01 अप्रैल 1909 ई. में उत्तर प्रदेश के बस्ती जिला के हर्रैया तहसील के कप्तानगंज
विकास खण्ड के दुबौली दूबे नामक गांव मे एक कुलीन परिवार में जन्में पंडित मोहन
प्यारे द्विवेदी मोहन जी अपने पैतृक गांव दुबौली दूबे में एक प्राथमिक विद्यालय
खोला था जो चल ना सका तो बाद में पड़ोस के गांव करचोलिया में 1940 ई. में एक दूसरा
प्राइमरी विद्यालय खोलना पड़ा था। जो आज भी
चल रहा है। वह 1955 में वह प्रधानाध्यापक पद पर वहीं आसीन हुए थे। इस क्षेत्र में
शिक्षा की पहली किरण इसी संस्था के माध्यम से फैला था। वर्ष 1971 में पण्डित जी
प्राइमरी विद्यालय करचोलिया से अवकाश ग्रहण कर लिये थे। राजकीय जिम्मेदारियों से
मुक्त होने के बाद वह देशाटन व धर्म या़त्रा पर प्रायः चले जाया करते थे।
उन्हांेने श्री अयोध्याजी में श्री वेदान्ती जी से दीक्षा ली थी। उन्हें सीतापुर
जिले का मिश्रिख तथा नौमिष पीठ बहुत पसन्द आया था। वहां श्री नारदानन्द सरस्वती के
सानिध्य में श्री अध्यात्म विद्यापीठ में वह रहकर शिक्षा देने लगे थे।
अपने समय में वह अपने क्षेत्र में प्रायः एक विद्वान के रूप में प्रसिद्व
थे। ग्रामीण परिवेश में होते हुए घर व विद्यालय में आश्रम जैसा माहौल था। घर पर
सुबह और शाम को दैनिक प्रार्थनायें होती थी। इसमें घड़ी-धण्टाल व शंख भी बजाये जाते
थे। दोपहर बाद उनके घर पर भागवत की कथा नियमित होती रहती थी । उनकी बातें बच्चों
के अलावा बड़े बूढे भी माना करते थे। वह श्रीकृष्ण जन्माष्टमी वे वड़े धूमधाम से
अपने गांव में ही मनाया करते थे। वह गांव वालों को खुश रखने के लिए आल्हा का गायन
भी नियमित करवाते रहते थे। रामायण के अभिनय में वे परशुराम का रोल बखूबी निभाते
थे। दिनांक 15 अपै्रल 1989 को 80 वर्ष की अवस्था में पण्डित जी ने अपने मातृभूमि
में अतिम सासें लेकर परम तत्व में समाहित हो गये थे। आज उनके 110 वीं जयन्ती के
अवसर पर उनके आत्मीय, परिवारी तथा आम जन उन्हें सादर स्मरण करते हुए अपनी
श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
उनका जीवन स्वाध्याय तथा चिन्तन
पूर्ण था। चाहे वह प्राइमरी स्कूल के शिक्षण का काल रहा हो या सेवामुक्त के बाद का
जीवन वह नियमित रामायण अथवा श्रीमद्भागवत का अध्ययन किया करते थे। संस्कृत का
ज्ञान होने के कारण पंडित जी रामायण तथा श्रीमद्भागवत के प्रकाण्ड विद्वान तथा
चिन्तक थे। उनहें श्रीमद्भागवत के सौकड़ो श्लोक कण्ठस्थ थे। इन पर आधारित अनेक
हिन्दी की रचनायें भी वह बनाये थे। वह ब्रज तथा अवधी दोनों लोकभाषाओं के न केवल
ज्ञाता थे अपितु उस पर अधिकार भी रखते थे। वह श्री सूरदास रचित सूरसागर का अध्ययन
व पाठ भी किया करते रहते थे। उनके छन्दों में भक्ति भाव तथा राष्ट्रीयता कूट कूटकर
भरी रहती थी। प्राकृतिक चित्रणों का वह मनोहारी वर्णन किया करते थे। वह अपने समय
के बड़े सम्मानित आशु कवि भी थे। भक्ति रस से भरे इनके छन्द बड़े ही भाव पूर्ण है।
उनकी भाषा में मुदुता छलकती है। कवि सम्मेलनों में भी हिस्सा ले लिया करते थे।
अपने अधिकारियों व प्रशंसको को खुश करने के लिए तत्काल दिये ये विषय पर भी वह
कविता बनाकर सुना दिया करते थे। उनसे लोग फरमाइस करके कविता सुन लिया करते थे।
जहां वह पहुचते थे अत्यधिक चर्चित रहते थे। धीरे धीरे उनके आस पास काफी विशाल समूह
इकट्ठा हो जाया करता था। वे समस्या पूर्ति में पूर्ण कुशल व दक्ष थे।
1. मन की तरंग मार लो
बस हो गय भजन
मन की तरंग मार लो बस हो गय भजन ।
आदत बुरी सुधार लो बस हो गया भजन ॥
आऐ हो तुम कहाँ से जाओगे तुम जहाँ ।
इतना सा बस विचार लो बस हो गया भजन ॥
कोई तुमहे बुरा कहे तुम सुन करो क्षमा ।
वाणी का स्वर संभार लो बस हो गया भजन ॥
नेकी सबही के साथ में बन जाये तो करो ।
मत सिर बदी का भार लो बस हो गया भजन ॥
कहना है साफ साफ ये सदगुरु कबीर का ।
निज दोष को निहार लो बस हो गया भजन ॥
2. पितु मातु सहायक
स्वामी
पितु मातु सहायक स्वामी सखा तुमही एक नाथ हमारे हो.
