Thursday, October 13, 2022

पुरास्थल मैनपुरी सैफई में 4000 साल पुराने अवशेष और मुलायम सिंह यादव प्रस्तुति डा. राधे श्याम द्विवेदी



सपा मुखिया स्वर्गीय मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद 1989 से सैफई चर्चाओं में आया, लेकिन सैफई का इतिहास चार हजार साल पुराना है। यहां ईसा से 2000 साल पहले की सभ्यता मौजूद है। अगस्त 1966 में खेत की जुताई करते वक्त यहां कुल्हाड़ियां, बर्छियां, भालों के अग्रभाग, मानवकृत और वलय जैसी तांबे की कई चीजें मिलीं। एएसआई के बीबी लाल के निर्देशन में तत्कालीन पुरातत्वविद् एलएम बहल ने दिसंबर 1970 से फरवरी 1971 के बीच उत्खनन कराया, जिसमें तांबे का हुकदार बाणाग्र और गैरिक मृदभांड मिले। गैरिक मृदभांड ईसा से दो से 1500 साल पहले के काल में मिलते हैं। एएसआई ने वर्ल्ड हेरिटेज वीक के दौरान आगरा के किले में सैफई में हुए उत्खनन का ब्योरा प्रदर्शनी में पेश किया है। भारतीय पर्यटकों के लिए यह ब्योरा बेहद चौंकाने वाला है। सैफई में उत्तर हड़प्पाकाल के दौरान ग्रामीण सभ्यता में प्रयोग किए गए मिट्टी के बर्तन प्राप्त हुए, जिससे सैफई में चार हजार साल पहले सभ्यता और संस्कृति होने के प्रमाण मिलते हैं।             गणेशपुर 4000 साल पुरानी हेरिटेज साइट :-
मैनपुरी के गणेशपुर में 77 ताम्रनिधियों के मिलने और जांच में 3800 साल पुराने होने के बाद हेरिटेज साइट के उत्खनन की मांग पुरातत्वविदों और इतिहासकारों ने की है। उनका कहना है कि सैफई और मैनपुरी के उत्खनन से पूरी सभ्यता के विकास जानकारी मिलेगी। गणेशपुर गंगा-यमुना के दोआब में ऐसी साइट हैं, जहां से पहली बार 39 इंच लंबी तलवार और चार धार वाला भाला मिला है। यहां से 30 किमी दूर सैफई में 52 साल पहले उत्खनन के दौरान ताम्रनिधियां तो मिलीं, लेकिन वहां से केवल 45 सेमी लंबा हार्पून ही मिला। ओसीपी के साथ यहां ग्रे नार्दन ब्लैक पॉलिशड वेयर यानी एनबीपी मिले। इन पर क्रिस-क्रॉस लाइनें थीं। यहां गैरिक मृदभांड में कटोरी और जार भी मिले थे। हड़प्पा और गंगाघाटी सभ्यता की समकालीन सभ्यता के जमीन में दफन रहस्यों को उजागर करने के लिए राज्य सरकार भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण से उत्खनन की सिफारिश कर सकती है। 
चार हजार साल पुराना है सैफई का इतिहास:-
मैनपुरी के गणेशपुर में जिस तरह से ताम्रनिधियां मिली हैं, ठीक वैसे ही इटावा जिले के सैफई से 1970 में हुए उत्खनन में ताम्रनिधियां पाई गई थीं, जो कि चार हजार साल पुरानी थीं। यहां केवल हार्पून मिले, जबकि गणेशपुर में तलवारें और चार धार, चार हुक वाले भाले मिले हैं। पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के गृह जिले से चर्चित इटावा के सैफई में सबसे पहले 1966 में खेत जोतते समय तांबे की कुल्हाड़ियां, बर्छियां, भालों के अग्रभाग, मानवकृत और वलय जैसी तांबे की कई चीजें मिलीं। 
एएसआई के डॉ. बीबी लाल के निर्देशन में तत्कालीन पुरातत्वविद् एलएम बहल ने दिसंबर 1970 से फरवरी 1971 के बीच 20×20 मीटर ट्रेंच में उत्खनन कराया, जिसमें तांबे का हुकदार बाणाग्र और गैरिक मृदभांड मिले। 
      जुलाई सन 1969 ई. सैफई , इटावा के किसान श्री भंवरी सिंह को खेत की जुताई के दौरान बड़ी संख्या में ताम्र - आयुध मिले । सूचना मिलने पर पुलिस आई और प्राप्त सामग्री को जांच के नाम पर इटावा ले गई । इसके बाद कुछ आयुध किसान को लौटा दिया और उसने उसे कबाड़ी को बेच दिया जिन्हें उसने गला दिया ।
          अगस्त 1969 ई. में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण नई दिल्ली को जब इसकी सूचना मिली कि सैफई इटावा में तांबे के कुछ आयुध प्राप्त हुए हैं तो पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग ने उत्तरी क्षेत्र के तकनीकी सहायक डा. एल एम वहल को निरीक्षण / जांच के लिए भेजा । डा एल एम वहल के सैफई पहुंचने तक (72 घण्टे में) अधिकांश पुरा सामग्री इधर उधर हो गई । 
           डा. एल एम वहल ने जांच में जुताई के समय प्राप्त ताम्र - आयुधों में से एक कटार देखने को मिला जिससे यह सिद्ध हुआ कि यह महत्त्वपूर्ण पुरा-स्थल है। उक्त ताम्र आयुध को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक प्रोफेसर बी. बी. लाल को दिखाया गया । इसके बाद सैफई में डा एल एम वहल के निर्देशन में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने उत्खनन कराया । उत्खनन के दौरान डा बहल के पास बर्लिन विश्वविद्यालय, जर्मनी के पुरा विज्ञानी प्रोफेसर पाल यूली भी सैफई आए । उस समय स्थानीय लोगो ने बताया कि 10 ×10मीटर के क्षेत्र मे लगभग 200 ताम्र आयुध एक ढेर के रूप में रखे थे । ताम्र आयुधो में कुल्हाड़ी, मानवाकृति एवं बर्क्षी व भाले आदि प्रमुख थे । डा.वहल और प्रोफेसर पाल यूली ने कुछ पुरावशेष सैफई वासियों के पास देखा । सैफई के पंचम सिंह व बादाम सिंह ने दोनो पुराविदो को काफी जानकारी व सहयोग दिया । 
      सैफई में पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने मई 1970 में जब खाई खोदी तो गैरिक मृदभांड (O.C.P.) के साथ एक कटार मिली । दिसम्बर 1970 में डा एल एम वहल ने प्रोफेसर बी बी लाल के कुशल मार्गदर्शन में छोटे स्तर से अनवरत उत्खनन कार्य शुरू किया जो फरवरी 1971 तक चला । सैफई से प्राप्त मृदभांड ( OCP) को डा बी बी लाल ने "Safai Ware" कहा है । सैफई को पुराविदो ने पुनीत स्थल माना है । (Saifai is a holy place of Indian Archaeology )
सैफई पुरास्थल का जिक्र प्रमुख रूप से जर्मनी के प्रोफेसर पाल यूली ने अपनी किताब "द कापर हार्डस आफ इंडियन सब कांटीनेंट और डा एल एम वहल ने पुरातत्त्व -५ में एक्सकेवेशन एट सैफई ओर प्रोफेसर बी बी लाल का लेख द कापर हार्डस कल्चर आव द गंगा वैली में प्रमुख रूप से है । कुछ समय पूर्व युग युगों में सैफई शीर्षक पुस्तक भी प्रकाशित हुई थी । 
सैफई में पुरातत्व सर्वेक्षण एवं उत्खनन कर्ता डा. एल एम वहल को इस आशय का एक प्रमाण पत्र भूतपूर्व एम एल ए श्री मुलायम सिंह यादव जी (उस समय मास्टर साहब के रूप में ख्यात थे ) ने दिया, अवलोकन करें ---     
     " मै प्रमाणित करता हूं कि श्री लाल मोहन वहल तकनीकी सहायक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण भारत सरकार के जिनको पुरातत्व विभाग ने खुदाई के कार्य हेतु यहां ग्राम सैफई जि. इटावा में भेजा है । उस स्थान की खुदाई का काम करने के लिए जहां पहले ताम्रयुगीन हथियारों का एक भंडार मिला था । उन्होंने इस स्थान की खुदाई का कार्य बहुत ही संतोषप्रद ढंग से किया तथा उनके काम एवं कार्य प्रणाली से हम सब लोग बहुत ही प्रभावित एवं सन्तुष्ट हैं । यह सैफई ग्राम का पुन: सौभाग्य था कि खुदाई के दौरान एक ताम्रयुगीन तांबे की तलवार पुन: उसी स्थान के करीब मिल गई हैं । जो इस बात का ज्वलंत प्रमाण है कि यह स्थान ताम्र युग में बहुत महत्त्वपूर्ण रहा होगा । मुझे पूर्ण विश्वास है कि इन सब तथ्यों को ध्यान में रखकर विवेचनात्मक दृष्टि से यदि देखा जाय तो ताम्रयुगीन इतिहास पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ेगा ।
मुलायम सिंह यादव, सैफई  भू. पू. एम. एल. ए. 20. 5.1970

