य-जाति जगत के साथ तादात्मय का अनुभव चिरकाल से करती चली आई है। जिन रूपों और व्यापारों से मनुष्य आदिम युगों से ही परिचित है, जिन रूपों और व्यापारों को सामने पा कर वह नरजीवन के आरम्भ से ही लुब्ध और क्षुब्ध होता आ रहा है, उनका हमारे भावों के साथ मूल या सीधा सम्बन्ध है। अतः काव्य के प्रयोजन के लिए हम उन्हें मूल रूप और मूल व्यापार कह सकते हैं। इस विशाल विश्व के प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष और गूढ़ से गूढ़ तथ्यों को भावों के विषय या आलम्बन बनाने के लिए इन्ही मूल रूपों में और व्यापारों में परिणत करना पड़ता है। जबतक वे इन मूल मार्मिक रूपों में नहीं लाये जाते तब तक उन पर काव्य दृष्टि नहीं पड़ती।
वन, पर्वत, नदी, नाले, निर्झर, कछार, पटपर, चट्टान, वृक्ष, लता, झाड़, फूस, शाखा, पशु, पक्षी, आकाश, मेघ, नक्षत्र, समुद्र इत्यादि ऐसे ही चिर-सहचर रूप हैं। खेत, ढुर्री, हल, झोंपड़े, चौपाये इत्यादि भी कुछ कम पुराने नहीं हैं। इसी प्रकार पानी का बहना, सूखे पत्तों का झड़ना, बिजली का चमकना, घटा का घिरना, नदी का उमड़ना, मेह का बरसाना, कुहरे का छाना, डर से भागना, लोभ से लपकना, छीनना, झपटना, नदी या दलदल से बांह पकड़ कर निकालना, हाथ से खिलाना, आग में झोंकना, गला काटना ऐसे व्यापारों का भी मनुष्य जाति के भावों के साथ अत्यंत प्राचीन साह्चर्य्य है। ऐसे आदि रूपों और व्यापारों में वंशानुगत वासना की दीर्घ-परंपरा के प्रभाव से, भावों के उद्बोधन की गहरी शक्ति संचित है; अतः इसके द्वारा जैसा रस-परिपाक संभव है वैसा कल-कारखाने, गोदाम, स्टेशन, एंजिन, हवाई जहाज ऐसी वस्तुओं तथा अनाथालय के लिए चेक काटना, सर्वस्वहरण के लिए जाली दस्तावेज़ बनाना, मोटर की चरखी घुमाना या एंजिन में कोयला झोंकना आदि व्यापारों द्वारा नहीं।
कवि रूप में आचार्य शुक्ल जी- बस्ती के छन्दकार भाग 1 की कृति डा. मुनिलाल उपाध्याय सरस ने पृ. 180 पर लिखा है कि आचार्य शुक्लजी ब्रजभाषा और खड़ीबोली में फुटकर कविताएँ लिखीं तथा एडविन आर्नल्ड के
‘लाइट ऑफ एशिया’ का ‘बुद्ध चरित’ के नाम ब्रजभाषा में पद्यानुवाद आठ सर्ग 25 भागों में किया। शुक्ल जी ने अपनी प्रस्तावना
में लिखा है कि “रामकृष्ण की इसी लीलाभूमि पर भगवान् बुद्धदेव भी हुए हैं जिनके प्रभाव से एशिया खंड का सारा पूर्वार्द्ध भारत को इस गिरी दशा में भी प्रेम और श्रद्धा की दृष्टि से देखता चला जा रहा है। रामकृष्ण के चरितगान का मधुर स्वर भारत की सारी भाषाओं में गूँज रहा है पर बौद्ध धर्म के साथ ही गौतम बुद्ध की स्मृति तक जनता के हृदय से दूर हो गई है। 'भरथरी' और 'गोपीचन्द' के जोगी होने के गीत गाकर आज भी कुछ रमते जोगी स्त्रियों को करुणार्द्र करके अपना पेट पालते चले जाते हैं पर कुमार सिद्धार्थ के महाभिनिष्क्रमण की सुधा दिलानेवाली वाणी कहीं भी नहीं सुनाई पड़ती है। जिन बातों से हमारा गौरव था उन्हें भूलते-भूलते आज हमारी यह दशा हुई। यह 'बुद्धचरित' अंग्रेजी के ‘लाइट ऑफ एशिया’ का हिन्दी काव्य के रूप में अवतरण है। यद्यपि ढंग इसका ऐसा रखा गया है कि एक स्वतन्त्र हिन्दी काव्य के रूप में इसका ग्रहण हो पर साथ ही मूल पुस्तक के भावों को स्पष्ट करने का भी पूर्ण प्रयत्न किया गया है। दृश्य वर्णन जहाँ अयुक्त या अपर्याप्त प्रतीत हुए वहाँ बहुत कुछ फेरफार करना या बढ़ाना भी पड़ा है। यदि काव्य परंपरा के प्रेमियों का कुछ भी मनोरंजन होगा तो मैं अपना श्रम सफल समझूँगा। जिस वाणी में कई करोड़ हिन्दी भाषी रामकृष्ण के मधुर चरित का स्मरण करते आ रहे हैं उसी वाणी में भगवान् बुद्ध को स्मरण कराने का यह लघु प्रयत्न है। यद्यपि यह वाणी ब्रजभाषा के नाम से प्रसिद्ध है पर वास्तव में अपने संस्कृत रूप में यह सारे उत्तरपथ की काव्य भाषा रही है।“ - रामचन्द्र शुक्ल
उनके अनुवाद का एक नमूना प्रस्तुत है
कर्म को सिद्धांत है यह, लेहु याको जानि।
पाप के सब पुंज की ह्नै जाति है जब हानि,
जात जीवन जबै सारो लौ समान बुताय
तबै ताके संग ही यह मृत्यु हू मरि जाय।
'हम रहे,' 'हम हैं', 'होयँगे हम' कहौ जनियहबात,
समझौ न पथिकन सरिस पल के घरन में बहु,भ्रात!
