आशुकवि आचार्य पंडित मोहन प्यारे द्विवेदी का संक्षिप्त परिचय :
आशुकवि आचार्य पंडित मोहन प्यारे द्विवेदी का जन्म 1 अप्रैल 1909 में बस्ती जिले दुबौली दूबे नामक गांव में हुआ था। उन्होंने समाज में शिक्षा के प्रति जागरुकता के लिए आजीवन प्राइमरी विद्यालय करचोलिया का प्रधानाचार्य पद निभाया था। सेवानिवृत्त लेने बाद लगभग दो दशक वे नौमिषारण्य में भगवत भजन में लीन रहे। उनकी मुख्य रचनाएँ : नौमिषारण्य का दृश्य, कवित्त, मांगलिक श्लोक, मोहनशतक आदि है। वे दिनांक 15 अप्रॅल 1989 को 80 वर्ष की अवस्था में अपने मातृभूमि में अंतिम सासें लेकर परमतत्व में समाहित हो गये l अप्रैल में ही पण्डित जी का जन्म और स्वर्गारोहण दोनों तिथियां पड़ती हैं। इसलिए उनके संकलन से निकली ये उपलब्धि उनके शुभ चिंतकों को स्मरण स्वरूप सादर निवेदित कर रहा हूं --
( संपादक प्रस्तुति कर्ता आचार्य डा राधे श्याम द्विवेदी)
पूरा नाम : पं. मोहन प्यारे द्विवेदी
अन्य नाम : पंडित जी, प्यारे मोहन
जन्म : 1 अप्रॅल, 1909
जन्मभूमि : बस्ती ज़िला, उत्तर प्रदेश
मृत्यु : 15 अप्रॅल, 1989
मृत्यु स्थान : बस्ती ज़िला, उत्तर प्रदेश
कर्म भूमि : भारतीय
कर्म- क्षेत्र : शिक्षण, कृषि, साहित्य, देशाटन एवं धार्मिक यात्रा, रामायण तथा श्रीमद्भागवत और अध्यात्म के
चिन्तक
मुख्य रचनाएँ : नौमिषारण्य पचीसी ,कवित्त, मांगलिक श्लोक, और मोहन शतक आदि।
नागरिकता : भारतीय
राम भक्ति की साकार प्रतिमूर्ति थे गोस्वामी बिन्दुजी
गोस्वामी बिन्दु जी का संक्षिप्त परिचय:-
बिंदु महाराज राम भक्ति की साकार प्रतिमूर्ति थे। उनका संपूर्ण जीवन भगवान राम की सेवा के लिए समर्थित रहा। उन्होंने अपनी कथाओं के माध्यम से संपूर्ण भारत में राम भक्ति का प्रचार प्रसार किया। स्वामी गोविंदानंद तीर्थ ने कहा कि गोस्वामी बिंदु महाराज ने न केवल अपनी साहित्यिक रचनाओं से रामभक्ति की ऐसी अलख जगाई कि आज वर्षों बाद भी उनकी रामभक्ति से ओतप्रोत साहित्यिक रचनाओं से भावी पीढ़ी को भी रामभक्ति के पथ पर आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त हो रहा है।
गोस्वामी बिन्दु जी का जन्म 1893
निधन 01 दिसम्बर 1964
जन्म स्थान अयोध्या, उत्तर प्रदेश
कुछ प्रमुख कृतियाँ
मोहन मोहनी, मानस माधुरी, राम राज्य, कीर्तन मंजरी, राम गीता
विविध उपलब्धि:- वृंदावन स्थित प्रेम धाम आश्रम के संस्थापक
मोहन मोहिनी संपूर्ण 12 भाग बिंदु जी के पद भारतीय भाषा कविता कलाकार व्याख्यान वादी साहित्य रत्न श्रीमान हंस शिरोमणि आदि अनेक उपाधियों से विभूषित गोस्वामी श्री बिंदु जी महाराज के द्वारा लिखित मोहन मोहिनी।
पंडित मोहन प्यारे द्विवेदी "मोहन" द्वारा चयनित मोहन मोहनी के कुछ चुनिंदा भजन :-
1.