Wednesday, October 12, 2022

लक्ष्मण के अवतार रामानुजाचार्य की मूर्ति का अयोध्या में उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी जी ने अनावरण किया डा राधे श्याम द्विवेदी

अयोध्या ।12 सितंबर 2022 । अम्माजी रामास्वामी मंदिर गोलाघाट निर्माेचन चौराहा अयोध्या में स्थित है। यह राम जन्मभूमि से मात्र दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित दक्षिण भारत की शैली पर बने राधा कृष्ण मंदिर अम्मा जी मंदिर के रूप में जाना जाता है । यहां के पूर्व संत श्री योगी की मृत्यु के बाद भगवान ने उनका रख-रखाव की जिम्मेदारी ली। मंदिर और लोगों को भवन निर्माण के लिए निस्वार्थ भक्ति के रूप में अमाजी मंदिर के रूप में जाना जाता है।  श्री रंगनाथ जी स्वामी और श्री राम की मूर्तियाँ यहाँ स्थापित हैं। सीता माता के साथ लक्ष्मण, भरतन चतुरगण, अंजनेय और गरुड़ श्री राम के साथ की मूर्तियां स्थापित हैं।
         दक्षिण भारतीय शैली के बने अम्मा जी मंदिर का हाल ही में जीर्णोद्धार हुआ है। 28 सितंबर को 5 दिवसीय समारोह में इसका शिलान्यास किया गया था। उत्तर प्रदेश के ख्यातिवान मुख्यमंत्री ने 28 सितंबर को रामानुजाचार्य की प्रतिमा स्थापित करने की घोषणा की थी।रामानुजाचार्य की 1000 वीं जयंती पर रामनगरी अयोध्या में पहली बार 12 सितंबर 2022 को उनकी प्रतिमा की स्थापना हुआ है। यह प्रतिमा लगभग चार फीट लंबी है। अयोध्या के संतों ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से अयोध्या के प्रमुख चौराहे को रामानुजाचार्य के नाम पर रखने की मांग की थी। इस पर मुख्यमंत्री ने उन्हें आश्वासन दिया था कि आने वाले वर्षों में वरिष्ठ साधु-संतों के नाम से अयोध्या में चौराहे बनाए जाएंगे।
    अनावरण के मौके पर मुख्यमंत्री के साथ जगद्गुरु रामानुजाचार्य राघवाचार्य और जगद्गुरु रामानुजाचार्य श्रीधराचार्य उपस्थित रहे। इस अवसर पर मुख्यमंत्री ने अपने संबोधन में कहा कि भारत ज्ञान की भूमि है। समय -समय पर भारत में आध्यात्मिक संतों का मार्गदर्शन मिला है। स्वामी रामानुजाचार्य ने समाज को दृष्टि दी थी। संतों का सानिध्य भारतवर्ष को हर कालखण्ड में मिला। संतों की इस परम्परा पर हमें गौरव की अनुभूति होती है। द्वैत-अद्वैत लक्ष्य पर पहुंचने के अलग-अलग मार्ग हैं। भारतीय मनीषा ने कभी नहीं कहा कि जो हम कह रहे हैं, वही धर्म है। महापुरुषों के द्वारा जो बताया गया, वही धर्म है।
      मुख्यमंत्री ने कहा कि संत लोक कल्याण के मार्ग पर चलने की हमें प्रेरणा देते हैं।                                         जात-पात पूछे नहि कोई, हरि को भजे सो हरि को होई...।                  इस मार्ग से जब हम हटे तब विदेशी आक्रान्ताओं ने हमें कमजोर किया। हम सनातन धर्म को मजबूत कर एक भारत श्रेष्ठ भारत बनाने के साथ ही दुनिया को शांति का संदेश देंगे। कार्यक्रम के दौरान दक्षिण भारतीय संगीत की धुनें बजती रहीं।

Sunday, October 9, 2022

देश भर के सनातन मंदिरों में शरद पूर्णिमा के विविध कार्यक्रम डा.राधे श्याम द्विवेदी

अयोध्या।शरद पूर्णिमा के अवसर पर देश भर के सनातन मंदिरों में प्रभु के विग्रह के अनेक रास लीलाएं,पूजन और अर्चना के कार्यक्रम आयोजित हुए।इस अवसर राम नगरी अयोध्या के प्राचीन दन्त धावन कुंड में क्षीरशायी भगवान विष्णु कि अलौकिक झांकी का आयोजन किया गया । हजारो की संख्या में पहुंचे श्रद्धालु भगवान विष्णु की झांकी का दर्शन कर में भाव विभोर हुए । राम नगरी अयोध्या में शरद पूर्णिमा के मौके पर यह आयोजन 124 वर्षों से होता चला आ रहा है।  ऐतिहासिक दंतधावन कुण्ड में भगवान क्षीरशायी महाराज की सुन्दर एवं अलौकिक झांकी सजाई गई है तथा इस मौके पर खीर प्रसाद का भोग लगाकर श्रद्धालुओं में वितरित किया गया। यह पूरा आयोजन साकेत भूषण समाज की ओर परम्परागत रूप से सजाई जाती रही है। जिसमे शेषशैया पर देवी महालक्ष्मी के साथ विराजमान विष्णु शंख, गदा एवं चक्र के साथ शेषनाग पर विराज मान है रहते हैं। भगवान विष्णु की कमलनाभि के सृष्टि के रचयिता ब्रम्हदेव एवं नारदमुनि की सुन्दर झांकी सजाया गया था।
ब्रह्म मुहूर्त से ही अयोध्या के विभिन्न घाटों समेत फैजाबाद के गुप्तारघाट पर भक्तों ने डुबकी लगाई व मां सरयू का पूजन-अर्चन किया। इसके बाद विभिन्न मंदिरों रामलला, कनक भवन, हनुमानगढ़ी, नागेश्वरनाथ आदि में भी माथा टेका। हनुमानगढ़ी में दिन भर दर्शन-पूजन के लिए भक्तों की लंबी कतार लगी रही। शाम को आंजनेय सेवा संस्थान की ओर से मां सरयू की भव्य आरती हुई।
अयोध्या के हजारों मंदिरो में प्रभु के विग्रहों को बाहर श्वेत चांदनी में रख दिव्य छटा का रसपान कराया गया। अयोध्या में श्रद्धालुओं में विशेष उल्लास देखा गया।