तुम एक छाँड़त गहत दूजो करत आवत बास
सुधि राखि अथवा भूलि जो कछु होत दु:ख सुपास।
¹रहि जात है कछु नाहिं प्राणी मरत है जा काल,
चैतन्य अथवा आतमा नसि जात है ज्यों ज्वाल।
रहि जात केवल कर्म ही है शेष विविध प्रकार,
बहु खंड तिनसों लहत उद्भव जन्म जोरनहार।
जग माहिं तिनको योग प्रगटत जीव एक नवीन,
सो आप अपने हेतु घर रचि होत वामें लीन।
ज्यों पाटवारो कीट आपहि सूत कातत जाय
पुनि आप वामें बसत है जो लेत कोश बनाय।
सो गहत भौतिक सत्व औ गुण आपही रचि जाल-
ज्यों फूटि विषधर अंड केंचुर दंष्ट्र गहत कराल,
ज्यों पक्षधार शरबीज घूमत उड़त नाना ठौर,
लहि वारितट कहुँ बढ़त, फेंकत पात, धारत मौर।
या नए जीवन की प्रगति शुभ अशुभ दिशि लै जाय।
जब हनत काल कराल पुनि निज क्रूर करहि उठाय।
रहि जात तब वा जीव को जो शेष शुद्धि विहीन
सो फेरि झंझावात झेलत सहत ताप नवीन।
पै मरत है जब जीव कोऊ पुण्यवान सुधीर
बढ़ि जाति जग की संपदा कछु, बहत सुखद समीर।
मरु भूमि की ज्यों धार बालू बीच जाति बिलाय।
ह्नै शुद्ध निर्मल फेरि चमकति कढ़ति है कहुँ जाय।
या भाँति अर्जित पुण्य अर्जित करत है शुभकाल,
यदि पाप ताको देत बाधा रुकति ताकी चाल।
पाप के सब पुंज की ह्नै जाति है जब हानि,
जात जीवन जबै सारो लौ समान बुताय
तबै ताके संग ही यह मृत्यु हू मरि जाय।
'हम रहे,' 'हम हैं', 'होयँगे हम' कहौ जनियहबात,
समझौ न पथिकन सरिस पल के घरन में बहु,भ्रात!
तुम एक छाँड़त गहत दूजो करत आवत बास
सुधि राखि अथवा भूलि जो कछु होत दु:ख सुपास।
¹रहि जात है कछु नाहिं प्राणी मरत है जा काल,
चैतन्य अथवा आतमा नसि जात है ज्यों ज्वाल।
रहि जात केवल कर्म ही है शेष विविध प्रकार,
बहु खंड तिनसों लहत उद्भव जन्म जोरनहार।
जग माहिं तिनको योग प्रगटत जीव एक नवीन,
सो आप अपने हेतु घर रचि होत वामें लीन।
ज्यों पाटवारो कीट आपहि सूत कातत जाय
पुनि आप वामें बसत है जो लेत कोश बनाय।
सो गहत भौतिक सत्व औ गुण आपही रचि जाल-
ज्यों फूटि विषधर अंड केंचुर दंष्ट्र गहत कराल,
ज्यों पक्षधार शरबीज घूमत उड़त नाना ठौर,
लहि वारितट कहुँ बढ़त, फेंकत पात, धारत मौर।
या नए जीवन की प्रगति शुभ अशुभ दिशि लै जाय।
जब हनत काल कराल पुनि निज क्रूर करहि उठाय।
रहि जात तब वा जीव को जो शेष शुद्धि विहीन
सो फेरि झंझावात झेलत सहत ताप नवीन।
पै मरत है जब जीव कोऊ पुण्यवान सुधीर
बढ़ि जाति जग की संपदा कछु, बहत सुखद समीर।
मरु भूमि की ज्यों धार बालू बीच जाति बिलाय।
ह्नै शुद्ध निर्मल फेरि चमकति कढ़ति है कहुँ जाय।
या भाँति अर्जित पुण्य अर्जित करत है शुभकाल,
यदि पाप ताको देत बाधा रुकति ताकी चाल।
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