सीता-राम, सीता-राम, सीता-राम कहिये
जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये।
मुख में हो राम नाम, राम सेवा हाथ में
मुख में हो राम नाम, राम सेवा हाथ में
नहीं तू अकेला प्यारे राम तेरे साथ में
विधि का विधान जान, हानि-लाभ सहिये
जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये
सीता-राम, सीता-राम, सीता-राम कहिये
जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये
(सीता-राम, सीता-राम, सीता-राम कहिये)
(जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये)
किया अभिमान तो फिर मान नहीं पाएगा
होगा प्यारे वही जो श्री राम जी को भाएगा
फल, आशा त्याग सुभ काम करते रहिये
जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये
सीता-राम, सीता-राम, सीता-राम कहिये
जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये
(सीता-राम, सीता-राम, सीता-राम कहिये)
(जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये)
जीवन की डोर सौंप हाथ दीनानाथ के
महलों मे राखे चाहे झोंपड़ी में वास दे
धन्यवाद निर्विवाद राम-राम कहिये
जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये
सीता-राम, सीता-राम, सीता-राम कहिये
जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये
(सीता-राम, सीता-राम, सीता-राम कहिये)
(जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये)
आशा एक राम जी से दूजी आशा छोड़ दे
आशा एक राम जी से दूजी आशा छोड़ दे
नाता एक राम जी से दूजा नाता तोड़ दे
साधु संग राम रंग, अंग-अंग रंगिये
जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये।
सीता-राम, सीता-राम, सीता-राम कहिये
जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये।।
2.
जिसने मुख से राम कहा उस जन का बेड़ा पार है-
इस अपार संसार सिन्धु में राम का नाम ही आधार है ।
जिसने मुख से राम कहा उस जन का बेड़ा पार है।
इस भवसागर में तृष्णा नीर भरा है।
फिर कामादि जल-जीवों का पहरा है॥
यदि कहीं-कहीं पर भक्ति सीप होती है।
तो उसके अंदर राम-नाम मोती है॥
इन्हीं मोतियों से नर-देही का सुंदर श्रृंगार है।
जिसने मुख से राम कहा उस जन को बेड़ा पार है॥
कलिकाल महानद आगम विषय जलधारा।
इसमें जब नर हरिनाम नाव पाता है।
तो पल भर में ही पार उतर जाता है॥
राम नाम रस ‘बिन्दु’ कुशल केवट ही खेवनहार है।
जिसने मुख से राम कहा उस जन को बेड़ा पार है॥
3.
कन्हैया तुझे एक नज़र देखना है।
जिधर तुम छुपे हो उधर देखना है॥
अगर तुम हो दोनों की आहों के आशिक।
तो आहों को अपना असर देखना है॥
सँवारा था जिस हाथ से गीध गज को,
उसी हाथ का अब हुनर देखना है॥
बिदुर भीलनी के जो घर तुमने देखे।
तो हमको तुम्हारा भी घर देखना है॥
टपकते हैं दृग ‘बिन्दु’ तुझे ये कहकर।
तुम्हें अपनी उल्फ़त में डर देखना है॥
4.
गजब की बाँसुरी बजती
गजब की बाँसुरी बजती थी वृन्दावन बसैया की,
करूँ तारीफ़ मुरली कि या मुरलीधर कन्हैया की।
जहाँ चलता था न कुछ काम तीरों से कमानों से,
विजय नटवर की होती थी वहां बंसी की तानों से।।
5.
मुरलीवाले मुरलिया बजा दे जरा,
उससे गीता का ज्ञान सिखा दे जरा।
तेरी बंसी में भरा है वेद मन्त्रों का प्रचार।
फिर वही बंसी बजाकर कर दो भारत का सुधार।
तनपै हो काली कमलिया गले में गुंजों का हार।
इस मनोहर वेश में आ जा सांवलिया एक बार॥
ब्रज कि गलियों में गोरस लुटा दे जरा।
मुरली वाले मुरलिया बजा दे जरा॥
सत्यता के हों स्वर जिसमें और उल्फ़त की हो लय।
एकता की रागिनी हो वह जो करती है विजय॥
जिसके एक लहजे में तीनों लोक का दिल हिल उठे।
तेरे भक्तों को अब जरूरत उसी मुरली की है॥
ऐसी मुरली कि तान सुना दे जरा।
मुरलीवाले मुरलिया बजा दे जरा॥
6.
फिर से जीवन कि ज्योति जगा दे जरा॥
कर्म यमुना ‘बिन्दु’ हो और धर्म का आकाश हो।
चाह की हो चाँदनी साहस का चंद्र विकास हो॥
फिर से वृदावन हो भारत, प्रेम का हास-विलास हो,
मिलकर सब आपस में नाचें, इस तरह का रास हो॥
फिर से जीवन कि ज्योति जगा दे जरा॥
7.