Saturday, October 8, 2022

रामलीला है प्रभु श्रीराम की लीलाओं की शाश्वत प्रस्तुति डा. राधे श्याम द्विवेदी


         रामलीला का कार्यक्रम भारत में मनाये जाने वाले प्रमुख सांस्कृतिक कार्यक्रमों में से एक है। यह एक प्रकार का गद्य पद्य और संगीतमय कथा का नाटकीय मंचन होता है, जो हिंदू धर्म के प्रमुख आराध्यों में से प्रमुख आराध्य प्रभु श्रीराम के जीवन पर आधारित होता है। महर्षि वाल्मिकि द्वारा रचित ‘रामायण’ सबसे प्राचीन हिंदू ग्रंथों में से एक है। संस्कृत में लिखा गया यह ग्रंथ भगवान विष्णु के सातवें अवतार प्रभु श्री राम के ऊपर आधारित है। इसमें उनके जीवन संघर्षों, मूल्यों, मानव कल्याण के लिए किये गये कार्यों का वर्णन किया गया है।
          सामान्यतः इसका आरंभ दशहरे से कुछ दिन पहले होता है और इसका अंत दशहरे के दिन रावण दहन के साथ होता है। इसके अलावा परंपरा के अनुसार अलग अलग स्थानों पर अलग अलग समयों पर भी राम लीलाएं और राम बारात का आयोजन होता रहता है। स्थानीय क्षेत्र के विकास के लिए आगरा में पितृ पक्ष में ही राम बारात का भव्य आयोजन होता है। आश्विन मास में राम विवाह के अवसर पर भी देश भर में लीलाएं आयोजित होती रहती हैं।
रामलीला का इतिहास:-
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के जीवन पर आधारित राम लीला लोक नाटक के इस कार्यक्रम का इतिहास काफी प्राचीन है, ऐसा माना जाता है कि रामलीला की शुरुआत उत्तर भारत में हुई थी और यहीं से इसका हर जगह प्रचार-प्रसार हुआ। रामलीला को लेकर कई सारे ऐसे ऐतिहासिक प्रमाण मिले है, जिससे यह पता चलता है कि यह पर्व 11वीं शताब्दी से भी पूर्व से मनाया जा रहा है। यद्धपि इसका पुराना प्रारुप महर्षि वाल्मिकि के महाकाव्य ‘रामायण’ पर आधारित था, लेकिन आज के समय में जिस रामलीला का मंचन होता है, वह रामलीला मूलतःगोस्वामी तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ पर आधारित होती है। इसके अलावा राधेश्याम रामायण और रामानंद सागर का रामायण धारावाहिक भी राम लीलाओं का आधार बनता है। 
        राम लीला के वर्तमान रुप को लेकर कई सारी मान्यताएं प्रचलित हैं । कुछ विद्वानों का मानना है कि इसकी शुरुआत 16वीं सदी में वाराणसी में हुई थी। ऐसा माना जाता है कि उस समय के काशी नरेश ने गोस्वामी तुलसीदास के रामचरित मानस को पूरा करने के बाद रामनगर में रामलीला कराने का संकल्प किया था। जिसके पश्चात गोस्वामी तुलसीदास के शिष्यों द्वारा इसका वाराणसी में पहली बार मंचन किया गया था। रामलीला मंचन के दौरान भगवान श्री राम के जीवन के विभिन्न चरणों तथा घटनाओं का मंचन किया जाता है। एक बड़े और प्रतिष्ठित राज्य का राजकुमार होने के बावजूद उन्होंने अपने पिता के वचन का पालन करते हुए, अपने जीवन के 14 वर्ष जंगलों में बिताये थे। उन्होंने सदैव धर्म के मार्ग पर चलते हुए लोगो को पारिवारिक संबंधों,आदर्श त्याग,आदर्श राजा और गरीबों , दलितों के उत्थान,संतों, गाय, विप्र और धरती के कष्टों को दूर करने, दया, मानवता और सच्चाई का संदेश दिया। अपने राक्षस शत्रुओं का संहार करने का पश्चात उन्होंने उनका विधिवत दाह संस्कार करवाया क्योंकि उनका मानना था कि हमारा कोई भी शत्रु जीवित रहने तक ही हमारा शत्रु होता है। मृत्यु के पश्चात हमारा उससे कोई बैर नही होता, स्वयं अपने परम शत्रु रावण का वध करने के बाद उन्होंने एक वर्ष तक उसके हत्या के लिए प्रायश्चित किया था।
मानवता के लिए एक प्रेरणा स्रोत:-
एक विशाल राज्य के राजकुमार और भावी राजा होने के बावजूद भी उन्होंने एक ही विवाह किया, वास्तव में उनका जीवन मानवता के लिए एक प्रेरणा स्रोत है। यहीं कारण कि उनके जीवन के इन्हीं महान कार्यों का मंचन करने के लिए देश भर के विभिन्न स्थानों पर रामलीला के कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है।
रामलीला: रिवाज एवं परंपरा :-
वैसे तो रामलीला की कहानी महर्षि वाल्मिकि द्वारा रचित महाकाव्य ‘रामायण’ पर आधारित होती है लेकिन आज के समय में जिस रामलीला का मंचन किया जाता है उसकी पटकथा गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ पर आधारित होता है। हालांकि भारत तथा दूसरे अन्य देशों में रामलीला के मंचन की विधा अलग-अलग होती है परंतु इनका कथा प्रभु श्रीराम के जीवन पर ही आधारित होती है।
शारदीय नवरात्रि में मंचन:-
देश के कई स्थानों पर नवरात्र के पहले दिन से रामलीला का मंचन शुरु हो जाता है और दशहरे के दिन रावण दहन के साथ इसका अंत होता है। वाराणसी के रामनगर में मनाये जाने वाली रामलीला 31 दिनों तक चलती है। इसी तरह ग्वालियर और प्रयागराज जैसे शहरों में मूक रामलीला का भी मंचन किया जाता है। जिसमें पात्रों द्वारा कुछ बोला नही जाता है बल्कि सिर्फ अपने हाव-भाव द्वारा पूरे रामलीला कार्यक्रम का मंचन किया जाता है।
पात्र के अनुरुप वेश भूषा और श्रृंगार :-
पूरे भारत में रामलीला का कार्यक्रम देखने के लिए भारी संख्या में लोग इकठ्ठा होते है। देश के सभी रामलीलाओं में रामायण के विभिन्न पात्र देखने को मिलते हैं। रामलीला में इन पात्रों का मंचन कर रहे लोगो द्वारा अपने पात्र के अनुरुप वेश भूषा और श्रृंगार किया जाता है।
विविध प्रसंगों की लीलाएं:-
कई जगहों पर होने वाली रामलीलाओं में प्रभु श्री राम के जीवन का विस्तृत रुप से वर्णन किया जाता है, तो कही सक्षिंप्त रुप से मुख्यतः इसमें सीता स्वयंवर ,वनवास काल, निषाद द्वारा गंगा पार कराना, सीता हरण, अंगद का दूत रुप में लंका जाना, हनुमान जी द्वारा माता सीता को प्रभु श्रीराम का संदेश देना और लंका दहन करना, लक्ष्मण जी का मूर्छित होना और हनुमान जी द्वारा संजीवनी लाना, मेघनाथ वध, कुंभकर्ण वध, रावण वध , भरत मिलाप और राज्याभिषेक जैसे घटनाओं को प्रमुखता से प्रदर्शित किया जाता है। दशहरा के दिन रावण, मेघनाथ तथा कुंभकर्ण के पुतलों के जलाने के साथ रामलीला के इस पूरे कार्यक्रम का अंत होता है।
रामलीला की आधुनिक परंपरा :-
रामलीला के वर्तमान स्वरुप और इसके मनाये जाने में आज के समय में काफी परिवर्तन आया है। आज के समय में जब हर ओर उन्माद तथा कट्टरपंथ अपने चरम पर है, तो दशहरे के समय आयोजित होने वाला रामलीला का यह कार्यक्रम भी इससे अछूता नही रह पाया है। आजादी से पहले लाहौर से लेकर कराचीं तक रामलीला कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता था। जिसमें हिंदुओं के संग मुसलमान भी बड़े ही उत्सुकता के साथ देखने जाते थे। स्वयं मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के शासनकाल में उनके दरबार में भी उर्दू भाषा में अनुवादित रामायण सुनाई जाती थी।