जिनके कछु और आधार नहीं तिन्ह के तुमही रखवारे हो.
सब भांति सदा सुखदायक हो दुःख दुर्गुण नाशनहारे हो.
प्रतिपाल करो सिगरे जग को अतिशय करुणा उरधारे हो.
भुलिहै हम ही तुमको तुम तो हमरी सुधि नाहिं बिसारे हो.
उपकारन को कछु अंत नही छिन ही छिन जो विस्तारे हो.
महाराज! महा महिमा तुम्हरी समुझे बिरले बुधवारे हो.
शुभ शांति निकेतन प्रेम निधे मनमंदिर के उजियारे हो.
यह जीवन के तुम्ह जीवन हो इन प्राणन के तुम प्यारे हो.
तुम सों प्रभु पाइ प्रताप हरि केहि के अब और सहारे हो.
3. तूने रात गँवायी
तूने रात गँवायी सोय के दिवस गँवाया खाय के.
हीरा जनम अमोल था कौड़ी बदले जाय रे.
सुमिरन लगन लगाय के मुख से कछु ना बोल रे.
बाहर का पट बंद कर ले अंतर का पट खोल रे.
माला फेरत जुग हुआ गया ना मन का फेर रे. गया ना मन का फेर रे .
हाथ का मनका छँड़ि दे मन का मनका फेर रे .
दुख में सुमिरन सब करें सुख में करे न कोय रे .
जो सुख में सुमिरन करे तो दुख काहे को होय रे .
सुख में सुमिरन ना किया दुख में करता याद रे.दुख में करता याद रे .
कहे कबीर उस दास की कौन सुने फ़रियाद .
4. हे गोविन्द राखो शरन
हे
गोविन्द राखो शरन अब तो जीवन हारे,नीर पिवन
हेत गयो सिन्धु के किनारे
सिन्धु
बीच बसत ग्राह चरण धरि पछारे, चार प्रहर युद्ध भयो ले गयो मझधारे
नाक
कान डूबन लागे कृष्ण को पुकारे, द्वारका मे सबद दयो शोर भयो द्वारे
शन्ख
चक्र गदा पद्म गरूड तजि सिधारे, सूर कहे श्याम सुनो शरण हम तिहारे
अबकी
बेर पार करो नन्द के दुलारे
5. मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में
मन
लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में
जो
सुख पाऊँ राम भजन में सो सुख नाहिं अमीरी में
मन
लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में
भला
बुरा सब का सुन लीजै, कर गुजरान गरीबी में
मन
लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में
आखिर
यह तन छार मिलेगा, कहाँ फिरत मग़रूरी में
मन
लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में
प्रेम
नगर में रहनी हमारी, साहिब मिले सबूरी में
मन
लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में
कहत
कबीर सुनो भयी साधो, साहिब मिले सबूरी में
मन
लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में
6. जीवन का मैंने सौंप दिया
जीवन
का मैंने सौंप दिया,सब भार तुम्हारे हाथों में
उद्धार
पतन अब मेरा है , सरकार तुम्हारे हाथों में
हम
उनको कभी नहीं भजते, वो हमको कभी नहीं तजते
अपकार
हमारे हाथों में, उपकार तुम्हारे हाथों में
जीवन
का मैंने सौंप दिया, सब भार तुम्हारे हाथों में
हम
पतित हैं तुम हो पतित पावन, हम नर हैं तुम नारायण हो
हम
हैं संसार के हाथों में, संसार तुम्हारे हाथों में
जीवन
का मैंने सौंप दिया ,सब भार तुम्हारे हाथों में
7.यदि नाथ का नाम दयानिधि है
यदि
नाथ का नाम दयानिधि है तो दया भी करेंगे कभी न कभी ।
दुखहारी
हरीए दुखिया जन केए दुख क्लेश हरेगें कभी न कभी ।
जिस
अंग की शोभा सुहावनी है जिस श्यामल रंग में मोहनी है ।
उस
रूप सुधा से स्नेहियों केए दृग प्याले भरेगें कभी न कभी ।
जहां
गीध निषाद का आदर हैए जहां व्याध अजामिल का घर है ।
वही
वेश बनाके उसी घर मेंए हम जा ठहरेगें कभी न कभी ।
करुणानिधि
नाम सुनाया जिन्हेंए कर्णामृत पान कराया जिन्हें ।
सरकार
अदालत में ये गवाहए सभी गुजरेगें कभी न कभी ।
हम
द्वार में आपके आके पड़े मुद्दत से इसी जिद पर हैं अड़े ।
भवसिंधु
तरे जो बड़े से बड़ेए तो ये श्बिन्दुश् तरेगें कभी न कभी ।
8.हरि बोल मेरी रसना घड़ी.घड़ी।
व्यर्थ
बीताती है क्यों जीवन मुख मन्दिर में पड़ी.पड़ी॥
नित्य
निकाल गोविन्द नाम की श्वास.श्वास से लड़ी.लड़ी।
जाग
उठे तेरी ध्वनि सुनकर इस काया की कड़ी.कड़ी।
बरसा
दे प्रभु नामए सुधा रस ष्बिन्दु से झड़ी.झड़ी॥