प्रभो मुझको सेवक बनाना पड़ेगा।
कुटिल पर कृपा भाव लाना पड़ेगा।
जिन-जिन का कष्ट तुमने प्रभो दूर कर दिया,
उन सब ने जहाँ में तुम्हें मशहूर कर दिया।
सोहरत सुनी तो दास भी दरबार में आया,
कुल दीन-दशाओं को भी नजराने में लाया।
बुरा हूँ भला हूँ या जैसा हूँ मैं,
गुलामी के पद पर बिठाना पड़ेगा॥ प्रभो...
चला भी मैं जाऊँ तो कुछ गम ना रहेगा,
कानून कृपामय का इसी से बदल गया,
जब दीनबंधु का दिवाला निकल गया।
जो है लाज रखनी तो दृग ‘बिन्दु’ पर ही,
दया का खजाना लुटाना पड़ेगा॥ प्रभो...
8.
यदि नाथ का नाम दयानिधि है तो दया भी करेंगें-
कभी न कभी।
दुखहारी हरि, दुखिया जन के, दुःख क्लेश हरेंगे।
कभी न कभी।
जिस अंग की शोभा सुहावनि है,
जिस श्यामल रंग में मोहनि है।
उस रूप सुधा के सनेहियों के दृग प्याले भरेंगे।
कभी न कभी।
करुणानिधि नाम सुनाया जिन्हें,
चरणामृत पान कराया जिन्हें,
सरकार अदालत में गवाह सभी गुजरेंगे।
कभी न कभी।
हम द्वार पै आपके आके पड़े,
मुद्दत से इसी जिद पर हैं अड़े।
भव-सिन्धु तरे जो बड़े तो बड़े ‘बिन्दु’ तरेंगे-
कभी न कभी।।
9.
घनश्याम तुझे ढूँढने जायें कहाँ-कहाँ।
अपने विरह कि याद दिलायें कहाँ-कहाँ॥
तेरी नज़र में बुला ले मुस्कान मधुर में।
उलझा है सबमें दिल वो छुड़ाए कहाँ-कहाँ॥
चरणों में खाकसार में ख़ुद खाक बन गए।
अब खाक पै हम खाक रचायें कहाँ-कहाँ।
दिन रत अणु बिन्दु बरसाते तो हैं मगर।
अब तन में लगी आग बुझायें कहाँ-कहाँ॥
10.
अब मन भज श्री रघुपति राम।
पल छिन सुमिरन कर तेरो जगत जलधि को,
भरमत फिरत कहे माया के फंदन में।
तजो कपट छल काम॥ मन अब...
सदा कहो सुखकर दुखहर म्नुध्र प्रहरी,
अमित अधम जिन तारे भक्त रखवारे दीन के सहारे।
‘बिन्दु’ बिन गुण ग्राम॥ मन अब...।।
11.
रे मन! ये दो दिन का मेला रहेगा।
कायम न जग का झमेला रहेगा॥
किस काम ऊँचा जो महल तू बनाएगा।
किस काम का लाखों जो तोड़ा कमाएगा॥
रथ-हाथियों का झुण्ड भी किस काम आएगा।
तू जैसा यहाँ आया था वैसा हीं जाएगा॥
तेरे हीं सफ़र में सवारी की खातिर।
कन्धों पै गठरी का मैला रहेगा॥
12.
जग में सुंदर है दो नाम, चाहे कृष्ण कहो या राम।
एक हृदय में प्रेम बढ़ावे, एक पाप के ताप हटावै।
दोनों सुख के सागर हैं दोनों ही हैं पूरण काम।
चाहे कृष्ण कहो या राम।
माखन ब्रज में एक चुरावै, एक बेर सबरी घर खाबे।
प्रेम भाव से भरे अनोखे, दोनों के हैं काम॥
चाहे कृष्ण कहो या राम।
एक कंस पापी सँहारे, एक दुष्ट रावण को मारे।
दोनों हैं अधीन दुखहर्ता दोनों बल के धाम॥
चाहे कृष्ण कहो या राम।
एक राधिका के संग राजे, एक जानकी संग बिराजै।
चाहे राधे श्याम कहो या बोलो सीता राम॥
चाहे कृष्ण कहो या राम।
दोनों हैं घट घट के वासी, दोनों हैं आनन्द प्रकाशी।
'बिन्दु' सदा गोविन्द भजन में मिलता है विश्राम॥
चाहे कृष्ण कहो या राम।।
13.