इसके साथ ही दिल्ली में यमुना किनारे रामलीला का मंचन किया जाता था। इस कार्यक्रम के लिए हिंदू तथा मुस्लिम दोनो ही संयुक्त रुप से दान किया करते थे। लेकिन आज के समय में हालात काफी बदल गये हैं। आजकल लोगों में धार्मिक कट्टरता और उन्माद काफी बड़ चुका है। भारत के कई सारे क्षेत्रों में रामलीला मंचन के समय कई तरह की बुरी घटनाए सुनने को मिलती है। यदि हम चाहें तो रामलीला में दिखाये जाने वाले प्रभु श्रीराम के जीवन मंचन से काफी कुछ सीख सकते हैं और यह सीखें सिर्फ हिंदु समाज ही नही अपितु पूरे विश्व के लिए काफी कल्याण कारी साबित होंगी। हमें इस बात का अधिक से अधिक प्रयास करना चाहिए कि हम रामलीला को सद्भावना पूर्वक एक-दूसरे के साथ मनायें ताकि इसकी वास्तविक महत्ता बनी रहे।
रामलीला का महत्व :-
रामलीला का अपना एक अलग ही महत्व है। वास्तव में यह कार्यक्रम हमें मानवता तथा जीवन मूल्यों का अनोखा संदेश देने का कार्य करता है। आज के समय लोगो में दिन-प्रतिदिन नैतिक मूल्यों का पतन देखने को मिल रहा है। यदि आज के समय में हमें सत्य और धर्म को बढ़ावा देना है तो हमें प्रभु श्री राम के पथ पर चलना होगा। उनके त्याग और धर्म के लिए किये गये कार्यों से सीख लेकर हम अपने जीवन को बेहतर बनाते हुए, समाज के विकास में भी महत्वपूर्ण योगदान दे सकते है।
रामलीला से बड़े परिवर्तन की संभावना :-
यदि हम रामलीला में दिखाये जाने वाले सामान्य चीजों को भी अपने जीवन में अपना ले तो हम समाज में कई सारे बड़े बदलाव ला सकते। रामायण पर आधारित रामलीला में दिखाये जाने वाली छोटी-छोटी चीजें जैसे श्री राम द्वारा अपने पिता के वचन का पालन करने के लिए वन जाना, शबरी के जूठे बैर खाना, लोगो में किसी प्रकार का भेद ना करना, सत्य और धर्म के रक्षा के लिए अनेकों कष्ट सहना जैसी कई सारी महत्वपूर्ण बाते बतायी जाती हैं, जो हमें वचन पालन, भेदभाव को दूर करना तथा सत्य के मार्ग पर डटे रहना जैसे महत्वपूर्ण संदेश देता है।
उपयोगी सीख:-
वास्वव में यदि हम चाहे तो रामलीला मंचन के दौरान दी जानी वाली शिक्षाप्रद बातों से काफी कुछ सीख सकते हैं और यदि हम इन बातों में से थोड़ी भी चीजों को अपने जीवन में अपना ले तो यह समाज में काफी बड़ा परिवर्तन ला सकते हैं। यही कारण है कि रामलीला मंचन का कार्यक्रम हमारे लिए इतना महत्वपूर्ण है।
रावण का महिमा मंडन का गलत प्रचलन बन्द हो :-
इस कलयुग में भगवान श्रीराम के साथ साथ कुछ ब्राह्मण जन केवल रावण की जाति देखकर दशानन रावण को अपना भगवान मानने लगे हैं। सोशल मिडिया पे जहां भी देखो दशानन रावण के बखान की परिपाटी चल पड़ी है कि वह एक प्रकांड पंडित था, उसने जगत जननी माता सीता को कभी छुआ तक नहीं जी, वह तो अपनी बहन के अपमान के लिये, अपना पूरा कुल तक दाव पर लगा दिया आदि आदि। 
       यह पूर्ण सत्य नही है। माता सीता जी को ना छूने का कारण उसकी अच्छाईयां नहीं, बल्कि कुबेर के पुत्र “नलकुबेर” का श्राप था। एक बार स्वर्ग की अप्सरा रंभा ने रावण के भाई कुबेर के पुत्र "नलकुबेर" से मिलने जा रही थी तब रास्ते में रावण उसे देख लिया था। वह रंभा के रूप और सौंदर्य को देखकर मोहित हो गया था। दशानन रावण ने रंभा को बुरी नीयत से रोका भी था। इस पर रंभा ने रावण से, उसे छोडऩे की प्रार्थना की और कहा कि, आज मैंने आपके भाई कुबेर के पुत्र नलकुबेर से मिलने का वचन दिया है ।अत: मैं आपकी पुत्रवधु के समान हूं मुझे छोड़ दीजिए, परंतु रावण था ही दुराचारी वह नही माना और रंभा के साथ दुष्कर्म किया था। जब नलकुबेर को रावण के इस दुष्कृत्य का पता चला तो, वह अति क्रोधित हुआ।
          क्रोधित नलकुबेर ने दशानन रावण को श्राप दिया कि अब से रावण ने किसी भी स्त्री को उसकी स्वीकृति के बिना छुआ, या अपने महल में रखा या उसके साथ दुराचार किया तो वह उसी क्षण भस्म हो जाएगा। इसी श्राप के डर से रावण ने सीता जी को राजमहल में न रखते हुए राजमहल से दूर अशोक वाटिका में रखा। वैसे भी जो व्यक्ति ज्ञानी होकर भी पथभ्रष्ट होने वाले पतित का अपराध ज़्यादा संगीन होता है। इसलिए रावण के महिमागान के गलती नही होना चाहिए। दशानन रावण विद्वान अवश्य था लेकिन जो व्यक्ति अपने ज्ञान को यथार्थ जीवन मे लागू ना करे वो ज्ञान विनाश कारी होता है।
        रावण ने अनेक ऋषिमुनियों का वध किया था। अनेक यज्ञ ध्वंस किये थे। ना जाने कितनी स्त्रियों का अपहरण किया। एक गरीब ब्राह्मणी "वेदवती" के रूप से वह प्रभावित होकर जब उसे बालों से घसीट कर, ले जाने लगा तो वेदवती ने आत्मदाह कर लिया था और वह उसे श्राप दे गई कि तेरा विनाश एक स्त्री के कारण ही होगा।
रावण अजेय भी नही था, प्रभु श्रीराम जी के अलावा, उसे राजा बलि, वानरराज बाली, महिष्मति के राजा कार्तविर्य अर्जुन जो, सहस्त्रबाहु के रूप में जाने जाते हैं, और स्वयं भगवान शिव ने भी रावण को हराया था। दशानन रावण की और एक कारनामे में से एक है जब रावण की बहन सूर्पनखा का पति विधुतजिव्ह राजा कालकेय का सेनापति था। जब दशानन रावण ने तीनो लोकों पर विजय प्राप्त करने के लिए निकला तो उसका युद्ध कालकेय से भी हुआ, जिसमे उसने सूर्पनखा के पति विधुतजिव्ह का वध कर दिया था, तब सूर्पणंखा ने अपने ही भाई को श्राप दिया था कि तेरे सर्वनाश का कारण ही मै बनूंगी। इसलिए जो ज्ञानी होकर भी पथभ्रष्ट हो जाता है, उसका अपराध और ज्यादा संगीन हो जाता है. चाहे वह दशानन रावण हो, कार्तविर्य अर्जुन हो या महिषासुर हो।इनकी महिमागान की गलती नही होना चाहिए।
विदेशों में राम लीला :-
भारत के साथ-साथ दूसरे कई सारे देशों में भी रामलीला काफी प्रसिद्ध है। भारत के अलावा बाली, जावा, श्रीलंका, थाईलैंड जैसे देशों में भी रामलीला का मंचन किया जाता है। 
थाईलैंड की रामलीला:-
भारत के साथ थाईलैंड और बाली जैसे अन्य देशों में भी काफी धूम-धाम के साथ रामलीला कार्यक्रम का मंचन किया जाता है। थाईलैंड की रामलीला काफी प्रसिद्ध है, थाईलैंड में रामलीला मंचन को रामकीर्ति के नाम से जाना जाता है। हालांकि यह रामलीला भारत में होने वाली रामलीलाओं से थोड़ी भिन्न हैं लेकिन फिर भी इसके किरदार रामायण के पात्रों पर ही आधारित हैं। प्राचीन समय में भारत का दक्षिण एशियाई देशों पर काफी प्रभाव था। यहां के व्यापारी, ज्ञानी तथा उत्सुक लोग सदैव ही व्यापार तथा नयी जगहों की खोज के लिए दक्षिण एशिया के क्षेत्रों में यात्रा किया करते थे। उनके ही कारण भारत की यह सांस्कृतिक विरासत कई सारी देशों में प्रचलित हुई। इतिहासकारों के अनुसार थाईलैंड में 13वीं सदी से ही रामायण का मंचन किया जा रहा है।





