सुन्नी बहमनी
वंश
के
सुल्तान
अलाउद्दीन
बहमनशाह
से
लेंकर
स्वतंत्र भारत
के
प्रधानमंत्री
नेहरु
गांधी
परिवार
के सात
सौ
साल
की
टूटी
फूटी (तीन
किस्तों
में )दास्तान
यूं
तो भारत में सत्ता किसी एक वंश खानदान,
धर्म व मजहब की
गुलाम कभी नहीं रही। जिसके हाथ में ताकत था या जो
ज्यादा कूटनीतिज्ञ था सफलता सदैव
उसी का कदम चूमती
रही है। कौन क्या था , क्यों था या क्यों
बना ? इन प्रश्नों के
पृष्ठभूमि में जाने की जरुरत भी
नहीं है। पर इस परिवार
द्वारा इस मुल्क को
विगत दो सौ साल
से दिग् भ्रमित करने तथा सच्चाई छिपाने के आरोप से
मुक्त तो नहीं कहा
जा सकता है। यदि शोसल मीडिया पर अनेक ब्लागों
तथा पोर्टलों पर प्रकाशित दास्तानें
सत्य हैं तो आम जनता
को इसके प्रति गंभीर तथा सावधान हो जाने की
आवश्यकता है। जो परिवार इतनी
बड़ी बात केवल कुर्सी या सत्ता के
लिए छिपा सकता है। वह देश को
कभी भी गिरवी रख
सकता है अथवा बेंचकर
गुलाम बना सकता है। इसका फैसला भारत के बुद्धजीवी तथा
भारतीय संविधान के रक्षक व
स्तम्भ ही कर सकते
हैं। हम तो एक
आइना ही दिखाने की
कोशिस कर रहे हैं
यह आप पर निर्भर
है कि आप इस
आइनें में देश की अक्श किस
रुप में देख पा रहे हैं।
भारत में
बहमनी
वंश
का
शासन
:- मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल
में 1347 ई में. वह
अलाउद्दीन बहमन शाह के नाम से
सिंहासन पर बैठा। इसने
अपनी राजधानी गुलबर्गा को बनाया। इसकी
राजभाषा मराठी थी। इसने अपने साम्राज्य को चार प्रान्तों
में गुलबर्गा, दौलताबाद, बरार और बीदर में
बाँटा। मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल
के अन्तिम दिनो में दक्कन में ‘अमीरान-ए-सादाह’ के विद्रोह के
परिणामस्वरूप 1347 ई. में हसनगंगू
ने बहमनी राज्य की स्थापना की।
दक्कन के सरदारों ने
दौलताबाद के किले पर
अधिकार कर इस्माइल
अफगान को नासिरूद्दीन शाह
के नाम से दक्कन का
राजा घोषित किया। इस्माइल बूढ़ा और आराम तलब
होने के कारण इस
पद के अयोग्य सिद्ध
हुआ। शीघ्र ही उसे अधिक
योग्य नेता हसन, जिसकी उपाधि ‘जफर खाँ’ थी, के पक्ष में
गद्दी छोड़नी पड़ी। जफर खाँ को सरदारों ने
3 अगस्त, 1347 को ‘अलाउद्दीन बहमनशाह’ के नाम से
सुल्तान घोषित किया। उसने अपने को ईरान के
‘इस्फन्दियार’ के
वीर पुत्र बहमनशाह का वंशज बताया,
जबकि फरिश्ता के अनुसार- वह
प्रारंभ में एक ब्राह्मण गंगू
का नौकर था। उसके प्रति सम्मान प्रकट करने के उद्देश्य से
शासक बनने के बाद बहमनशाह
की उपाधि ली। अलाउद्दीन हसन ने गुलबर्गा को
अपनी राजधानी बनाया तथा उसका नाम बदलकर ‘अहसानाबाद’
कर दिया। उसने साम्राज्य को चार प्रान्तों-
गुलबर्गा, दौलताबाद, बरार और बीदर में
बांटा। 4 फरवरी, 1358 को उसकी मृत्यु
हो गयी। इसके उपरान्त सिंहासनारूढ़ होने वाले शासको में फिरोज शाह बहमनी ही सबसे योग्य
शासक था। दसवें सुल्तान अलाउद्दीन द्वितीय (1435-57 ई.) के शासनकाल में
दक्खिनी और विदेशी मुसलमानों
के संघर्ष ने अत्यन्त उग्र
रूप धारण कर लिया। 1481 ई.