प्रभो अपने दरबार से अब न टालो।
गुलामी का इकरार मुझसे लिखा लो॥
दीनानाथ अनाथ का भला मिला संयोग।
यदि तारोगे नहीं तो हँसी करेंगे लोग॥
है बेहतर कि दुनिया की बदनामियों से।
बचो आप ख़ुद और मुझको बचा लो॥
पशु निषाद खल भीलनी नीच जाति कुल कुल नाम।
बिना योग जप तप किए गए तुम्हारे धाम॥
ये जिस प्रेम के सिन्धु में जा रहे हैं।
उसी सिन्धु में ‘बिन्दु’ को भी मिला लो॥
14.
क्यों ये कहते हो घनश्याम आते नहीं।
सच्चे दिल से उन्हें तुम बुलाते नहीं॥
क्यों ये कहते हो कुछ भोग खाते नहीं,
भीलनी भाव से तुम खिलाते नहीं॥
क्यों ये कहते हो गीता सुनाते नहीं।
पार्थ सी धारणा तुम दिखाते नहीं॥
क्यों ये कहते हो लज्जा बचाते नहीं।
द्रौपदी सी विनय तुम सुनाते नहीं॥
क्यों ये कहते हो नर मन बनाते नहीं।
प्रेम ‘बिन्दु’ के दृग से गिराते नहीं॥
15.
कृष्ण प्यारे को तूने नहीं जाना रे!
रहा दुनिया में हरदम दीवाना रे!!
झूठ कपट व्यवहार में किया सबेरा शाम।
एक बार भी प्रेम से लिया न हरि का नाम॥
इसमें भी करता है लाख बहाना रे!
कृष्ण प्यारे को तूने नहीं जाना रे!
धन दौलत से एकदिन ख़ाली होगा हाथ।
अंत समय भगवान का नाम ही होगा साथ॥
हरि भक्ति का दिल से खजाना रे!
कृष्ण प्यारे को तूने नहीं जाना रे!
जो करना है जल्द कर क्यों बैठा है मौन।
पल-पल में तो प्रलय है कल को जाने कौन॥
व्यर्थ अब तो न जीवन गंवाना रे!
कृष्ण प्यारे को तूने नहीं जाना रे!
कहीं न उसको ढूंढ तू कर ले यह विश्वास।
प्रेम ‘बिन्दु’ को देखकर आता है प्रभु पास॥
इससे बढ़कर है क्या समझाना रे!
कृष्ण प्यारे को तूने नहीं जाना रे!।
16.
है प्रेम जगत में सार और सार कुछ नहीं।
कहा घनश्याम में उधौ कि वृन्दावन जरा जाना,
वहाँ की गोपियों को ज्ञान का तत्व समझाना।
विरह की वेदना में वे सदा बेचैन रहती हैं,
तड़पकर आह भर कर और रो-रोकर ये कहती है।
है प्रेम जगत में सार और सार कुछ नहीं॥1।।
कहा हँसकर उधौ ने, अभी जाता हूँ वृन्दावन।
जरा देखूँ कि कैसा है कठिन अनुराग का बंधन,
हैं कैसी गोपियाँ जो ज्ञान बल को कम बताती हैं।
निरर्थक लोकलीला का यही गुणगान गातीं हैं,
है प्रेम जगत में सार और सार कुछ नहीं॥2॥
चले मथुरा से दूर कुछ जब दूर वृन्दावन नज़र आया,
वहीं से प्रेम ने अपना अनोखा रंग दिखलाया,
उलझकर वस्त्र में काँटें लगे उधौ को समझाने,
तुम्हारे ज्ञान का पर्दा फाड़ देंगे यहाँ दीवाने।
है प्रेम जगत में सार और सार कुछ नहीं॥3॥
विटप झुककर ये कहते थे इधर आओ इधर आओ,
पपीहा कह रहा था पी कहाँ यह भी तो बतलाओ,
नदी यमुना की धारा शब्द हरि-हरि का सुनाती थी,
भ्रमर गुंजार से भी यही मधुर आवाज़ आती थी,
है प्रेम जगत में सार और सार कुछ नहीं॥4॥
गरज पहुँचे वहाँ था गोपियों का जिस जगह मण्डल,
वहाँ थी शांत पृथ्वी, वायु धीमी, व्योम था निर्मल,
सहस्रों गोपियों के बीच बैठीं थी श्री राधा रानी,
सभी के मुख से रह रह कर निकलती थी यही वाणी,
है प्रेम जगत में सार और सार कुछ नहीं॥5॥
17.