भगवान विष्णु के अनन्य भक्त आचार्य श्री रंगनाथ मुनि श्रीसनातन सम्प्रदाय परम्परा (15वीं कड़ी)

श्री सम्प्रदाय के आद्य आचार्य रंगनाथ मुनि और उनके पौत्र यामुनाचार्य ने वैष्णव परम्परा को आगे बढाया और रामानुजाचार्य ने इसे गौरव के शिखर पर पहुँचाया है। इसे आजकल रामानुज सम्प्रदाय के नाम से भी जाना जाता है। इस सम्प्रदाय के अनुयायी 'श्री वैष्णव' कहलाते हैं। इनका दार्शनिक सिद्धान्त 'विशिष्टाद्वैत' है। ये भगवान् लक्ष्मी जी नारायण की उपासना करते है। श्री सम्प्रदाय के आचार्यों में परिगणित मुनि त्रय में श्री नाथमुनी बहुत लोकप्रियता रूप में जाने जाते है ।  श्री संप्रदाय के मुनि त्रय के दो अन्य आचार्य यामुनाचार्य और रामानुजाचार्य रहे। आचार्य रंगनाथ मुनि या नाथ मुनि वेदशास्त्र वा पुराणादि के प्रकाण्ड विद्वान सिद्ध और जीवन मुक्त महात्मा रहे हैं। शंकराचार्य के सिद्धांत का प्रतिवाद किया था। वे वैष्णव धर्मशास्त्री थे जिन्होंने नलयिर के  "दिव्य प्रबंधम" को एकत्र और संकलित किया जो श्री वैष्णव आचार्यों में से पहला ग्रंथ माना जाता है । नाथमुनि योगरहस्य , और न्यायतत्व के लेखक भी रहे हैं ।
जीवन परिचय :-नाथमुनि स्वामीजी के जन्म का नाम अरंगनाथन था। जिनका जन्म द्रविण देश के चिदंबरम क्षेत्र के तिरुनारायण पुरम ( कार्टू मन्नार,वर्तमान वीरना -रायण पुरम) में 824 ई में हुआ था। आपके पिता का नाम ईश्वर भटटर था । आपका विवाह वंगीपुराचार्य की पुत्री अरविंदजा से हुआ था। जिससे ईश्वरमुनि पुत्र का जन्म हुआ था। ईश्वर मुनि अल्पकाल में दिवंगत हो गए थे। ईश्वरमुनि के पुत्र यमुनाचार्य जी हुए थे। ये भी श्री सम्प्रदाय के प्रसिद्ध आचार्य हुए थे। श्री नाथ मुनि को ब्रज भूमि और यमुना बहुत प्रिय था। इस कारण वे अपने पौत्र का नाम यमुनाचार्य रखा था। प्रतीत होता है इनका नाम संभवतः एक तीर्थयात्रा की स्मृति के रूप में रखा गया था । नाथमुनि अपने बेटे (ईश्वर मुनि) और बहू के साथ यमुना के तट पर  गए थे। वे श्रीरंगम में अपने दो भतीजों को भी भजन सिखाये थे। इसके अलावा , उन्होंने उन्हें श्री रंगनाथस्वामी मंदिर, श्रीरंगम में श्रीरंगम मंदिर सेवा में भी लिया  था , जहां वे मंदिर प्रशासक रहे थे। 
तीर्थ यात्रा को बढ़ावा:-
उन्होंने उत्तर भारत के अनेक तीर्थों की यात्रा में बहुत समय बिताया था। ब्रज की प्रेम लक्षणा नारदीय भक्ति का उन्होंने दक्षिण में व्यापक प्रचार किया था। आपने आलवारोंं के प्रबंधों के खोज के लिए अनेक यात्राएं की थी।आप सिद्ध योगी थे। समाधि अवस्था में आपको श्री शठकोपाचार्य का साक्षात्कार हुआ था। जिनके कृपा प्रसाद से आपको 4000 दिव्य प्रबंधों की प्राप्ति हुई थी। जिस कारण आप चार भागों में दिव्य प्रबंधकम का संकलन किया था। समाधि अवस्था में आपने श्री शठकोपा जी से वैष्णवी दीक्षा प्राप्त की थी। आपने रहस्यार्थ सहित मंत्रों का ज्ञान प्राप्त किया था ।आपके ही प्रयत्नों से श्रीरंगम में भगवान के मंदिर में आलवार भक्तों के पद्यों के संगीत मय गायन का प्रारम्भ हुआ था। (संदर्भ: गीताप्रेस भक्त माल पृष्ठ 336)
चार लोकप्रिय श्लोक:-
नाथमुनि स्वामीजी के प्रयास से प्राप्त इन दिव्य प्रबंधों, के कारण ही आज श्री वैष्णव साम्प्रदाय का ऐश्वर्य हमें प्राप्त हुआ हैं । इनके बिना यह प्राप्त होना दुर्लभ था । आल्वन्दार स्वामीजी , नाथमुनि स्वामीजी के पौत्र अपने स्तोत्र रत्न में नाथमुनि की प्रशंसा शुरुआत के तीन श्लोकों मे करते है ।
पहले श्लोक में बताते हैं की ” मैं उन नाथमुनि को प्राणाम करता हुँ जो अतुलनीय हैं, विलक्षण हैं और एम्पेरुमानार् के अनुग्रह से अपरिमित ज्ञान भक्ति और वैराग्य के पात्र हैं ।
दूसरे श्लोक में कहते हैं की ” मैं उन नाथमुनि जी के चरण कमलों का, इस भौतिक जगत और अलौकिक जगत में आश्रय लेता हूँ जिन्हें मधु राक्षस को वध करने वाले (भगवान श्री कृष्ण) के श्री पाद कमलों पर परिपूर्ण आस्था , भक्ति और शरणागति ज्ञान हैं” ।
तीसरे श्लोक में कहते हैं की ” मैं उन नाथ मुनिजी की सेवा करता हूँ जिन्हें अच्युत के लिए असीमित प्रेम हो निज ज्ञान के प्रतीक हैं , जो अमृत के सागर हैं , जो बद्ध जीवात्माओ के उज्जीवन के लिए प्रकट हुए हैं, जो भक्ति में निमग्न रहते हैं और जो योगियों के महा राजा हैं ।
उनके अन्तिम और चौथे श्लोक में एम्पेरुमान् से विनति करते हैं की, उनकी उपलब्धियों को न देखकर , बल्कि उनके दादा की उपलब्धिया और शरणागति देखकर मुझे अपनी तिरुवेडी का दास स्वीकार किया जाय । इन चारो श्लोक से हमें नाथमुनि जी के महान वैभव की जानकारी होती हैं ।
दीर्घ जीवी रहे रत्न मुनि :-
उन्हें दीर्घ जीवी 400 साल जीवित होने की बात भी कही जाती है।यह संभावना है कि चोल राजाओं द्वारा नियंत्रित उस क्षेत्र में अपनी महानता के शिखर पर पहुंचने से पहले नाथमुनि सौ वर्षों से थोड़ा अधिक समय तक रहे। माना जाता है कि वह मधुरकवि अलवर की परम्परा के जीवनकाल में ही रहे थे । नाथमुनी के साथ संपर्क में था नम्मलवार द्वारा सत्यापित किया जाता है गुरु-परम्परा , दिव्या सूरी चरित , और प्रप्पन्नामरता भी साक्षी है।
अद्भुत मृत्यु :-
अपना अंतिम समय निकट जान कर नाथमुनि स्वामीजी, आस पास की परिस्थिथो से विस्मरित हो एम्पेरुमान के ध्यान में निमग्न रहते थे । एक दिन उनसे मिलने राजा और रानी आते है । ध्यानमग्न स्वामीजी को देख , राजा और रानी लौट जाते है । प्रभु प्रेम , लगन और भक्ति में मग्न, नाथमुनि स्वामीजी को ऐसा आभास होता है की भगवान श्री कृष्ण गोपियों के साथ आए और उनको ध्यानमग्न अवस्था में देखकर वापस लौट गये है, अपने इस आभास से दुखी हो श्रीनाथमुनि राजा और रानी की ओर दौड़ते है |
अगली बार शिकार से लौटते हुए राजा, रानी, एक शिकारी, एक वानर के साथ उनसे मिलने के लिए आते हैं । इस बार भी नाथमुनि स्वामीजी को ध्यान मग्न देख , राजा फिर से लौट जाते हैं । नाथमुनि जी को इस बार यह लगता हैं की श्री राम चन्द्र, माता सीता, लक्ष्मण जी और हनुमान जी उन्हें दर्शन देने पधारे हैं , पर उन्हें ध्यान मग्न देख लौट गये और इसी आभास में , नाथमुनि उनके दर्शन पाने उनके पीछे दौड़ते हैं । जब वह छवि उनकी आँखों से ओझल हो जाती हैं, भगवान से वियोग सहन न कर पाने के कारण नाथमुनि मूर्छित हो 924 ई में प्राणों को छोड़ देते हैं और परमपद प्राप्त कर लेते है । परंपरा के अनुसार नाथमुनि श्रीरंगम मंदिर की मूर्ति में प्रवेश कर ईश्वर में समाहित हो गये थे।  यह समाचार सुनकर तुरन्त ईश्वर मुनि , शिष्य बृंद के साथ वहाँ पहुँचते हैं और उनके अन्तिम कर्म संपन्न कराते है ।
           



Thursday, October 6, 2022

श्रीसम्प्रदाय के आचार्य श्री पुण्डरीकाक्ष से संबंधित विवेचन। (श्री सनातन सम्प्रदाय परम्परा कड़ी 16)

श्रीसम्प्रदाय के आचार्य श्री पुण्डरीकाक्ष से संबंधित विवेचन __आचार्य डा. राधे श्याम द्विवेदी 
पुण्डरीकाक्ष का शाब्दिक विवेचना :-
पुण्डरीकाक्ष का सामान्य अर्थ जिसकी अक्ष रूपी इंद्रियां पुंडरीक बन गयी है। विशिष्टता को ही पुंडरीक कहा जाता है। सामान्य को कण्डरीक और कण्डरीक का विपरीतार्थक पुण्डरीक होता है। संस्कृत में पुण्डरीकाक्ष का अर्थ श्वेत पद्म अथवा श्वेत कमल के समान नेत्र वाला भी होता है। 
दैत्यों के अत्याचार से परेशान होकर देवताओं ने भगवान विष्णु से इनका संहार करने की प्रार्थना की। बैकुंठ पति भगवान विष्णु कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी को बैकुंठ से वाराणसी आए और ब्रह्ममुहूर्त में मणिकार्णिका घाट पर स्नान करके देवो के देव महादेव की एक सहस्त्र श्वेत कमल पुष्पों से पूजा करने का संकल्प लिया।  शिवजी ने ठिठोली की और एक श्वेत पद्म विलुप्त कर दिया ।वह पुष्प भगवान शिव ने भगवान विष्णु की परीक्षा लेने के लिए छिपा लिया था। अब भगवान विष्णु जी भगवान जी की पूजा आरम्भ कर चुके थे । मंत्रोच्चार के साथ कमल पुष्प शिवलिंग पर चढ़ाने लगे। जब 999 कमल पुष्प चढ़ाए जा चुके तो भगवान विष्णु चौंके, क्योंकि हजारवां कमल पुष्प गायब था। विष्णु ने काफी ढूंढा पर वह पुष्प नहीं मिला। मध्य में उठ नही सकते तो उन्होंने सोचा मेरा एक नाम कमलनयन भी है तो शिवजी को प्रसन्न करने के लिए अपना नेत्र ही भगवान महादेव को समर्पित करने का निश्चय किया। उन्होंने अपने नेत्र को अर्पित करने के लिए जैसे ही उद्धत हुए भगवान शिव प्रकट हुए और उन्होंने कहा , "आप से महान मेरा कोई भक्त नही है। आज के पश्चात इस तिथि को वैकुंठ शुक्ल चतुर्दशी के नाम से जाना जाएगा। इस दिन व्रत करने के उपरांत जो प्रथम आपका उसके उपरांत मेरा पूजन करेगा उसको सीधा वैकुंठ की प्राप्ति होगी।" शिव जी ने छिपाया हुआ कमल देकर विष्णु जी को नेत्र निकलने से रोक दिया। इस कारण से भगवान विष्णु को कमल नयन कहा जाता है।
इसके पश्चात शिव जी ने प्रसन्न होकर भगवान विष्णु को तीनों लोकों के पालन की जिम्मेदारी और सुदर्शन चक्र भी प्रदान किया। जिससे श्री हरी विष्णु ने दैत्यों का संहार कर देवताओं को सुख प्रदान किया।
श्रीकृष्ण का नाम पुण्डरीकाक्ष :-
हिन्दू पौराणिक ग्रन्थों और महाभारत की मान्यताओं के अनुसार श्रीकृष्ण का एक नाम पुण्डरीकाक्ष था। चार भुजाधारी भगवान विष्णु के दाहिनी एवं ऊर्ध्व भुजा के क्रम से शंख, चक्र गदा और पद्म आदि आयुधों को क्रम को धारण करने पर भगवान की भिन्न-भिन्न मुद्राएं - संज्ञाएँ मानी जाती हैं। दक्षिण भारत में इस स्वरूप के अनेक मंदिर मिलते है। विष्णु के इस स्वरूप का बहुत आदर और श्रद्धा के साथ पूजन किया जाता है।
कमल नयन के अर्थ का रोचक पौराणिक कथा :-
पुंड से ही पुंडरीक भी बना है। 'पुण्डरीक' का अर्थ 'कमल' होता है। 'कमल' पवित्रता और पूर्णता का प्रतीक होता है।
पुंडरीकाक्ष विशेषण के अर्थ में प्रयुक्त होता है। जिसकी आँखे कमल के समान सुंदर हों उसे पुण्डरीक कहते हैं। भगवान विष्णु के कई नाम हैं और उनके अवतारों के अनुसार उनके नाम रख दिये गए और उन्हें पुकारा जाने लगा। श्री हरि के इन्हीं नामों में से एक है कमल नयन भी है। 
पुंडरीकाक्ष का शाब्दिक व्याख्या:-
पुण्ड से उर्ध्वपुंड और त्रिपुंड भी बना है। पुंड संज्ञा पुंलिंग शब्द है जिसके दो अर्थ हैं पहला अर्थ तिलक होता है। चंदन, केसर आदि पोतकर मस्तक या शरीर पर बनाया हुआ चिह्न होता है। इसे टीका भी कह सकते हैं। हिंदू धर्म में जितने संतों के मत हैं, जितने पंथ है, संप्रदाय हैं उन सबके अपने अलग-अलग तिलक होते हैं। सनातन धर्म में शैव, शाक्त, वैष्णव और अन्य मतों के अलग-अलग तिलक होते हैं। ये 52 द्वारे, सात अखाड़े और चार सम्प्रदाय में कम से कम 20 से 25 हज़ार प्रकार के तिलक होते हैं। मुख्य तिलक में एक रामानंदियों के हैं, और दूसरे वैष्णवो के हैं। उसे त्रिपुंड कहते हैं एक उर्ध्व पुण्ड भी होता है।
त्रिपुुंण्ड के विविध स्वरूप :-
जो सन्यासी लोग लगाते हैं, शंकर जी का त्रिपुंड होता है। जो शंकर त्रिपुंड लगाते हैं वो धनुष का प्रतीक है। राम जी के धनुष के आकार का भी तिलक होता है। इसके अलग- अलग भाव हैं, कोई इसे त्रिशूल का प्रतीक मानता है।"
शैव तिलक : - शैव परंपरा में ललाट पर चंदन की आड़ी रेखा या त्रिपुंड लगाया जाता है।
शाक्त तिलक :- शाक्त सिंदूर का तिलक लगाते हैं। सिंदूर उग्रता का प्रतीक है। यह साधक की शक्ति या तेज बढ़ाने में सहायक माना जाता है। 
वैष्णव तिलक :- वैष्णव परंपरा में चौंसठ प्रकार के तिलक बताए गए हैं। रामानुजाचार्यों में माथे के बीच में श्री का तिलक और किनारे सफेद रंग की तिलक लगाने की परम्परा है। 
श्यामनंदी और निम्बार्कचार्य संप्रदाय के संत लाल श्री की जगह काली बिंदी लगाते हैं। इसमें कुछ संत सिर्फ काली बिंदी लगाते हैं तो कुछ बिंदी के साथ चंदन की धारियों को भी मस्तक पर सजाते हैं। स्वामी नारायण संप्रदाय से जुड़े संत केवल लाल बिंदी लगाते हैं।
ब्रह्मपुराण में ऊर्ध्व पुंड्र तिलक की क्या महिमा :-
माथे पर राख द्वारा चिन्हित तीन आड़ी रेखाऐं दर्शाती हैं की लगाने वाला शिव-भक्त है। नाक पर तिकोन और उसके ऊपर “V” चिन्ह यह दर्शाता है कि लगाने वाला विष्णु-भक्त है। यह चिन्ह भगवान विष्णु के चरणों का प्रतीक है, जो विष्णु मन्त्रों का उच्चारण करते हुए लगाया जाता है। तिलक लगाने के अनेक कारण एवं अर्थ हैं परन्तु यहाँ हम मुख्यतः वैष्णवों द्वारा लगाये जाने वाले गोपी-चन्दन तिलक के बारे में चर्चा करेंगे । गोपी-चन्दन (मिट्टी) द्वारका से कुछ ही दूर एक स्थान पर पायी जाती है। इसका इतिहास यह है कि जब भगवान इस धरा-धाम से अपनी लीलाएं समाप्त करके वापस गोलोक गए तो गोपियों ने इसी स्थान पर एक नदी में प्रविष्ट होकर अपने शरीर त्यागे। वैष्णव इसी मिटटी को गीला करके विष्णु-नामों का उच्चारण करते हुए, अपने माथे, भुजाओं, वक्ष-स्थल और पीठ पर इसे लगते हैं।तिलक हमारे शरीर को एक मंदिर की भाँति अंकित करता है, शुद्ध करता है और बुरे प्रभावों से हमारी रक्षा भी करता है। अगर कोई वैष्णव जो उर्धव-पुन्ड्र लगा कर किसी के घर भोजन करता है, तो उस घर के २० पीढ़ियों को परम पुरुषोत्तम भगवान घोर नरकों से निकाल देते हैं। – (हरी-भक्तिविलास ४.२०३, ब्रह्माण्ड पुराण से उद्धृत)।
           हे पक्षीराज! (गरुड़) जिसके माथे पर गोपी-चन्दन का तिलक अंकित होता है, उसे कोई गृह-नक्षत्र, यक्ष, भूत-पिशाच, सर्प आदि हानि नहीं पहुंचा सकते। – (हरी-भक्ति विलास ४.२३८, गरुड़ पुराण से उद्धृत)।
          जिन भक्तों के गले में तुलसी या कमल की कंठी-माला हो, कन्धों पर शंख-चक्र अंकित हों, और तिलक शरीर के बारह स्थानों पर चिन्हित हो, वे समस्त ब्रह्माण्ड को पवित्र करते हैं । – पद्म पुराण
         हमारे यहां प्रायः कहा जाता है --
 'चित्रकूट के घाट पर भय संतन की भीड़, 
तुलसीदास चंदन घिसे तिलक करत रघुवीर' ।
इस प्रकार तिलक का बहुत महत्व है, तो हिन्दू संस्कृति सभ्यता ये बताती है अगर कोई तिलक लगाता है, तो वो अपने पूजा पाठ आस्था में विश्वास रखता है, इसलिए लगाता है।"
पुंड्र दक्षिण भारत की एक जाति :-
पुंड्र का दूसरा अर्थ दक्षिण भारत की एक जाति का नाम भी यही है जो पहले रेशम के कीड़े पालने का काम करती थी ।
श्री सम्प्रदाय के एक महान संत पुण्डरीकाक्ष :-
उय्यकोण्डार (नई व्यवस्था का उद्धारकर्ता") उर्फ़ पुण्डरीकाक्ष स्वामीजी का समय संवत ८२६-९३० रहा है। वे श्री संप्रदाय के सन्त आचार्य के साथ ही साथ विष्णु के एक स्वरूप या नामधारी भी थे। नाथमुनि के सबसे प्रसिद्ध शिष्यों में से एक पुंडरीकाक्ष थे, जिन्होंने अपने पीछे कोई साहित्यिक कार्य नहीं छोड़ा है। ऐसा माना जाता है कि नाथमुनि के पास एक दृष्टि थी जहां उन्होंने अपने पोते यमुनाचार्य के जन्म का पूर्वाभास किया और पुंडरीक्ष को अपना आध्यात्मिक गुरु नियुक्त किया (जिन्होंने यमुनााचार्य का मार्गदर्शन करने के लिए अपने शिष्य राममिस्र को प्रतिनियुक्त किया । पुण्डरीकाक्ष जी महाराज परम वैष्णव अमानी संत थे । आप रत्न मुनि के शिष्य थे। "गुन तुम्हार समझय निज दोषा।" यह आपके जीवन का सिद्धान्त था।आप कहते थे कि दूसरों के दोष को छुपाने और अपने दोषों को प्रकट करने से मानसिक दुर्बलताएं दूर होती है और निज धर्म में दृढ़ता होती है। नाथ मुनि के शिष्य और विद्वान श्री राम मिश्र के समकालीन थे। वे आपमें बड़ा आदर भाव रखते थे। जीवन की अनेक समस्याओं का समाधान पाने के लिए श्री मिश्र जी पुंडरीकाक्ष जी के पास आते थे और उनसे भक्ति पूर्वक सम्यक समाधान पाते थे।( गीताप्रेस भक्तमाल पृष्ठ 336) । परम् श्रद्धेय श्री पुण्डरीक जी महाराज के वचनानुसार कल्मष को जो निवृत्त कर दे वो कथामृत है । ये कथा श्रवण करते ही जीवन मे मंगल होता है ,या यूं कहिये श्रवण ही मंगल है ।
                निर्मल मन जन सो मोहि पावा , 
                मोहि कपट छल छिद्र न भावा।
         निर्मल मन वाले जन ही प्रभु को प्राप्त कर सकते हैं ।निर्मल अर्थात मल रहित व्यक्ति प्रभु का सायुग्य प्राप्त कर सकता है। पहला मल जो है वह कपट ही है ।कपट ही वो कपाट है जो हमको ठाकुर जी से मिलने नहीं देते । ठाकुर जी कहते है तुम मेरे पास वैसे बनकर आया करो जैसे मैने तुम्हे बनाकर भेजा था । जीवन मे कपटता नही करना। ठाकुर जी से कपट नहीं करना। दूसरा मल छल है। छलछिद्र एक शब्द है । ये दूसरा मल है ।कभी किसी के साथ छल मत करो । व्यक्ति सबसे पहले अपने साथ ही छल करता है । ये कथा , सत्संग और आत्मशुद्धि के लिए प्रेरित करता है ।
         


















 

Tuesday, October 4, 2022

अंसल इमरोल्ड हाईट आगरा में भजन संध्या ने अदभुत छटा बिखेरा

आगरा । शारदीय नवरात्रि के पावन पर्व पर अंसल इमरोल्ड हाइट के नव निर्माणाधीन मन्दिर पर विगत 26 सितंबर से 5 अक्टूबर 2022 तक दस दिवसीय मां दुर्गा पूजन आराधना संगीत और भजन नियमित चल रहा है।    2 अक्टूबर 2022 को सप्तम दिवस के अवसर पर "हनु डायग्नोस्टिक " समसाबाद,आगरा के प्रोपराइटर (मेजर) डा. अभिषेक द्विवेदी और ओ. पी. चौबे के सौजन्य से अंसल इमरोल्ड हाइट के खुले प्रांगण में "संतोष भजन मण्डली " द्वारा भजन संध्या  का आयोजन किया जा गया।               डा जी एस धर्मेश विधायक आगरा छावनी 
कार्यक्रम में उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री और छावनी आगरा विधान सभा के विधायक डा जी एस धर्मेश और विधान परिषद सदस्य श्री विजय शिवहरे की उपस्थिति उल्लेखनीय रही है।कार्यक्रम का शुभारंभ श्री संतोष तिवारी के गणेश बंदना  गौरी सुत गणराज्य गजानन विघ्न हरण मंगलकारी। से शुरू हुआ। फिर क्रमशः सांझ भए दिन ढल गया मेरी अम्बे ,भोर ही जय जयकार मन्दिर बीच आरती जय जय मां। साथी हमारा कौन बनेगा,तुम ना सुनोगी तो कौन सुनेगा। तथा हर सांस सुमिरन तेरा, यूं बीत जाए जीवन मेरा जैसे भक्ति गीतों ने महफिल में समा बांध दिया था। इसके बाद श्री वीरेंद्र जी द्वारा घूम घूम कर श्रोताओं के मध्य जा जाकर भक्तों को जोड़ते हुए कई भक्ति गीत प्रस्तुत किए। तेरे दरबार आना मेरा काम है,मेरी बिगड़ी बनाना तेरा काम है। चलो बुलावा आया है माता ने बुलाया है। पकड़ लो हाथ बनवारी नही तो डूब जायेगी,हमांरा कुछ न बिगड़ेगा तुम्हारी लाज जाएगी ।आदि गीतों ने भक्तों को झूमने के लिए मजबूर कर दिया।       श्री विजय शिवहरे विधान परिषद सदस्य आगरा
श्री मती मानसी शर्मा के भजन  - केला मइया के लगे हैं दरबार चलो रे दर्शन कर आई , बहुत पसंद किया गया। लगन मइया से लगा बैठे जो होगा देखा जाएगा,भी सराहा गया। मोहे प्रेम का रोग लगाई दो, नाचे भोला हर हर हर हर हर, ओ सांवरे हमको तेरा ही सहारा है, आदि गीत भी पसंद किए गए। श्री कृष्णा चौहान का गीत मुझे तेरा ही सहारा महारानी,राधारानी कृपा बरसाए रखना भी खूब जम गया था। भजन संध्या के साथ ही साथ हनु डायग्नोस्टिक " समसाबाद,आगरा के सौजन्य से भंडारे का आयोजन भी सफल रहा।
(समाचार संकलन: डा. राधे श्याम द्विवेदी, पूर्व सहा. पुस्तकालय एवम सूचना अधिकारी, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मण्डल आगरा )