में 13वें सुल्तान मुहम्मद तृतीय के राज्य काल
में महमूद गवाँ को फाँसी दे
दी गई, जो ग्यारहवें सुल्तान
हमायूँ के समय से
बहमनी सल्तनत का बड़ा वजीर
था और उसने राज्य
की बड़ी सेवा की थी। मुहम्मद
गवाँ की मौत के
बाद बहमनी सल्तनत का पतन शुरू
हो गया। अगले और आखिरी सुलतान
महमूद के राज्यकाल में
बहमनी राज्य के पाँच स्वतंत्र
राज्य बरार, बीदर, अहमदनगर, गोलकुण्डा और बीजापुर बन
गये। जिनके सूबेदारों ने अपने को
स्वतंत्र सुल्तान घोषित कर दिया। बहमनी
राज्य में कुछ 18 शासक हुए, जिन्होंने कुल मिलाकर 175 वर्ष शासन किया. इन पाँचों राज्यों
ने 17वीं शताब्दी तक अपनी स्वतंत्रता
बनाये रखी। तब इन सबको
मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया।
उत्तर भारत
से
सम्बन्ध
- अलाउद्दीन बहमन शाह प्रथम दक्षिण के बहमनी वंश
का प्रथम सुल्तान था। उसका पूरा खिताब सुल्तान अलाउद्दीन हसन शाह अल-बली-अलबहमनी
था। इसके पहले वह हसन के
नाम से विख्यात था।वह
दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद
बिन तुगलक के दरबार में
एक अफगान अथवा तुर्क सरदार था, जहाँ उसे जफर खान का खिताब मिला
था। उसे अलाउद्दीन हसन गंगू बहमन शाह और हसन कोंगू
के नाम से भी जान
जाता है, वह मुहम्मद बिन
तुगलक की सेना का
एक सुबेदार था जिसने दक्षिण
भारत के पहले इस्लामी
राज्य बहमनी सल्तनत की नींव रखी
थी। कुछ लोग इसे दक्षिण भारत में दिखाते हैं तो कुछ अन्य
इतिहासकार ने अलाउद्दिन को
फारसी शासक बहमन का वंशज बताया
है। यह सुन्नी मुसलमान
था। हसन अपने को फारस के
प्रसिद्ध वीर योद्धा इस्कान्दियार के पुत्र बहमन
का वंशज मानता था। इसका जन्म के समय का
नाम हसन था। मुसलिम इतिहासकार फिरिश्ता के अनुसार अपने
जीवन के आरंभ मे
वह दिल्ली मे एक गंगू
नामक ब्राहम्ण का सेवक था।
सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के सैनिकों से
तंग आकर दक्षिण के मुसलमान अमीरों
ने विद्रोह करके दौलताबाद के किले पर
अधिकार कर लिया और
हसन उर्फ जफर खाँ को अपना सुल्तान
बनाया। उसने सुल्तान अलाउद्दीन बहमन शाह की उपाधि धारण
की और 1347 ई. में कुलवर्ग
(गुलबर्गा) कर्नाटक को अपनी राजधानी
बनाकर बहमनी राजवंश की नींव डाली।
इतिहासकार फरिश्ता ने हसन के
सम्बन्ध में लिखा है कि, वह
दिल्ली के ब्राह्मण ज्योतिषी
गंगू के यहाँ नौकर
था, जिसे मुहम्मद बिन तुगलक बहुत मानता था। अपने ब्राह्मण मालिक का कृपापात्र होने
के कारण वह तुगलक की
नजर में चढ़ा। इसलिए अपने संरक्षक गंगू ब्राह्मण के प्रति आदर
भाव से उसने बहमनी
उपाधि धारण की। इतिहास ग्रंथ मुसलमानी तवारिख बुरहान-ए-मासिर के
अनुसार, हसन बहमन वंश का था। इसीलिए
उसका वंश बहमनी कहलाया।
(शेष अगले
भाग
2 में)
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