भजन श्यामसुंदर का करते रहोगे।
तो संसार सागर से तरते रहोगे॥
कृपानाथ बेशक मिलेंगे किसी दिन।
तो सत्संग पथ से गुजरते रहोगे॥
चढोगे हृदय पर सभी के सदा तुम।
जो अभिमान गिरि से उतरते रहोगे॥
न होगा कभी क्लेश मन को तुम्हारे।
जो अपनी बड़ाई से डरते रहोगे॥
छलक हीं पड़ेगा दयासिन्धु का दिल।
जो दृग ‘बिन्दु’ से रोज भरते रहोगे॥
18.
जीवन को मैंने सौंप दिया अब सब भार तुम्हारे हाथों में,
उद्धार पतन अब सब मेरा है सरकार तुम्हारे हाथों में।
हम तुमको कभी नहीं भजते फिर भी तुम हमको नहींतजते,
अपकार हमारे हाथों में उपकार तुम्हारे हाथों में।
हम में तुम में भेद यही हम नर हैं तुम नारायण हो,
हम हैं संसार के हाथों में संसार तुम्हारे हाथों में।
कल्पना बनाया करती है इस सेतु विरह के सागर पर,
जिससे हम पहुँचा करते हैं उस पार तुम्हारे हाथों में।
दृग ‘बिन्दु’ कर रहे हैं भगवन दृग नाव विरह सागर में है,
मंझधार बीच फँसे हैं हम और है पतवार तुम्हारे हाथों में॥
19.
हरि बोल मेरी रसना घड़ी-घड़ी।
व्यर्थ बीताती है क्यों जीवन मुख मन्दिर में पड़ी-पड़ी॥
नित्य निकाल गोविन्द नाम की श्वास-श्वास से लड़ी-लड़ी।
जाग उठे तेरी ध्वनि सुनकर इस काया की कड़ी-कड़ी।
बरसा दे प्रभु नाम, सुधा रस ‘बिन्दु’ से झड़ी-झड़ी॥
20.
सदा श्याम-श्यामा पुकारा करेंगे।
नवल रूप निशि दिन निहारा करेंगे।
यमुना तट लता कुञ्ज ब्रज बीथियों में,
विचर कर ये जीवन गुजारा करेंगे।
मिलेगी जो रसिया की जूठन प्रसादी,
वही जीविका का सहारा करेंगे।
बसेंगे करीलों में काँटों में हरदम,
जरात कंटकों से किनारा करेंगे।
जो दृग ‘बिन्दु’ से पाँव धोया करेंगे,
तो पलकों से पथ को बुहारा करेंगे।
21.
यही नाम मुख में हो हरदम हमारे।
हरे कृष्ण गोविन्द मोहन मुरारे।
लिया हाथ में दैत्य ने जब कि खंजर।
कहा पुत्र से कहाँ तेरा ईश्वर।
तो प्रहलाद ने याद की आह भरकर।
दिखाई पड़ा उसको खम्भे के अंदर।
है नरसिंह के रूप में राम प्यारे।
हरे कृष्ण गोविन्द मोहन मुरारे।
सरोवर में गज-ग्राह की थी लड़ाई।
न गजराज की शक्ति कुछ काम आई।
कहीं से मदद उसने जब कुछ न पाई।
दुखी हो के आवाज हरि की लगाई।
गरुड़ छोड़ नंगे ही पाँवों पधारे।
हरे कृष्ण गोविन्द मोहन मुरारे।
अजामिल अधम में न थी क्या बुराई।
मगर आपने उसकी बिगड़ी बनाई।
घड़ी मौत की सिर पै जब उसके आई।
तो बेटे नारायण की थी रट लगाई।
तुरत खुल गये उनके बैकुंठ द्वारे।
हरे कृष्ण गोविन्द मोहन मुरारे।
दुशासन जब हाथ अपने बढायें।
तो दृग ‘बिन्दु’ थे द्रौपदी ने गिराये।
न की देर कुछ द्वारिका से सिधाये।
अमित रूप ये बनके साड़ी में आये।
कि हर तार थे आपका रूप धारे।
हरे कृष्ण गोविन्द मोहन मुरारे।
22.
सदा अपनी रसना को रसमय बनाकर,
हरि हर, हरि हर, हरि हर जपाकर।
इसी जप से कष्टों का कम भार होगा,
इसी जप से पापों का प्रतिकार होगा।
इसी जप से नर तन का श्रृंगार होगा,
इसी जप से तू प्रभु को स्वीकार होगा।
ये स्वासों की दिन रात माला बनाकर,
हरि हर, हरि हर, हरि हर जपाकर।
इसी तप से तू आत्म बलवान होगा,
इसी जप से तू कर्तव्य का ध्यान होगा,
इसी जप से संतुष्ट भगवान होगा,
अकेले ही या साथ सबको मिलाकर,
हरि हर, हरि हर, हरि हर जपाकर।
जो श्रद्धा से इस जप को रोज़ गाता,
तो उसका यही जप है जीवन विधाता,
यही जप पिता है यही जप है माता,
यही जप है इस जग में कल्याण दाता,
हरि का कोई रूप मन में बिठाकर,
हरि हर, हरि हर, हरि हर जपाकर।
ये जप जब तेरे मन को ललचा रहा हो,
वो रसिकों के रस पथ पर जा रहा हो,
मज़ा श्री हरि नाम का आ रहा हो,
हरि ही हरि हर तरफ़ छा रहा हो,
तो कुछ प्रेम ‘बिन्दु’ दृग से बहाकर,
हरि हर, हरि हर, हरि हर जपाकर।
23.
जीवन का मैंने सौंप दिया ..
जीवन का मैंने सौंप दिया,सब भार तुम्हारे हाथों में
उद्धार पतन अब मेरा है , सरकार तुम्हारे हाथों में
हम उनको कभी नहीं भजते, वो हमको कभी नहीं तजते
अपकार हमारे हाथों में, उपकार तुम्हारे हाथों में
जीवन का मैंने सौंप दिया, सब भार तुम्हारे हाथों में
हम पतित हैं तुम पतित पावन, हम नर हैं तुम नारायण हो
हम हैं संसार के हाथों में, संसार तुम्हारे हाथों में
जीवन का मैंने सौंप दिया ,सब भार तुम्हारे हाथों में।।
24.
हमें निज धर्म पर चलना बताती रोज रामायण।
सदा शुभ आचरण करना सिखाती रोज रामायण॥
जिन्हें संसार सागर से उतर कर पार जाना है।
उन्हें सुख से किनारे पर लगाती रोज रामायण॥
कहीं छवि विष्णु की बाकी, कहीं शंकर की है झाँकी।
हृदय आनंद झूले पर झुलाती रोज रामायण॥
सरल कविता की कुंजों में बना मंदिर है हिंदी का।
जहाँ प्रभु प्रेम का दर्शन कराती रोज रामायण॥
कभी वेदों के सागर में कभी गीता की गंगा में।
सभी रस ‘बिन्दु’ में मन को दबाती रोज रामायण॥
25
मन! अब तो सुमिर ले राधेश्याम ।
राधेश्याम मन! सीताराम।
अबतक तो जग में भरमाया।
उचित मार्ग पर कभी न आया॥
अब भज ले हरिनाम॥ मन अब तो...
अब तक तो भटकता था जग के व्यर्थ जालों में,
मगर अब सोचकर कुछ चल जरा सच्चे खयालों में।
जो तेरे पास हरि सुमिरन का सच्चा पास होवेगा,
तो कर विश्वास तेरा स्वर्ग ही में वास होवेगा।
कृष्ण लिखा हो जब इस तन में,
गम के फंदे कटे सब क्षण में।
कृष्ण नाम सुखधाम॥ मन अब तो...
जिसे तू मेरी कहता है वो अंतिम दिन नहीं होगा,
तू जिस माया में भटका है वो कुछ तेरा नहीं होगा।
जो धन-दौलत कमाया है यहाँ ही सब धरा होगा।
भजन हरि का किया है जो वही साथी तेरा होगा।
पाप ‘बिन्दु’ का घड़ा फोड़ दे।
व्यर्थ वासना डोर तोड़ दे।
कर ले कुछ विश्राम॥ मन अब तो...
( प्रस्तुति: आचार्य डा.राधे श्याम द्विवेदी)
आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी
प्रस्तुत कर्ता परिचय:-
(प्रस्तुत कर्ता भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं । )